साहित्य

वुं मा बोली दे


गणेश खुगसाल ‘गणी’ गढ़वाली भाषा के लोकप्रिय और सशक्त कवि हैं। ‘वुं मा बोली दे’ उनकी प्रकाशित पहली काव्यकृति है। शीर्षक का अर्थ है उनसे कह देना। किस से कहना है और क्या कहना है, ये पाठक स्वयं तय करें। संग्रह की कविताएँ पहाड़ के गांव की माटी की सौंधी महक से लबरेज हैं। सांस्कृतिक क्षरण को प्रतिबिंबित करती ये कविताएँ, सोचने पर विवश करती हैं।
बकौल कवि वे वर्ष 1983-87 से कविता लिख रहे हैं, परन्तु उनका पहला काव्य संग्रह अब प्रकाशित हो रहा है।
कविताओं को पढ़कर कहा जा सकता है कि देर आए दुरस्त आए। हालाँकि इस देरी के लिए उन्होंने अपने अंदर के डर को कारण बताया है, न हो क्वी कुछ बोलु। लेकिन पुस्तक छपने के बाद का बड़ा डर कि न हो क्वी कुछ बि नि बोलू। जो कि गढ़वाली रचनाकारों के साथ प्रायः होता रहा है। बाद का डर इसलिए क्योंकि गढ़वाली भासा साहित्य में समीक्षा का प्रायः अभाव सा है।
गणी संवेदनाओं की अभिब्यक्ति का कवि है। गणी की काव्य वस्तु में सांस्कृतिक पृष्ठभूमि प्रमुख आधार रही है। लोक परम्पराओं की गहरी समझ रखने वाले इस कवि का भासा पर अधिकार उसकी पहचान का परिचायक भी है। ठेठ पारम्परिक शब्दों से सुसज्जित और सांस्कृतिक सोपानों की अभिव्यक्ति उनकी काव्य भासा का प्रमुख गुण है। उनकी रचना के केंद्र में गाँव और गावं की पहचान है। गावों का जीवन है, लोक परम्पराएँ हैं।
गणी उन चुनिंदा रचनाकारों में शामिल हैं, जिन्होंने गढ़वाली कविता को नए आयाम दिए। रोजगार की तलाश में गावों से पलायन के कारण पहाड़ का लोकजीवन प्रायः नारी के इर्द गिर्द केंद्रित रहा है। इसलिए गढ़वाली साहित्य में नारी का नायकीय स्वरुप में अच्छा खासा प्रतिनिधित्व दिखाई देता है। पहाड़ में उम्रदराज होने  पर भी माँ का खेत खलिहान में काम करते हुए खपना उसकी जीवटता है या मजबूरी, अक्सर यह तय कर पाना आसान नहीं होता। पहाड़ में माँ से ही जीवन और जीवन संघर्ष शुरू होते हैं, और शुरू होती है गणी की कविता भी।
माँ को नमन करते हुए वह कहते हैं कि-
त्यारा खुंटों कि बिवायुं बटी छड़कदु ल्वे,
पर तु न छोड़दी ढुंगा माटा को काम,
आखिर कै माटे बणी छै तू ब्वे।
और एक बेटी, जो संघर्षों से लड़ते हुए अपनी अलग पहचान बना रही है 
खुला आसमान मा साफ़ चमकणी छन,
यी ब्यटुली जो खैरी बिपदा बिटि ऐंच उठणी छन।
घटनाओं को देखने समझने का उनका अपना एक कोण है, एक भिन्न दृष्टि है। कूड़ी अर्थात घर मकान जैसी निर्जीव चीज में वे प्राण डालते हैं, तो कूड़ी के मालिकों के पांव उखड़ते दिखाई देते हैं। वे इस दर्द को महसूसते हैं।
जब बोल्ण पर आन्दन कूड़ी
त अद्-मयूं से ज्यादा बोल्दिन।
यूँ कुड्युं की जन्दरी बोनी कि
सर्य कूड़ी पोडिगे हम उन्द,
पर हम अज्युं बी अप्डी जगा मा छौं।
कूड़ी तो अपनी जगह पर है पर कहाँ है आदमी। केदारनाथ त्रासदी को आस्था से जोड़ते हुए वे भगवान को भी नहीं बक्शते। वे प्रायः उन परिस्थितियों से भी कविता निकाल लाते हैं, जहाँ से लगता है कि शब्दों का प्रवाह थम सा गया है। एक छोटी कविता में बेटी की बिदाई के सूनेपन को वे शब्दों से भर देते हैं।
व त चलिगे पर यख छन वींका गीत
अर वींकै गीतुल गूंज्युं छ सर्य गौं।
कवि की नजर सांस्कृतिक स्वरुप में आते बदलाव को शिद्दत्त से महसूस करती है।
ब्योला ब्योलि की जूठा बिठी देखिकी
