गढ़वाली-कविता

“सुबेर नि हूंदि“ (गज़ल)

काम काज़ा की अब कैथै देर नि हूंदि
अजकाल म्यारा गौं मा सुबेर नि हूंदि


घाम त तुमरि देळमि कुरबुरि मै बैठु जांदु द्य
अगर सूरज़ थैं बूण भजणा कि देर नि हूंदि


खोळ्यूं का द्यप्ता भि दगड़म परदेस पैट जांदा
जो गौं गळ्यां मा घैंटी डौड्ंया की केर नि हूंदि


गुठ्यारा की गौड़ि अपणि बाछि थैं सनकाणि चा
द्विया खळ्कि जांदा जो या दानि गुयेर नि हूंदि


द्यप्तौं का ठौ का द्यू बळ्दरा भि हर्चिगीं कखि
द्यप्तौं का घारम बल देर च पर अंधेर नि हूंदि


जब बटैकि उज्यळौं मा रैणा कु ढब ऐ ग्याई
अंध्यरौं मा गांवा की मुकजात्रा बेर बेर नि हूंदि


होलि तू दूणेक,नाळेक,पाथेक,सेरेक परदेस मा
जलमभुमि कभि अपणों खुण सवासेर नि हूंदि


जो बैठिगीं, वो बैठिगीं भग्यान वे खैरा चमसू
’पयाश’ बांजि पुंगड़ियूं मा क्वी हेरफेर नि हूंदि



—  पयाश पोखड़ा

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button