सरोकार

मैं लक्ष्मणझूला सेतु हूं…! (भाग – 2)

दुर्गा नौटियाल

हां, मैं लक्ष्मणझूला सेतु हूं! मैं अब बूढ़ा हो चला हूं। लेकिन मैं इतना कमजोर भी नहीं की मृत्यु के आगे नतमस्तक हो जाऊं…। मैं महाभारत के भीष्म की वह प्रतिज्ञा हूं, जो रणभूमि में बाणों की शैय्या पर लेटे हुए भी मृत्यु को अपने बस में कर सकता हूं। मैं महर्षि दधीचि हूं, जो अपनी प्राण शून्यता के बाद भी अपनी हड्डियों से बज्र का निर्माण कर सकता हूं। मैं हाड मांस का इंसान जैसा पुतला नहीं, जो छित, जल, पावक, गगन ओर समीर में विलय हो जाऊं। मैं फौलाद से गढ़ा गया हूं और कभी मिट भी गया तो फौलाद ही रहूंगा। भविष्य में मेरे कण-कण से भी फौलाद ही निर्मित होगा। मैं जड़ हूं लेकिन चेतनशून्य नहीं, मैं आदि भी हूं और अनंत भी। भौतिक रूप से मेरा ओर-छोर तुम भले ही देख पा रहे हों, लेकिन मेरी जड़ें भूतल में भी गहरी गढ़ी हैं, जो शायद किसी को नजर ना आए। मैं भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों हूं। मैंने इस देश, प्रदेश और शहर के कई कालखंड जिए हैं। मैं एक भरपूर सदी हूं, जो अपने आप में एक संपूर्ण इतिहास है। मैं लक्ष्मण झूला सेतु हूं, जो अब बूढा हो चला हूं…।
एक बूढ़े और जर्जर हो चुके लक्ष्मणझूला सेतु को आपने पिछले खंड में कितनी संजीदगी के साथ पढ़ा और जिया…। मैं वास्तव में अब अपनी सार्थकता पर गर्व महसूस कर रहा हूं। मेरे पास शब्द नहीं है कि मैं किस रूप में आपका शुक्रिया अदा करूं। मैं बेशक बूढ़ा हो चला हूं, लेकिन आप लोगों के प्रेम और स्नेह ने मेरे अंदर फिर से एक अजीब सी स्फूर्ति और ताजगी ला दी है…। अब मुझे लग रहा है कि मैं यूं ही खामोशी के साथ विदाई नहीं लूंगा, बल्कि आपके साथ उस एक सदी का अनुभव साझा करके जाऊंगा जिसे मैंने जिया और महसूस किया है।
जिस दिन से मुझे पता चला कि मेरे भीतर कई बीमारियां हैं, जो मुझे खोखला कर करती जा रही हैं और लोग मुझे असुरक्षित बताने लगे हैं। तबसे वास्तव में मैं भी यह महसूस करने लगा हूं कि अब मैं बूढा हो चला हूं…। दोस्तों जैसे आप लोगों की सेहत की देखभाल के लिए एम्स और पीजीआई जैसे चिकित्सा संस्थान बने हैं, ठीक वैसे ही मेरे सेहत की जांच के लिए भी आईआईटी और एनआईटी जैसे संस्थान हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि आपको अपनी जांच के लिए इन संस्थानों का रुख करना पड़ता है और मैं इस बुढ़ापे में भी अपनी जगह अटल, बेफिक्र और निश्चिंत रहता हूं। जिसे मेरी जांच करनी होगी वह स्वयं चलकर मेरे पास आएगा। मुझे पता है मेरी तरह आप अपने डॉक्टर को यह कहने की हिम्मत कभी नहीं जुटा पाओगे की, डॉक्टर बेटे, तू आ और मेरे सेहत की जांच कर… एक बार नहीं कई बार कर…।
यह सबसे बड़ा फर्क है जो मुझे आप जैसी आम जिंदगी से अलग लक्ष्मणझूला सेतु बनाता है। मैं यह सब इसलिए बेबाकी से कह रहा हूं कि अब कोई डॉक्टर, इंजीनियर मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। लेकिन आपको बता रहा हूं कि अपने डॉक्टर के साथ ऐसा मजाक कभी मत करना। बूढ़ा बुजुर्ग हूं, इसलिए बता रहा हूं…। हां ऐसी दृढ़ता तुम में भी हो सकती है, बशर्ते तुम मेरी तरह सात्विक जीवन जिओ और प्रकृति के सापेक्ष आचरण करो।
खैर, छोड़ो मैं आज अपनी प्रवृति के विरुद्ध उपदेश दे रहा हूं.. जो मैंने अपने 90 साल की उम्र में नहीं दिया। लेकिन पता नहीं क्यों… अब मुझे लगता है, कि मुझे वास्तव में मेरा बुढ़ापा ऐसा करने को विवश कर रहा है। जो भी हो मैंने भी ठानी है कि आपको वह तमाम बातें बता कर दम लूंगा, जो एक नई पीढ़ी को बताने का फर्ज एक बुजुर्ग का होता है।