ऐगे अपणा ब्यो की याद।
उनकी कविताएँ आस भी जगाती हैं, जब वे माँ के लिए कहते हैं ‘मिन तेरी आँख्यूं मा देखि लकदक बसंत’। माँ की आँखों की यही चमक पहाड़ की सकारात्मकता को बनाये रखती है। यही चमक इंसान के अंदर कुछ कर गुजरने का जज्बा पैदा करती है। कवि गांव को पहले की तरह स्वावलम्बी और जीवंत देखना चाहता है, जिस रूप में गावं रहा है। यही उम्मीद कहती है कि ‘अप्डी चून्दी कूड़ी छाणौ मि जरूर औंलू’।
औरों से अलग गणी की खासियत यह रही है कि उनकी कविताओं में पलायन का दर्द मौजूद होने के बावजूद उसमे प्रलाप नहीं है। पलायन किस तरह से चीजों को प्रभावित कर रहा है, ब्यंग करती हुयी कविताएँ उसके असर टीस और चीस को बड़ी शालीनता से अभिब्यक्त करती हैं।
भूमिका में सुप्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी लिखते हैं, कि वेकि कविता भौत संवेदनशील छन, भावुक छन, इल्लै रुल्लै  दिंदीन, त दगड़ै छोटी छोटी कविता बड़ा-बड़ा सवाल खड़ा कै दीन्दन।
पहाड़ आज उस दोराहे पर खड़ा है जहाँ से पीछे देखते हैं तो लगता है कि कुछ भी बचा नहीं है और आगे बढ़ते हैं तो लगता है की पीछे बहुत कुछ छूट रहा है। एक तरह  से ये कविताएँ बीतते समय और रीतते मनुष्य की पीड़ा के शब्द हैं। भितर कविता में कवि सचाई स्वीकार करता दीखता है कि गांव से पलायन कर चुके लोगों के लिए गांव के सरोकार बस इसी पीढ़ी तक सीमित हैं। नई पीढ़ी के लिए गांव सिर्फ एक कूड़ी भर है। ऐसे में अपनी ब्यथा भी किस से कही जाय।
लेकिन इतनी प्रतिकूलताओं के बावजूद भी कवि आश्वस्त है, कि कुछ न कुछ जरूर होगा। इसीलिए प्रतीकात्मक रूप से वह कहता है, कि गांव में आ रहे परिवर्तनों के बारे में उनसे कह देना। ये ‘उनसे  कौन’ है प्रश्न ये है। कवि का इशारा पहाड़ के नीति निर्धारकों की ओर हो सकता है।
कवि की नजर सांस्कृतिक सोपानों पर तो है ही, कवि ने कहावतों के जरिये ब्यवस्था पर तीखे ब्यंग भी किये हैं। नि बिकौ बल्द, जुत्ता, पोस्टर, जब बिटी, सिलिंडर गढ़वाली में नई दृस्टि की कविताएँ हैं। जुत्ता कविता मंच पर काफी लोकप्रिय है। जब बिटि मेरा गौं को एक आदिम मंत्री बण जैसी रचना दर्शाती है कि गावों में राजनीति के प्रवेश ने गांव के मूल ढांचे की चूलें किस कदर हिला कर रख दी हैं।
कविताओं से गुजरतें हुए मुझे लगता है कि इस पुस्तक के प्रारम्भ से लेकर थौळ शीर्षक तक की कविताओं के तेवर कमोबेश एक समान हैं। यहाँ से आगे की कविताओं के तेवर और तल्ख़ हुए हैं, और बुनावट प्रभावशाली भी। प्रेम की संवेदनाओं से भरी छोटी रचनाएँ गुदगुदाती हैं। इन कविताओं के जरिये गणी कवियों की भीड़ से अलग दिखने की कोशिश करते दिखाई देते हैं और उसमे कामयाब भी हुए हैं। कविता के सरोकार कैसे हों, यह जानने के लिए नए कवियों के लिए यह एक मानक संकलन है, और समकालीन के लिए एक मिसाल। क्योंकि ये कविताएँ पहाड़ के गांव की माटी की सोंधी महक से लबरेज हैं।
संग्रह के बारे में ये अंतिम उदघोष नहीं हैं, कविता इनसे भी आगे जा सकती है। परन्तु इतना तो कहा ही जा सकता है कि जो आनंद और छपछपि कविताएँ पढ़ने से मिलती  है, मन खुस होकर ये तो कहता ही है कि वूं मा बोली दे।
ग्लेज़्ड कागज पर  विनसर प्रकाशन की साफ़ सुथरी छपाई में पुस्तक की कीमत 195 रुपये है।
समीक्षक- वीरेन्द्र पंवार

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