टिहरी बादशाहत का आखिरी दिन
टिहरी आज भले ही अपने भूगोल के साथ उन तमाम किस्सों को भी जलमग्न कर समाधिस्थ हो चुकी है। जिनमें टिहरी रियासत की क्रुर सत्ता की दास्तानें भी शामिल थीं। जिनमें ‘राजा’ को जिंदा रखने के लिए दमन की कई कहानियां बुनी और गढ़ी गई। वहीं जिंदादिल अवाम का जनसंघर्ष भी जिसने भारतीय आजादी के 148 दिन बाद ही बादशाहत को टिहरी से खदेड़ दिया था। इतिहास गवाह है ‘भड़’ इसी माटी में जन्में थे।
टिहरी की आजादी के अतीत में 30 मई 1930 के दिन तिलाड़ी (बड़कोट) में वनों से जुड़े हकूकों को संघर्षरत हजारों किसानों पर राजा की गोलियां चली तो जलियांवाला बाग की यादें ताजा हो उठी। इसी वक्त टिहरी की मासूम जनता में तीखा आक्रोश फैला और राज्य में सत्याग्रही संघर्ष का अभ्युदय हुआ। जिसकी बदौलत जनतांत्रिक मूल्यों की नींव पर प्रजामण्डल की स्थापना हुई और पहला नेतृत्व जनसंघर्षों से जन्में युवा श्रीदेव सुमन को मिला। यह राजतंत्र के जुल्मों के खिलाफ समान्तर खड़े होने जैसा ही था। हालांकि, राजा की क्रूरता ने 25 जुलाई 1944 के दिन सुमन की जान ले ली थी।
84 दिनों की ऐतिहासिक ‘भूख हड़ताल’ के बाद क्रांतिकारी श्रीदेव सुमन ‘बेड़ियों’ से हमेशा के लिए रिहा हो गये। जनसंघर्ष यहां भी न रुका। तब तक अवाम लोकशाही व राजशाही के फर्क को जान चुकी थी। फिर जुल्मों से जन्मीं जनक्रांति का झण्डा कामरेड नागेन्द्र सकलानी ने संभाला। यह नागेन्द्र और साथियों का ही मादा था कि, उन्होंने आखिरी सांसों तक 1200 साला हकूमत से टिहरी को रिहाई दिलाई।
सामन्ती जंक-जोड़ को पिघलाने वाले इस जांबाज का जन्म टिहरी की सकलाना पट्टी के पुजारगांव में हुआ था। 16 की उम्र में ही सामाजिक सरोकारों को समझने वाला नागेन्द्र सक्रिय साम्यवादी कार्यकर्ता बन चुका था। इसी बीच रियासत अकाल के दैवीय प्रकोप से गुजरी तो राजकोष को पोषित करने व आयस्रोतों की मजबूती के लिए भू-व्यवस्था एंव पुनरीक्षण के नाम पर जनता को ढेरों करों से लाद दिया गया। नागेन्द्र ने गांव-गांव अलख जगा आंदोलन को धार दी। इसी दौर में उनकी कार्यशैली व वैचारिकता के करीब एक और योद्धा दादा दौलतराम भी उनके हमकदम हुए। नतीजा, राजा का बंदोबस्त कानून क्रियान्वित नहीं हो सका।
राजशाही से क्षुब्ध लोगों ने सकलानी व दौलतराम की अगुवाई में लामगद्ध होकर कड़ाकोट (डांगचौरा) से बगावत का श्रीगणेश किया। और करों का भुगतान न करने का ऐलान कर डाला। किसानों व राजशाही फौज के बीच संघर्ष का दौर चला। नागेन्द्र को राजद्रोह में 12 साल की सजा सुनाई गई। जिसे ठुकरा सुमन के नक्शेकदम पर चलते हुए नागेन्द्र ने 10 फरवरी 1947 से आमरण अनशन शुरू किया। मजबूरन राजा को अनचाही हार स्वीकारते हुए सकलानी को साथियों सहित रिहा करना पड़ा।
राजा जानता था कि सुमन के बाद सकलानी की शहादत अंजाम क्या हो सकता है। तभी जनता ने वनाधिकार कानून संशोधन, बराबेगार, पौंणटोंटी जैसी कराधान व्यवस्था को समाप्त करने की मांग की। मगर राजा ने इसे अनसुना कर दिया। इसी दौर में प्रजामण्डल को राज्य से मान्यता मिली। पहले अधिवेशन में कम्युनिस्टों के साथ अन्य वैचारिक धाराओं ने भी शिरकत की। यह अधिवेशन आजादी के मतवालों के लिए संजीवनी साबित हुआ।
