नजरिया

वाह रे लोकतंत्र के चौथे खंभे

मित्रों कभी कभी मुझे यह सवाल कचोटता है कि आखिर हम पत्रकारिता किसके लिए कर रहे हैं। निश्चित ही इसके कई जवाब भी कई लोगों के पास होंगे। मगर जब मैं कवरेज को भी खांचों में बंटा देखता हूं, तो दिमाग सन्‍न रह जाता है।

ऐसा ही एक वाकया हाल के दिनों में देखने को मिला, केदारनाथ त्रासदी में बचे लोगों को ऋषिकेश लाया जा रहा था। हर अखबारनवीस, टीवी रिपोर्टर दर्द से सनी मार्मिक कहानियों को समेट रहा था, क्‍योंकि डेस्‍क की डिमांड चुकी थी। दर्द को बेचकर ही शायद पाठकों के दिलों तक पहुंचने का सवाल था।



दो तीन दिन कहानियां समेटी गई, पीड़ा की गाढ़ी चाशनी में डूबोकर परोसी भी गई, मगर तभी एक मित्र ने बताया कि डिमांड में चेंज गया है। अब ऐसे शहरों, प्रदेशों के लोग तलाशे जाएं जहां उनके पेपरों का सर्कुलेशन है। सो यदि गुजरात, कर्नाटक, राजस्‍थान, पश्चिम बंगाल का कोइ्र वापस लौटा व्‍यक्ति कराहता भी मिला तो उसकी अनेदखी होनी शरू हो गई। केवल सर्कुलेशन वाले क्षेत्रों के लोग ही टारगेट किए गए। उन्‍हीं को कुरेदा गया, उन्‍हीं से बायलाइन स्‍टोरियां निकाली गई। 

अब क्‍या समझें कि पत्रकारिता किसके लिए, और क्‍यों की जा रही हैं। यह दौर है जब पत्रकार अपनी संवेदना, विवेक पर कलम नहीं चला रहा है बल्कि बाजार की तर्ज पर सिर्फ डिमांड भर पूरी कर रहा है। ताकि अमुख इलाकों के लोग भी जान जाएं की फलांफलां अखबार न्‍यूज चैनल ने सबसे पहले उनके लोगों के दर्द को उन तक पहुंचाया, और वह उनका मुरीद हो जाए।

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