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समझौता-विहीन संघर्षों की क्रांतिकारी विरासत को सलाम

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तेइस अप्रैल, 1930 को बिना गोली चले,
बिना बम फटे पेशावर में इतना बड़ा धमाका हो गया कि एकाएक अंग्रेज भी
हक्के-बक्के रह गये
, उन्हें अपने पैरों तले जमीन खिसकती
हुई-सी महसूस होने लगी। इस दिन हवलदार मेजर चन्द्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में
रॉयल गढ़वाल राइफल्स के जवानों ने देश की आजादी के लिए लडऩे वाले निहत्थे पठानों
पर गोली चलाने से इंकार कर दिया। अंग्रेजों ने तो पठान स्वतंत्रता सेनानियों के
विरूद्ध गढ़वाली फौज को उतारा ही इसलिये था कि हिंदू-मुस्लिम विभाजन का
बांटो और राज करोखेल जो वे 1857 के ऐतिहासिक विद्रोह के बाद से इस देश में खेलते आये थे, उसे वे पेशावर में एक बार फिर सरंजाम देना चाहते थे।



लेकिन 23 अप्रैल, 1930 को
पेशावर में हुई इस घटना को इस तरह पेश किया जाता है जैसे कि गढ़वाली सिपाहियों ने
क्षणिक आवेश में आकर यह कार्यवाही कर दी हो। जबकि वास्तविकता यह है कि यह क्षणिक
आवेश में घटित घटना या कांड नहीं था। यह एक सुविचारित विद्रोह था जिसकी तैयारी
चन्द्र सिंह गढ़वाली और उनके साथी काफी अर्से से कर रहे थे। अंग्रेजी फौज में
भर्ती होने से पूर्व चन्द्र सिंह की कोई विधिवत शिक्षा नहीं हुई थी। गरीब परिवार
में
24 दिसंबर, 1891 को जन्मे लड़के के
पिता यदि पढ़ाई-लिखाई से ज्यादा गाय-भैंस चराने को महत्वपूर्ण समझते थे तो यह कोई
अचरज की बात नहीं थी। घर से भागकर वह फौज में भर्ती हुए। अंग्रेज पढ़ाई-लिखाई तो
कराते थे पर हिंदी रोमन लिपि में लिखवाते थे। ऐसा इसलिये क्योंकि अनपढ़ सिपाही यदि
देवनागिरी लिपि पढऩा सीख जायेगा तो देश के अखबारों में अंग्रेजों के विरूद्ध हो
रही उथल-पुथल को पढ़कर जानने लगेगा। (आश्चर्यजनक यह है कि रोमन लिपि मंप हिंदी
यानि अंग्रेजी में हिंदी लिखने का कायदा हमारी फौजों में अब भी कायम है) फ्रांस
,
मैसोपोटामिया (अब ईराक) आदि की लड़ाइयों के दौरान ही अंग्रेजों के
बर्ताव से चन्द्र सिंह को अपने गुलाम होने का बोध होने लगा था।



फौज में रहते हुए ही जब वे देवनागिरी
लिपि सीख गये तो उन्होने हिंदी अखबार पढऩा शुरू किया। पेशावर में तैनाती के दौरान
भी पकड़े जाने का खतरा उठाते हुए चन्द्र सिंह अखबार खरीदकर लाते
, अपने साथियों के साथ रात
में दरवाजे पर कंबल लगाकर उसे पढ़ते और सबेरा होने से पहले पानी में गलाकर नष्ट कर
देते थे। इसलिये पेशावर में पठानों पर गोली चलाने के लिये भूमिका बनाते हुए अंग्रेज
अफसर ने जब यह समझाना चाहा कि
पेशावर में 94 फीसदी मुसलमान हैं, दो फीसदी हिंदू हैं। मुसलमान
हिंदू की दुकानों को आग लगा देते हैं
, लूट लेते हैं। शायद
हिन्दुओं को बचाने के लिये हमें बाजार जाना पड़े और इन बदमाशों पर गोली चलानी पड़े
’’



