नजरिया

नई लोकभाषा का ‘करतब’ क्‍यों ?

उत्तराखण्ड को एक नई भाषा की जरुरत की बात कई बार उठी।
यह विचार कुछ वैसा ही है जैसे राज्य निर्माण के वक्त प्रदेश के पौराणिक व ऐतिहासिक
नाम को ठेंगा दिखा,उत्तरांचल कर दिया गया था। देश में हर प्रांत की अपनी-अपनी भाषा
है। इन्हीं भाषाओं की कई उपबोलियां भी हैं। तब भी गुजराती, मराठी, बांग्ला,  डोगरी, तमिल, तेलगू, कन्नड, उड़िया, पंजाबी या अन्य
ने खुद को समझाने के लिए या दुनिया के सामने खुद को परिभाषित करने के लिए किसी तीसरी
भाषा अथवा बोली को ईजाद नहीं किया।
माना जा सकता है, कि हर भाषा के शब्दकोश में निश्चित
ही नये शब्दों को आत्मसात किया जाता रहा है। यह भाषा के परिमार्जन व विकास से भी जुड़ा
है, और देशकाल में यह भाषा का व्यवहारिक पक्ष भी है।
मजेदार बात, कि हम अभी गढ़वाली व कुमांऊनी को ही एक
रूप में व्यवहार में नहीं ला पायें हैं। यहां आज भी भाषा नदियों, गाड की सीमा रेखाओं
में विभाजित है। यद्यपि यह कुछ गलत भी नहीं। क्योंकि किसी भी भूगोल में व्याप्त भाषा
को संख्या बल के आधार पर अनदेखा नहीं किया जा सकता है। ऐसा करना उसे मौत का फरमान सुनाने
जैसा होगा। उसकी पहचान को खत्म करने की साजिश होगी। ठीक इसी तरह नई भाषा की कथित जरूरत
भी, संक्रमण के दौर से गुजर रही गढ़वाली और कुमांऊनी भाषा को मृत्युदंड देने जैसा ही
है।
हमारी मातृभाषा के सामान्य वार्तालाप में जब कभी ‘ठैरा’
या ‘बल’ जैसा प्रयोग मिलता है, तो स्पष्ट हो जाता है कि अमुख व्यक्ति कुमांऊ या गढ़वाल
का रहने वाला है, और यही हमारी सामाजिक, सांस्कृतिक, भौगौलिक भिन्न्ताओं की पहचान है।
अब यदि समानार्थक शब्दों के द्वारा एक कृत्रिम उत्तराखंडी भाषा ईजाद भी हो गई, तो क्या
गढ़वाली गढ़वाली और कुमांऊनी कुमांऊनी के रूप में चिह्निात हो पाएंगी, नहीं।
शायद यहां राज्य 
की ‘एक भाषा’ के पीछे ऐसे विचारकों में एक उत्तराखण्ड की परिकल्पना हो। किंतु,
इस परिकल्पित एक उत्तराखण्ड के परिप्रेक्ष्य में यह भी समझना होगा, कि यहां गढ़वाली
या कुमांऊनी भाषी ही नहीं रहते हैं। बल्कि हिन्दी भाषी तराई का हिस्सा और जौनसार व
रोंग्पा (भोटिया) का भूभाग भी है। जिनकी संख्या भी नकारे जाने लायक नहीं।
बीते कई दशकों से गढ़वाली व कुमाऊंनी को सरकारी नहीं,
अपितु निजी संस्थाोओं के बल पर संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किये जाने की कवायदें
जारी हैं। ऐसे में क्या एक नई भाषा का ‘विलाप’ इस पक्ष को कमजोर करने की साजिश नहीं
कही जायेगी? सवाल यह भी कि जब यहां की नई पीढ़ी गढ़वाली, कुमांऊनी को अपनाने में ही गुरेज
करती हो, तब क्या वह किसी कृत्रिम भाषा से अपना सरोकार जोड़ पायेगी?
सदियों से अपने अस्तित्व के लिए जुझ रही दोनों भाषाओं
को अब भी अपनी पहचान मिलनी बाकी है। तब इस नई भाषा के जन्म लेने और जिन्दा रहने के
मतबल को भी स्वतः समझा जा सकता है, और समझना भी होगा। मेरा मानना है, कि मातृभाषा
(गढ़वाली व कुमाउनी) भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन में जुटे मौजूदा साहित्यी शिल्पियों
को ऐसे ‘करतबों’ से शायद ही कोई सहमति होगी।
धनेश कोठारी

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