सकलाना की जनता ने स्कूलों, सड़कों, चिकित्सालयों की मौलिक मांगों के साथ ही राजस्व अदायगी को भी रोक डाला। विद्रोह को दबाने के लिए विशेष जज के साथ फौज सकलाना पहुंची। यहां उत्पीड़न और घरों की नीलामी के साथ निर्दोंष जेलों में ठूंस जाने लगे। ऐसे में राजतंत्रीय दमन की ढाल को सत्याग्रहियों की भर्ती शुरू हुई। मुआफीदारों ने आजाद पंचायत की स्थापना की तो इसका असर कीर्तिनगर परगना तक हुआ। क्रांति के इस बढ़ते दौर में बडियार में भी आजाद पंचायत की स्थापना हुई।
10 जनवरी 1948 को कीर्तिनगर में बंधनों से मुक्ति को जनसैलाब उमड़ पड़ा। राजा के चंद सिपाहियों ने जनाक्रोश के भय से अपनी हिफाजत की एवज में बंदूकें जनता को सौंप दी। इसी बीच सत्याग्रहियों की जनसभा में कचहरी पर कब्जा करने का फैसला हुआ। पहले ही एक्शन में कचहरी पर ‘तिरंगा’ फहराने लगा।
खबर जैसे ही नरेन्द्रनगर पहुंची तो वहां से फौज के साथ मेजर जगदीश, पुलिस अधीक्षक लालता प्रसाद व स्पेशल मजिस्टेªट बलदेव सिंह 11 जनवरी को कीर्तिनगर पहुंचे। राज्य प्रशासन ने कचहरी को वापस हासिल करने की पुरजोर कोशिश की। लेकिन जनाक्रोश के चलते उन्हें मुंह की खानी पड़ी। फौज ने आंसू गैस के गोले फेंके तो भीड़ ने कचहरी को ही आग के हवाले कर दिया।
उधर, प्रजामण्डल ने राज्यकर्मियों के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी कर इन्हें पकड़ने का जिम्मा सत्याग्रहियों को सौंपा। हालातों को हदों से बाहर होता देख अधिकारी जंगल की तरफ भागने लगे। आंदोलनकारियों के साथ जब यह खबर नागेन्द्र को लगी तो उन्होंने साथी भोलू भरदारी के साथ पीछा करते हुए दो अधिकारियों को दबोच लिया। सकलानी बलदेव के सीने पर चढ़ गये। खतरा भांपकर मेजर जगदीश ने फायरिंग का आदेश दिया। जिसमें दो गोलियां नागेन्द्र व भरदारी को लगी, और इस जनसंघर्ष में दोनों क्रांतिकारियों शहीद हो गये। शहादत के गमगीन माहौल में राजतंत्र एक बार फिर हावी होता कि, तब ही पेशावर कांड के वीर योद्धा चन्द्रसिंह गढ़वाली ने नेतृत्व अपने हाथ में लिया था।
12 जनवरी 1948 के दिन शहीद नागेन्द्र सकलानी व भोलू भरदारी की पार्थिव देहों को लेकर आंदोलनकारी टिहरी रवाना हुए। अवाम ने पूरे रास्ते अमर बलिदानियों को भावपूर्ण श्रद्धांजलियां दी। 15 जनवरी को शहीद यात्रा के टिहरी पहुंचने से पहले ही वहां भारी आक्रोश फैल चुका था। जिससे डरकर राजा मय लश्कर नरेन्द्रनगर भाग खड़ा हुआ।
ऐसे में सत्ता जनता के हाथों में आ चुकी थी। और फिर आखिरकार 1 अगस्त 1949 को टिहरी के इतिहास में वह भी दिन आ पहुंचा जब भारत सरकार ने उसे उत्तर प्रदेश में शामिल कर पृथक जिला बनाया। निश्चित ही नया राज्य ऐसे ही जनसंघर्षों का फलित है। जोकि ‘एक बेहतर आदमी की सुनिश्चिता’ के बगैर आज भी अधूरी हैं।
आलेख – धनेश कोठारी
ladna hai bhai ya to lambi ldye hai