तो चन्द्र सिंह ने अपने साथियों को
समझाया कि
इसने
जो बातें कही हैं सब झूठ हैं। हिंदू-मुसलमान के झगड़े में रत्ती भर सच्चाई नहीं
है। न ये हिंदुओं का झगड़ा है न मुसलमानों का। झगड़ा है कांग्रेस और अंग्रेज का।
जो कंाग्रेसी भाई हमारे देश की आजादी के लिये अंग्रेजों से लड़ाई लड़ रहे हैं
,
क्या ऐसे समय में हमें उनके ऊपर गोली चलानी चाहिये? हमारे लिये गोली चलाने से अच्छा यही होगा कि अपने को गोली मार लें।’’
यानि जिस दौरान अंग्रेज निहत्थे स्वतंत्रता संग्रामी पठानों पर गोली
चलवाने का षडय़ंत्र रचना शुरू कर रहे थे
, तब तक चंद्र सिंह
गढ़वाली और उनके साथी भी पेशावर में निहत्थों पर गोली न चलाने के अपने विद्रोही
दृढ़ निश्चय पर पहुंच चुके थे। अंग्रेज स्वयं इस विद्रोह के महत्व और इसके संभावित
परिणाम के खतरे को भांप चुके थे।



वे जानते थे कि यदि इस घटना की व्यापक
चर्चा हुई तो गढ़वाली पल्टन से उठी ये बगावत की चिंगारी पूरी अंग्रेजी फौज के
हिंदुस्तानी सैनिकों में आग की तरह फैल जायेगी। इसलिये जब चन्द्र सिंह और उनके
साथियों पर मुकदमा चलाया गया तो
23 अप्रैल को गोली न चलाने का मुकदमा नहीं चला। बल्कि 24
अप्रैल की हुक्म उदूली का मुकदमा चलाया गया। 24 अप्रैल, 1930 को अंग्रेजों ने फिर गढ़वाली पल्टन को
पेशावर में उतारना चाहा। परंतु चन्द्र सिंह ओर उनके साथियों की कोशिशों के चलते
उनकी बटालियन बैरकों से बाहर ही नहीं निकली। हालांकि इस हुक्म उदूली में पूरी
बटालियन शामिल थी लेकिन कोर्ट मार्शल की कार्यवाही उन
67 सैनिकों
के खिलाफ हुई जिन्होने
”24 घंटे के भीतर इस्तीफा मंजूर हो’’,
लिखे कागज पर हस्ताक्षर किये थे। इन 67 में से
भी सात सरकारी गवाह बन गये तो कोर्ट मार्शल में
60 ही लोगों
को सजा हुई थी।





पेशावर में गढ़वाली पल्टन द्वारा किया
गया विद्रोह भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी
, जिसके महत्व को कमतर
करने की अंग्रेजों ने भरसक कोशिश की। परंतु आश्चर्यजनक तो यह है कि हमारे
स्वाधीनता आंदोलन के बड़े नेताओं ने भी इसे कमतर ही आंका है। इस घटना के महत्व को
रेखांकित करते हुए
8 जून, 1930 के लीडर
ने समाचार छापा कि
”1857 के बाद बगावत के लिये भारतीय
सिपाहियों का पहला कोर्ट मार्शल आजकल एबटाबाद के पास काकुल में हो रहा है।
’’
यानि अखबार तो पेशावर विद्रोह को 1857 के बाद
का सबसे बड़ा सैनिक विद्रोह आंक रहे थे। परंतु अहिंसा की माला जपने वाले
स्वतंत्रता आंदोलन के बड़े नेताओं ने भी इसे अंग्रेजों की तरह ही अपराध समझा।



फ़्रांसिसी पत्रकार चार्ल्स पैत्राश
द्वारा गढ़वाली सिपाहियों के बारे में पूछे गये सवाल का जवाब देते हुए गांधीजी ने
कहा था कि
वह
सिपाही जो गोली चलाने से इंकार करता है
, अपनी प्रतिज्ञा भंग
करता है
, इस प्रकार वह हुक्म उदूली का अपराध करता है। मैं
अफसरों और सिपाहियों से हुक्म उदूली करने के लिये नहीं कह सकता। जब हाथ में ताकत
होगी
, तब शायद मुझे भी इन्हीं सिपाहियों से और अफसरों से काम
लेना पड़ेगा। अगर मैं इन्हें हुक्म उदूली करना सिखाऊंगा तो मुझे भी डर लगा रहेगा
कि मेरे राज में भी वे ऐसा ही न कर बैठें।
’’ यानि अंग्रेजों
की फौज के प्रति की गयी प्रतिज्ञा को तो गांधीजी महत्वपूर्ण मान रहे थे
, परंतु देश की आजादी के निहत्थे मतवालों पर गोली न चलाकर अपनी जान को खतरे
में डालने के गढ़वाली सैनिकों के अदम्य साहस की उनकी निगाह में कोई कीमत नहीं थी।



