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नई सुबह की आस बंधाती है ‘सुबेरौ घाम’

फिल्म समीक्षा
    ‘महिला की पीठ पर टिका है पहाड़’ यह सच, हालिया रिलीज गढ़वाली फीचर फिल्म ‘सुबेरौ घाम’ की ‘गौरा’ को देखकर जरुर समझ आ जाएगा। वह पेड़ों को बचाने वाली ‘चिपको’ आंदोलन की गौरा तो नहीं मगर, शराब के प्रचलन से उजड़ते गांवों को देख माफिया के विरूद्ध ‘इंकलाब’ की धाद (आवाज) लगाती गौरा जरुर है। फिल्म में गौरा के अलग-अलग शेडस् पहाड़ी महिलाओं को समझने और समझाने की निश्चित ही एक अच्छी कोशिश है। बचपन की ‘छुनका’ निडर गौरा बनकर गांवों में सुबेरौ घाम (सुबह की धूप) की आस जगाती है। वह पहाड़ों के ‘भितर’ खदबदाती स्थितियों पर भी सोये हुए मनों में ‘चेताळा’ रखती है।
 
स्नोवी माउंटेन प्रोडक्शन की इस फिल्म की कहानी बरसों बाद ‘पंडवार्त’ देखने के बहाने गौरा के ससुराल से अपने गांव बौंठी लौटते हुए शुरू होती है। जहां वह रास्तेभर बातचीत में बेटे बिज्जू को अपने बचपन की खुशियां, साहसिक किस्से, लोक परंपराएं और हिमालय के खूबसूरत नजारों को ‘विरासत’ की तरह सौंपती जाती है। विवाह के 17 सालों तक देवी देवताओं की आराधना के बाद बिज्जू ने उसकी बांझ कोख में किलकारियां भरी थी, जो सुबेरौ घाम की मानिंद हमेशा उसके पल्लू से बंधा रहता है।
 
..और फिर बाबा (पिता) से ससुराली गांव की बातें करते हुए शुरू होती है, फिल्म की मूल कहानी। यानि ‘दाणू’ मालदार के घर्या (घरेलू) उद्योग की देन ‘अंगळ जोत’ की दारू, और उससे बर्बाद होते घरों के किस्से…। जिससे घर लौटा रिटायर्ड सुबेदार गजे सिंह भी नहीं बचता। दाणू के खिलाफ वह संघर्ष तो छेड़ता है, लेकिन खुद ही जाल में फंसकर गौरा की खुशियां छीनने का जिम्मेदार बन जाता है। मगर, गौरा विचलित होने पर भी शराब के विरूद्ध महिलाओं को एकजुट कर ‘इंकलाब’ छेड़ देती है। हालांकि, तब भी गौरा के घर लौटी खुशियां ज्यादा देर तक नहीं टिकती। मेले गया बिज्जू गजे सिंह की शराबी लत के कारण हादसे का शिकार हो जाता है।
 
यहीं से गौरा बिज्जू की आत्मा के आह्वान पर दाणू के खात्मे का तानाबाना बुनकर उसके गौरखधंधों से गांव को निजात दिलाती है। बिज्जू दोबारा किसी और की कोख में जन्म लेता है, और गौरा यशोदा की तरह उसे जीवन की लाठी बना लेती है। गौरा को उम्मीद बंधती है, कि ‘बुढ़ापे में बिज्जू उसे जरुर पीठ पर बोकेगा’।
 
‘सुबेरौ घाम’ बदलते पर्वतजनों के बीच भाषा का सवाल भी सहज रखती है। जब गौरा मुंबई से गांव आई बालसखा कमला से बेहिचक कहती है, कि ‘तू हिंदी मा ब्वल्दी त अपणि सी नि लगदी’। यह पलायन के बावजूद अपनी जड़ों से जुड़े रहने का आह्वान भी है।
 
केंद्रीय भूमिका में उर्मि नेगी ने बतौर अभिनेत्री और निर्माता फिल्म को बेहद सजाया, संवारा है। खासकर मां-बेटे के बीच के दृश्य जहां भावुक करते हैं, तो शराब के खिलाफ उसका विद्रोही तेवर रोंगेटे खड़े करता है। मगर, इस सब के बाद भी स्क्रिप्ट राइटिंग में वह कमजोर भी दिखी हैं। कारण, नायक बलराज नेगी, विलेन बलदेव राणा और हास्य अभिनेता घन्नानंद के अभिनय में ज्यादा नयापन नहीं दिखता। शायद उनकी अभिनय क्षमताओं के अनुरूप स्क्रिप्ट राइटिंग नहीं हो सकी है। तो, फिल्म में कई लंबे सीन भी अखरते हैं। फिल्म की एंडिंग पर भी जल्दबाजी दिखती है। उर्मि नेगी स्क्रिप्ट का जिम्मा किसी और को सौंपती, तो शायद फिल्म का कलेवर और निखर सकता था।
 
‘सुबेरौ घाम’ के खूबसूरत फिल्मांकन को छोड़ दें, तो निर्देशक नरेश खन्ना भी फिल्म को पूरी तरह से बांध नहीं पाए। फिल्म कई जगह डाॅक्यूमेंट्री की तरह आगे बढ़ती है, तो इस बार नरेंद्र सिंह नेगी भी गीत संगीत में छाप नहीं छोड़ सके। हां, फिल्म के सबसे मजबूत पक्ष की बात करें, तो वह है इसकी कहानी और खूबसूरत पिक्चराइजेशन। केदारघाटी के बर्फीले कांठों से लकदक लोकेशन, शराब को केंद्र में रखकर पहाड़ी महिला के ईदगिर्द बुनी गई कहानी उसे दर्शकों से ‘दाद’ दिलाती है। कुल जमा कई दशक बाद ‘सुबेरौ घाम’ आंचलिक फिल्मों के लिए नई सुबह की धूप की मानिंद ही लग रही है।
 
समीक्षक- धनेश कोठारी

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