पुरातन
युगों से याद हैं सुमाड़ी के ‘पंथ्या दादा’
‘जुग जुग तक रालू याद सुमाड़ी कू पंथ्या दादा’ लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के एक गीत की यह पंक्तियां आपको याद ही होंगी. यह वही सुमाड़ी गांव के पंथ्या दादा थे, जिन्होंने तत्कालीन राजशाही निरंकुशता और जनविरोधी आदेशों के विरोध में अपने प्राणों की आहुती ही दे डाली थी. उत्तराखंड की महान ऐतिहासिक गाथाओं में उनका नाम उसी गौरव के साथ शुमार ही नहीं, बल्कि उन्हें याद भी किया जाता है.
पन्थ्या दादा का जन्म सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पौड़ी गढ़वाल की कटूलस्यूं पट्टी के प्रसिद्ध गांव सुमाडी में हुआ था. माता पिता का देहांत उनके बचपन में ही होने से उनका लालन पालन बहन की ससुराल फरासू में हुआ. उस समय उत्तराखंड का गढ़वाल क्षेत्र 52 छोटे राज्यों (गढ़ों) में बंटा हुआ था. इन्हीं गढ़पतियों में से एक शक्तिशाली राजा मेदनीशाह का वजीर सुमाड़ी का सुखराम काला था.
लोकमान्यताओं के अनुसार राजा अजयपाल ने जब अपनी राजधानी चांदपुर गढ़ी से देवलगढ़ में स्थानांतरित की थी, तो उन्होंने सुमाड़ी का क्षेत्र काला जाति के ब्राह्मणों जो कि मां गौरा के उपासक थे, को दान में दे दिया था. यह भूमि किसी भी राजा द्वारा घोषित करों से मुक्त थी. चूंकि एकमात्र सुमाड़ी के ग्रामीण ही सभी राजकीय करों से मुक्त थे, इसलिए यह व्यवस्था राजा के कुछ दरबारियों को फूटी आंख नहीं सुहाई. वहीं वजीर सुखराम काला से कुछ मतभेदों के चलते कई दरबारी भी असंतुष्ट थे. ऐसे में इन्होंने ही राजा को सुमाड़ी के लोगों पर भी ‘कर’ लगाने के अतिरिक्त अन्य राजकीय कार्यो को करने के लिए उकसाया. जिनमें दूणखेणी (बोझा ढोना) भी शामिल था. इसी काल में पूजा पर मेदनीशाह द्वारा दो अन्य कर स्यूंदी और सुप्पा भी लगाए गए. मेदनीशाह ने राजदरबारियों के कहने पर वजीर सुखराम काला से मशविरा कर सुमाड़ी की जनता को बोझा ढोने और राजकीय करों को सुचारु रूप राजकोष में जमा करने का फरमान जारी कर दिया. सुमाड़ी में जब यह फरमान पहुंचा, तो गांववासियों ने राजा का यह हुक्म मानने से मना कर दिया. इसे राजाज्ञा के प्रति दंडनीय अपराध मानते हुए राजा ने पुन: फरमान भेजा, कि जनता या तो राजकीय आदेश पर अतिशीघ्र अमल करे या गांव को अतिशीघ्र खाली करे. जब ग्रामीणों ने इन दोनों व्यवस्थाओं को भी मानने से इनकार कर दिया तो बौखलाहट में मेदिनीशाह ने दंडस्वरूप गांववालों को प्रतिदिन एक आदमी की बलि देने के लिए फरमान भेज दिया. इस ऐतिहासिक दंड को आज भी ‘रोजा’ के नाम से जाना जाता है।
राजशाही का यह फरमान प्रजा के स्वाभिमान को भंग करने की एक साजिश थी जिससे निरपराध ग्रामीण बोझा ढोने को तैयार हो जाएं. इस फरमान के आते ही गांव में आतंक फैल गया. ग्रामीण राजतंत्र की निरंकुशता से भली भांति परिचित थे, और वे अच्छी तरह जानते थे कि प्रजा को राजा के आदेश की अवहेलना करने की कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है. ग्रामीण किंकर्तव्यविमूढ़ होकर फरमान मानने या गांव छोड़ने को विवश होने लगे. राजा के इन आदेशों से गांव वालों में मतभेद भी उभरने लगे. किंतु अंतत: उन्होंने अपने स्वाभिमान को बचाने की खातिर रोजा देना उचित समझा.
इस घटनाक्रम के समय सुमाड़ी में अन्य जातियों के अलावा काला जाति के तीन प्रमुख परिवार उदाण कुटुम्ब, भगड़ एवं पैलू थे. जिनमें उदाण सबसे बड़े भाई का परिवार था. आज भी इन तीनों भाइयों के वंशज पितृ पूजा के अवसर पर अपने पूर्वजों का नाम बड़ी श्रद्धा से लेते हैं. संभवत: सबसे बड़े भाई का परिवार होने के कारण इस संकट की घड़ी में रोजा देने के लिए उदाण कुटुंब के सदस्य का आम सहमति से चुनाव किया गया होगा. दैववश जिस परिवार को सबसे पहले रोजा देना था उस परिवार में कुल तीन लोग पति, पत्नी और एक अबोध बालक ही था. यह था पंथ्या के बड़े भाई का परिवार. पंथ्या इस सारे घटनाक्रम से अनभिज्ञ फरासू में अपनी बहन के साथ था.
