डायरी
बदलाव, अवसरवाद और भेडचाल
अवसरवाद नींव से लेकर शिखर तक दिख रहा है। वैचारिक अस्थिरता के कारण, नेता ही नहीं, पूर्व अफसर और अब तो आम आदमी भी विचलन का शिकार है। यह उक्ति कि ‘जहां मिली तवा परात वहीं बिताई सारी रात’ सटीक बैठ रही है।
कल तक जिनसे नाक भौं सिकाड़ी जाती थी, उन्हीं की गलबहियां डाली जा रही हैं। छोड़ने से लेकर शामिल होने तक के उपक्रम चालू हैं। क्या इसे बदलाव की बयार का परिणाम कहेंगे, क्या वास्तव में ऐसे सभी सुजन अपने आसपास बिगड़ते माहौल को सुधारने के हामी हैं। क्या यही आखिरी मौका है, क्या उनके सामने विकल्प सीमित और आखिरी हैं… ऐसे ही कई सवाल… जिनके सीधे उत्तर तो शायद मिले, मगर, भेड़ों के झुंड जरुर दौड़ते दिख रहे हैं। पहले भी दौड़ते थे, और लग रहा है कि शाश्वत दौड़ते रहेंगे। शिक्षा और उच्च शिक्षा का भी उसपर शायद ही प्रभाव पड़े।
लिहाजा, इस दौड़भाग के निहितार्थ भी समझे जाने चाहिए। यह आपाधापी स्वहित से आगे जाती नहीं दिखती। व्यक्तिवाद यहां भी हावी है, सूरज का ख्याल यहां भी बराबर रखा जा रहा है।
ऐसे में यह दावा कि समाज, राज्य और देश बदलेगा, मिथ्या लगता है। लक्षित बदलाव वास्तविक बदलाव की आगवानी कतई सूचक नहीं माना जा सकता है।
सो जागते रहो, जागते रहो………