व्यंग्यलोक

कुत्ता ही हूं, मगर….. (व्यंग्य)

कल तक मेरे नुक्कड़ पर पहुंचते ही भौंकने लगता था वह। जाने कौन जनम का बैर था उसका मुझसे। मुझे नहीं मालूम कि मेरी शक्ल से नफरत थी उसे, या मेरे शरीर से कोई गंध महकती थी जो उसे नापसंद हो। इसलिए अक्सर मुझे अपने लिए अलग रास्ता तलाशना पड़ता था। राजग या संप्रग से भी अलग। लेकिन आज दृश्य बदला नजर आया। मुझे लगा कि शायद किडनी कांड की दहशत उसमें भी घर कर गई है। शायद डर रहा था कि कहीं उसका नाम न उछल जाये, या फिर कुछ और कारण भी………।

खैर, आज माहौल में राक्षसी गुर्राहट की जगह पश्चाताप की सी मासूमियत उसकी गूं-गूं में सुनाई दे रही थी। मानो कि वह अब तक की भूलों के लिए शर्मिन्दा हो। अब गिरोह बंदी से जैसे तौबा। गठबंधन की सभी संभावनाओं के लिए उसके दरवाजे खुले हुए। बिलकुल आयातित अर्थ व्यवस्था की तरह। बिरादर और गैर बिरादर से भी परहेज नक्को। तब उसकी दुलारती पूंछ और एड़ियों के बल उचकने की हरकत ने मुझे आश्चर्यचकित कर दिया था। किसी सपने के भ्रम में मैंने स्वयं को चिकोटी काटी तो, मेरी आउच! के साथ ही वह तपाक से बोल पड़ा।, कुत्ता ही हूं सौ फीसदी वही कुत्ता। जो नापसंदों की बखिया उधेड़कर रखता था। जो अपने हक के लिए हरदम झपटता था जुठी पतलों पर।

मुझे लगा कि मैं गलती से रामसे की हारर फिल्मों से राजश्री की किसी घरेलू मूवी में इंट्री कर गया। या कि मैं फिर किसी अनाम प्रोडक्शन का हिस्सा बन गया हूं। जहां रेस्त्रां में अनलिमिटेड होने के बाद भी ‘वह‘ अजीब शालीनता के साथ वैष्णवी अंदाज में टेबल पर एडजस्ट होकर छुर्री, कांटों से पीस-पीस लोथड़ा गटक रहा था। उसके ड्रिंक में स्काच की चुस्कियां शामिल थीं। अब न आपस में पत्तलों पर झपटने की हड़बड़ाहट और न कहीं लूटपाट की चंगेजी प्रवृति।

इधर मेरी जिज्ञासा की लार टपकी ही थी कि, वह बोल पड़ा। कुत्तों की समझ में अब इजाफा हो चुका है। खुले और वैश्वीकृत बाजार की धारणा को समझने लगे हैं वे। दिमाग की तंग खिड़कियां खुलने लगी हैं। ताजी हवा आने लगी है। मूड फ्रेश है। अब किसी गेट या रास्ते पर चौकसी खत्म। बहुत भौंक लिए दूसरों के लिए। बहुत दुम हिलाई दुसरों के सामने। इस ‘दूसरा‘ से तौबा।

अब तक की उसकी इस बेबाकी का मैं आकलन नहीं कर पा रहा था। झन्नाहट में था कि मैं इंटरव्यू कर रहा हूं या वह जबरन दे रहा है। क्योंकि, अब छुट्टा मैदान में वह। गले में सांकल या पट्टे की जगह कलफ वाला श्वेत धवल कालर। ऐसा कि मानों शांति और संधि का दोहरा न्यौता मिल रहा हो।

अचानक मेरी तंद्रा भंग करते हुए बोला साहेब! टांग उठाने की प्रवृति से नसीहत ले ली है हमने। दुम का दुलार भी खास मौकों के लिए आरक्षित हो चुका है। बे-मौका रौब गालिब……। इंतिहा हो गई…….। एक खास किस्म की अंडरस्टेडिंग विकसित हो चुकी है हममें। डू यू अंडरस्टेंड। उसके इस ‘हममें‘ के अंदाज पर मैंने उसे अचरज भरी नजरों से देखा तो कहने लगा, मतलब निकाल लीजिए। किसी अंतर्ज्ञानी की तरह मेरे सवाल से पहले ही जवाब ठोक बैठता।

मैंने सवाल दागा तो क्या……? फिर सवाल काटते हुए, अब दिन बीते रे भैय्या………। जब रात को भुखे पेट रिरियाया करते थे। उसका मुझे भैय्या पुकारना अखरा। कदाचित यदि वह ‘एसी‘ में घुमंतू प्राणी होता तो शायद मुझे उसका यह संबोधन गैर सा नहीं लगता। मगर वह था तो उस गली का आवारा……….। हालांकि यह भाव मैंने अपने चेहरे पर नहीं आने दिये। संबोधन कबूल किया इसलिए भी कि उसकी भूतकालीन छवि को यादकर सिंहर उठा। फोबिया ग्रस्त हो उठा और चुप रहना ही मुनासिब समझा। वह लाख साबित करने की कोशिश में था कि गुर्राना अब बस्स। लेकिन ताजा दृश्य कुछ कम भी नहीं था। खैर उसकी मानें तो यह मात्र रस्म अदायगी की आखिरी ‘नौबत‘ ही थी।

मैं अब तक उसकी इस नवाढ़य आभा में घिर चुका था। उसने मुझे झिंझोड़ा और पूंछ दिखाते हुए बोला भविष्य के गर्त में क्या है, मुझे नहीं मालूम। मुझे कुछ नहीं मालूम…..। किंतु फिलहाल बारहसाला मुहावरा भी खत्म। लो देखो पुंछ के ‘बल‘ भी निकल चुके हैं। एकदम सीधी है। ‘समय‘ भी यही मांगता है। जैसे मुझे दिलासा दे रहा हो कि ‘मैं हूं ना‘।

यकायक वह इंकलाबी अंदाज में दहाड़ा। बदल डालिए हमारे प्रति अपनी घिसी-पिटी इबारत व कमज़रफ़ सोच को और ‘…….से सावधान‘ के स्थान पर लिखिए ‘……से डरना मना है‘। हमने न तो कभी गिरगिट की तरह रंग बदला है, न नस्ल बदली है और न ही चेहरा। बस, अपने में क्रांति जैसा आभास पैदा करना था। सो तुम देख ही रहे हो।

अचानक ही, जैसे वह भीड़ में मंच से दहाड़ रहा हो और मैं इस भीड़ में अकेला जड़ होकर ‘समर्थन‘ में तालियां पीटता जा रहा हूं। अकेला।

@Dhanesh Kothari

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