लोकगीतों के अनुसार जिस दिन सुमाड़ी में पन्थ्या के भाई के परिवार को रोजा देने के लिए नियुक्त किया गया, उस दिन पन्थ्या फरासू में गायों को जंगल में चुगा रहा था. थकान लगने के कारण उसे जंगल में ही कुछ समय के लिए नींद आ गई. इसी नींद में पन्थ्या को उनकी कुलदेवी मां गौरा ने स्वप्न में दर्शन देकर सुमाड़ी पर छाए भयंकर संकट से अवगत कराया. नींद खुलने पर पन्थ्या ने देखा कि लगभग शाम होने वाली है. इसलिए वह तुरंत गायों को एकत्र कर घर ले गया और बहन से सुमाड़ी जाने की अनुमति लेकर अंधेरे में ही प्रस्थान कर दिया. लोकगीतों में कहा भी जाता है :-
फरासू कू छूट्यो पन्थ्या, सौड़ू का सेमल
सौड़ू का सेमल छुट्यो, जुगपठ्याली पन्थ्या
फरासू से सुमाड़ी के बीच में ये दोनों स्थान सौड़ू एवं जुगपठ्याली, पहाड़ की चढ़ाई चढ़ते समय विश्राम के ठौर थेा घर पहुंचकर पन्थ्या को स्वप्न की सारी बातें सच होती हुई दिखी. उन्होंने राजा के इस थोपे हुए फरमान को प्रजा का उत्पीड़न मानते हुए इसके विरोध में आत्मदाह का ऐलान कर दिया. तत्पश्चात् ग्रामीणों को स्वाभिमान के साथ जीने की शिक्षा देकर अगले दिन इस वीर बालक पन्थ्या ने मां गौरा के चरणों में अंतिम बार सिर नवाकर अग्निकुंड में अपने प्राणों की आहुति दे दी. इस हृदयविदारक दृश्य को पन्थ्या की चाची भद्रादेवी सहन न कर सकीं और उन्होंने भी तत्काल कुंड में छलांग लगा दी. इसी समय बहुगुणा परिवार की एक सुकोमल बालिका ने भी इसी अग्निकुंड में अपने प्राण न्यौछावर कर दिए. राजा मेदिनीशाह को जैसे ही इस दु:खद घटना से अवगत कराया गया, तो उन्होंने अगले तीन दिनों तक रोजा न देने का फरमान सुमाड़ी भेजा. इस घटना को लेकर प्रजा में जहां विद्रोह होने का डर राजा को सताने लगा वहीं संयोगवश इसी बीच राज परिवार दैवीय प्रकोपों के आगोश में भी तड़पने लगा.
इन आकस्मिक संकटों से उबरने के लिए राजा ने राजतांत्रिक से सलाह मशविरा किया. राजतांत्रिक ने राजा को बताया कि यह दैविक विपत्तियां ब्रह्म हत्याओं और एवं निरपराध पन्थ्या के आत्मदाह से उपजी हैं. अत: इन आत्माओं की शांति के लिए इनकी विधिवत् पूजा अर्चना करना आवश्यक है. विपत्तिमें फंसे राजा ने तुरंत ही इस कार्य के लिए अपनी सहमति देकर यह कार्य संपन्न कराने के लिए तांत्रिक को सुमाड़ी भेज दिया. जहां तांत्रिक ने परंपरागत वाद्यों के माध्यम से घड़याला लगाकर पन्थ्या और उसके साथ आत्मोत्सर्ग करने वाली सभी पवित्र आत्माओं का आह्वान किया और उन सभी की प्रतिवर्ष विधिवत् पूजा अर्चना करने का वचन दिया. यह पूजा आज भी पूस के महीने में निर्बाध रूप से बड़ी श्रद्धा के साथ की जाती है.
साधारणतया पितृपक्षों में सभी हिंदुओं द्वारा अपने पूजनीय पितरों को अन्न और जल अर्पित किया जाता है. लेकिन सुमाड़ी संभवत: ऐसा पहला गांव है, जहां पर पितृपक्ष के अतिरिक्त पूस में भी सामूहिक रूप से एक दिन का चयन कर बड़ी श्रद्धा एवं भक्ति से अपने पूज्य पितरों की पूजा अर्चना अन्न एवं जल देकर की जाती है. इसी कड़ी में पन्थ्या काला राजशाही की निरंकुशता के खिलाफ आत्मदाह करने वाले प्रथम ऐतिहासिक बालक थे, जिन्हें सुमाड़ी की जनता प्यार अविराम रूप से मिलता चला आ रहा है.
फोटो- सुमाड़ी गांव
संकलन – हर्ष बुटोला