अहिंसा के अनन्य पुजारी आजादी के संग्राम
में इन सिपाहियों के योगदान को नकारते हुए इस बात के लिये अधिक चिंतित थे कि सत्ता
हाथ में आने के बाद उनके कहने पर भी ये सिपाही निहत्थी जनता पर गोली न चलाये तो
क्या होगा
? पर सैन्य विद्रोह को कमतर आंकने या उन्हें नकारनें की यह प्रवृति सिर्फ
पेशावर विद्रोह के प्रति ही नहीं है। बल्कि
1946 में हुये
नौसैनिक विद्रोह के प्रति भी गांधीजी
, पटेल आदि नेताओं का
यही उपेक्षापूर्ण रवैया था। नौसेना विद्रोह के नाविकों को तो पटेल ने
गुंडातक कहा था। साहित्यकारों ने अलबता इन विद्रोहों
के उचित महत्व को रेखांकित किया था।



जहां पेशावर विद्रोह के नायक चन्द्र सिंह
गढ़वाली की जीवनी राहुल सांकृत्यायन ने लिखी
, वहीं नौसैनिक विद्रोह पर साहिर लुधियानवी
ने लंबी कविता लिखी: ऐ रहबरे मुल्को कौम बता ये किसका लहू है कौन मरा.



न केवल पेशावर विद्रोह की महत्ता को
नकारा गया बल्कि यह भी भरसक कोशिश की गयी कि इस विद्रोह के नायक चन्द्र सिंह
गढ़वाली की राजनैतिक भूमिका और विचारधारा को छुपाया जाये। यह आजादी के आंदोलन का
इतिहास लिखने की कांग्रेसी शैली रही है कि आजादी के आंदोलन का इतिहास या तो
कांग्रेस का इतिहास नजर आता है या अंग्रेजों का इतिहास। पेशावर में तैनाती से पहले
ही
1922 के आस-पास चन्द्र सिंह आर्य समाज के निकट आ गये थे। आर्य समाज के प्रभाव
में वह ऊंच-नीच
, बलि प्रथा, फलित
ज्योतिष आदि धार्मिक पाखंडों के विरोधी हो गये थे।



चंद्र सिंह गढ़वाली के बारे में यह भी
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आर्य समाज द्वारा किये गये देश भक्ति के
प्रचार का भी उन पर प्रभाव था। पेशावर विद्रोह के लिये काले पानी की सजा पाने के
बाद विभिन्न जेलों में यशपाल
, शिव वर्मा, रमेश चंद्र गुप्त, ज्वाला प्रसाद शर्मा जैसे कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के साथ रहते हुए
साम्यवाद से उनका परिचय हुआ और धीरे-धीरे चन्द्र सिंह गढ़वाली का साम्यवाद की और
झुकाव हुआ।
गढ़वाल प्रवेश पर प्रतिबंधकी शर्त पर जब उनकी रिहाई हुई तो महात्मा गांधी के वर्धा आश्रम सहित
विभिन्न स्थानों पर रहते हुए वह बंबई स्थित कम्युनिस्ट पार्टी के कम्यून में
पहुंचे और विधिवत पार्टी सदस्य बने। वहां से रानीखेत में पार्टी का काम करने
उन्हें भेजा गया। जहां अकाल
, पानी की समस्या समेत विभिन्न सवालों
पर उन्होने आंदोलन चलाया। गढ़वाल प्रवेश पर से प्रतिबंध हटने तथा अंग्रेजों के देश
से चले जाने के बाद भी गढ़वाल में अकाल
, पोस्ट ऑफिस के कर्मचारियों
की हड़ताल
, सड़क, कोटद्वार के लिये
दिल्ली से रेल का डिब्बा लगे ऐसे तमाम सवालों पर उन्होंने आंदोलन किए। कम्युनिस्ट
पार्टी के निर्देश पर कामरेड नागेंद्र सकलानी टिहरी राजशाही के विरुद्ध लड़ाई तेज
करने कीर्तिनगर पहुंचे.



यहां 11 जनवरी, 1948 को
सकलानी के साथ ही मोलू भरदारी की भी शहादत हुई। मोलू भरदारी भी कम्युनिस्ट पार्टी
के उम्मीदवार सदस्य थे। इन दोनों शहीदों के मृत शरीरों को लेकर चन्द्र सिंह
गढ़वाली के नेतृत्व में जनता नें टिहरी मार्च किया। ये शहादत टिहरी राजशाही के
ताबूत में अंतिम कील सिद्ध हुई। यानि
1930 में हुये पेशावर
विद्रोह से लेकर
1979 में जीवन के अंतिम क्षण तक चंद्र सिंह
गढ़वाली निरंतर स्वाधीनता आंदोलन से लेकर तमाम जन संघर्षों में शामिल रहे। इसमें
जेलों के भीतर की अव्यवस्था और राजनैतिक बंदियों के लिये की जाने वाली भूख
हड़तालें भी शामिल हैं।



परंतु आज टुकड़े-टुकड़े में हमारे सामने
पेशावर विद्रोह के इस नायक का जो ब्यौरा पहुंचता है उसे देखकर ऐसा लगता है कि
चन्द्र सिंह गढ़वाली वो सितारा था
, जो 23 अप्रैल,
1930 को अपनी समूची रोशनी के साथ चमका और फिर अंधेरे में खो गया ।
जबकि
1930 के बाद आधी शताब्दी से अधिक के जनता के मुद्दों पर
जूझते रहे। चन्द्र सिंह गढ़वाली स्वतंत्रता संग्राम और उसके बाद भी संघर्ष की अदम्य
जिजिविषा के चलते उत्तराखंड के सबसे बड़े नेताओं में एक ठहरते हैं। लेकिन उन्हें
निरंतर उपेक्षित किया गया। इसकी सीधी वजह यह थी कि कम्युनिस्ट पार्टी से जुडऩे के
बाद उन्होंने कांग्रेसी खांचे में फिट होने से इन्कार कर दिया।



राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखित उनकी
जीवनी में यह दर्ज है कि
1946 में उनके गढ़वाल आने पर कांग्रेसियों ने जगह-जगह कोशिश की कि वह सीधे जनता
से न मिल सकें। श्रीनगर में तो भक्तदर्शन के नेतृत्व में कांग्रेसियों ने उनसे
मिलकर कांग्रेस में शामिल होने और फिर एम. पी.
, एम. एल. ए.
जो चुनाव वह चाहें लडऩे का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव को गढ़वाली जी ने कम्युनिस्ट
पार्टी का सदस्य होने का हवाला देते हुए ठुकरा दिया। साथ ही उन्होंने कहा कि यदि कांग्रेसियों
की उन पर इतनी श्रद्धा है तो वे एक सीट उनके लिये छोड़ दें। जाहिर-सी बात है
कांग्रेस नें इसे स्वीकार नहीं किया। देश की आजादी के बाद टिहरी राज परिवार की
राजमाता और राजा जिनके हाथ नागेंद्र सकलानी
, श्रीदेव सुमन
जैसे कितने ही शहीदों के खून से सने थे
, कांग्रेस का दामन
थामकर भारतीय संसद में पहुंच गये।



परंतु सिद्धांतों पर अडिग रहने के चलते
कम्युनिस्ट चन्द्र सिंह गढ़वाली को कांग्रेसियों ने भोंपू लेकर घूमने वाला पागल
घोषित कर हंसी का पात्र बनाने की भरसक कोशिश की। चन्द्र सिंह गढ़वाली को नीचा
दिखाने का कोई मौका उन्होंने हाथ से नहीं जाने दिया। यहां तक कि आजादी के बाद
1948 में तत्कालीन संयुक्त
प्रांत की गोविंद बल्लभ पंत के नेतृत्व वाली सरकार ने उन्हें गिरफ्तार किया तो
गिरफ्तारी के कारणों में
पेशावर में हुए गदर का सजायाफ्ता’’
होना और कम्युनिस्ट पार्टी के जोरदार
कार्यकर्ता
’’ होना बताया गया है। इसकी खबर भारतीय अखबारों
तथा लंदन के डेली वर्कर में छपने के बाद हुई फजीहत के चलते पंत की तरफ से माफी
मांगी गयी और गिरफ्तारी नोटिस में
पेशावर घटना के उल्लेख को
आपत्तिजनक
’’ माना।



वह पेशावर विद्रोह के सैनिकों के पेंशन
के मसले पर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पास पहुंचे। नेहरू जी से चन्द्र सिंह
ने मांग की कि
पेशावर
कांड को राष्ट्रीय पर्व समझा जाय और सैनिकों को पेंशन दी जाये। जो मर गये उनके परिवार
को सहायता दी जाये।
’’ आजादी के आंदोलन की बड़ी शख्सियत और
आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री ने उन्हें टका-सा जवाब दे दिया
मान्यता? तुम तो बागी हो।’’ चंद्र
सिंह गढ़वाली और उनके साथियों का अंग्रेजों का विरोध करने से भी बड़ा संदेश संभवत:
यह है कि सरकारी नौकर होने के बावजूद हमें अपने विवेक को नहीं खोना चाहिए। हमें
देखना चाहिए कि हम जिस व्यवस्था की सेवा कर रहे हैं वह किस हद तक जन विरोधी है या
हो सकती है। और यह संदेश ज्यादा गंभीर और शाश्वत किस्म का है इसलिए सत्ताधारियों
के लिए बेचैन करने वाला है। चन्द्र सिंह गढ़वाली की कांग्रेसियों द्वारा उपेक्षा
का यह दौर उनके अंतिम दिनों तक चलता रहा और वैचारिक रूप से तो उन्हें मारने की
कोशिशें आज भी जारी हैं। नारायण दत्त तिवारी
, जिनकी सभा में
कोटद्वार में लगी लाठियों के बाद चन्द्र सिंह गढ़वाली फिर बिस्तर से न उठ सके और
पहली अक्टूबर
, 1979 को दुनिया से रुखसत हो गए, उन्हीं तिवारी ने उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनने के बाद वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली पर्यटन योजनाचलायी। एक
ऐसा व्यक्ति जिसने फांका करना कबूल किया पर भ्रष्ट आचरण स्वीकार नहीं किया
,
उसके नाम पर ऐसी योजना चल रही है जो भ्रष्टाचार और कमीशनखोरी के
लिये ही जानी जाती है। तिवारी से उन्हें इससे बेहतर श्रद्धांजलि की उम्मीद की भी
नहीं जा सकती थी । चन्द्र सिंह गढ़वाली की स्मृति में
23 अप्रैल
को पीठसैण में प्रतिवर्ष मेला लगता है। इस मेले में नेताओं के भाषण सहित सब कुछ
होता है। बस यह बताने की हिम्मत कोई नहीं करता कि चन्द्र सिंह गढ़वाली की विचारधारा
क्या थी। आजकल तो भाजपा वाले भी जोर-शोर से चन्द्र सिंह गढ़वाली का नाम लेते हैं।मुख्यमंत्री
की हैसियत से भुवन चन्द्र खंडूड़ी पीठसैण और रमेश पोखरियाल
निशंक
भी पीठसैण के मेले में गए थे ।रक्षा मंत्री वहां चन्द्र सिंह गढ़वाली
की मूर्ती का अनावरण कर आये हैं.



पेशावर में निहत्थे पठानों पर गोली चलाने
से इन्कार करने के बाद चन्द्र सिंह गढ़वाली भारत की गंगा-जमुनी तहजीब और
हिंदू-मुस्लिम एकता के बड़े नायक के रूप में सामने आते हैं
, जिन्होने अंग्रेजों की फूट डालो राज करोकी नीति को पलीता लगा दिया था।
देश में मंदिर मस्जिद से लेकर लव जिहाद
,घर वापसी
 जैसे तमाम सांप्रदायिक उन्मादी कारनामे सरकारी संरक्षण में
करने वाले भाजपाई
, चन्द्र सिंह गढ़वाली की हिंदू-मुस्लिम
एकता की परंपरा से नजरें कैसे मिलायेंगे
? वे तो अंग्रेजों की
फूट डालो राज करोकी परंपरा के वारिस
ही हो सकते हैं। चंद्र सिंह गढ़वाली आजीवन कम्युनिस्ट रहे।



कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव भी
लड़ा और जन संघर्षों की अगुवाई भी उन्होनें की। चन्द्र सिंह गढ़वाली की समझौता
विहीन संघर्षों की परंपरा को आज भी उत्तराखंड व देश में आगे बढ़ाने की जरूरत है।
उस दौर में भी चन्द्र सिंह गढ़वाली को कांग्रेस के बारे में कोई मुगालता न था.आजादी
से पहले ही जब बम्बई में चन्द्र सिंह गढ़वाली कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने तो
उस वक्त उन्होंने पार्टी के तत्कालीन महासचिव कामरेड पी. सी. जोशी से कहा था कि
कामरेड जोशी, नेहरू पर जो इतना विश्वास करते हैं वह ठीक नहीं है। नेहरू को मैं नजदीक से
जानता हूं। जेल से बाहर निकलकर वे नरेन्द्र देव का भोंपू
, पटेल
की लाठी लेकर आयेंगे और हर तरह से पार्टी को दबा देने की कोशिश करेंगे।
’’ 


कामरेड चंद्र सिंह गढ़वाली की
सांप्रदायिक सद्भाव और समझौताविहीन संघर्षों की परम्परा को लाल सलाम.

आलेख  – इन्द्रेश मैखुरी

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