आपको पता है मेरा नाम लक्ष्मण झूला क्यों पड़ा..? दुनिया में मेरे जैसे न जाने कितने सेतु हैं, लेकिन मुझे ही पूरी दुनिया ने क्यों इतना सम्मान और प्रेम दिया..? आज में आपको बताता हूं।
मैं जिस स्थान पर विराजमान हूं, यह भूमि देवताओं और ऋषि-मुनियों की तपोभूमि है। गोमुख से निकल कर गंगा अपने साथ छोटे बड़े हिमनद, नदी और नयारों को मिलाकर पहाड़ों के बीच सर्पीले रास्तों से कलकल निनाद करते हुए यहां तक पहुंचती है। फिर यहीं से गंगा अपने उस चंचल और चपल स्वभाव को बदल कर शांत और गंभीर बहने लगती है। मानो वह इस तपोभूमि में तपस्यारत साधकों का ध्यान भंग नहीं करना चाहती हो। रामायण काल में भगवान राम के अनुज लक्ष्मण जी ने इसीलिए इस भूमि को तप के लिए चुना था। उन्होंने इसी भूमि पर आकर तप किया। तब से इस भूमि का नाम तपोवन हो गया। आपके यकीन के लिए मैं स्कंद पुराण के केदारखंड का ज़िक्र करना चाहूंगा। केदारखंड के अध्याय 123 के 25वें श्लोक में इस बात के प्रमाण काफी हद तक आपको मिल जाएंगे। गंगा की दाहिने छोर पर आज भी लक्ष्मण मंदिर स्थित है, जहां भगवान शिव लिंग रूप में विराजमान हैं। कुछ ही दूरी पर शेष मंदिर व एक प्राकृतिक जल कुंड भी मौजूद है।
यहां आकर आप पुराने लोगों से उनके लक्ष्मण मंदिर से जुड़े अनुभव पूछ सकते हैं। इस मंदिर में स्थित शिवलिंग पर कभी अनगिनत सर्प लिपटे रहते थे, जो अब यदा-कदा ही सही मगर, यहां नजर आते हैं। लक्ष्मण जी को पुराणों में शेष नाग का अवतार माना गया है और सर्प भगवान शिव के आभूषण। शायद यह संयोग इन्हीं पौराणिक मान्यताओं को बल देते हैं। पुराणों में इसी स्थान पर ‘इंद्र कुंड’ जिसे कुछ लोग ‘लक्ष्मण कुंड’ भी कहते थे, कभी हुआ करता था। इस कुंड में स्नान करने से कुष्ठ रोग से मुक्ति मिल जाती थी। लक्ष्मण जी ने भी अपने कुष्ठ रोग के निवारण के लिए इस कुंड में स्नान किया था, ऐसा पुराणों में उल्लेख है। इस पौराणिक मान्यता से इतना तय है कि यह भूमि लक्ष्मण जी की तपोभूमि रही है।
अब सवाल यह उठता है कि इस स्थान पर सेतु (पुल) की जरूरत क्यों पड़ी..? चलो मैं यह भी प्रमाणिक तौर पर बता देता हूं। दरअसल, उत्तराखंड हिमालय के प्रसिद्ध धाम श्री बद्रीनाथ व श्री केदारनाथ को पहुंचने का एकमात्र (पैदल) मार्ग यही था। पौराणिक मान्यता है कि भगवान श्री राम के अनुज लक्ष्मण ने सबसे पहले इस स्थान पर गंगा को पार करने के लिए जूट की रस्सियों की मदद से पुल का निर्माण किया था। इसके बाद भी इंसानी सभ्यता में यहां पर जूट की रस्सियों के सहारे ही पुल का निर्माण होता रहा। तब जूट की रस्सियों पर छींके के सहारे यात्री इसी गंगा को पार करते थे और आगे की यात्रा करते थे।
समृद्धि इंसानी सभ्यता के दौर में यह क्रम सन 1889 तक जारी रहा। इसी दौर में एक प्रसिद्ध संत जिन्हें बाबा काली कमली वाले के नाम से प्रसिद्धि मिली (स्वामी विशुद्धानंद) ने तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए ऋषिकेश से लेकर बद्रीनाथ, केदारनाथ व गंगोत्री-यमुनोत्री के पैदल यात्रा मार्ग पर कई पड़ाव विकसित किए, जिन्हें चट्टियों का नाम दिया गया। ऋषिकेश से बद्रीनाथ पैदल मार्ग पर सत्यनारायण मंदिर (रायवाला) के बाद ऋषिकेश, लक्ष्मण चट्टी, गरुड़ चट्टी, मोहन चट्टी, महादेव चट्टी, कांडी, व्यास चट्टी, देवप्रयाग.. और फिर आगे संपूर्ण यात्रा मार्ग पर इसी तरह के पड़ाव विकसित किए गए। यानि कि बद्रीनाथ-केदारनाथ यात्रा के लिए लक्ष्मण झूला से गंगा को पार करना होता था। जिसके लिए यहां पर पुल (सेतु) की आवश्यकता महसूस की गई होगी।
सन 1889 में इन्हीं संत बाबा काली कमली वाले की प्रेरणा से कोलकाता के सेठ रायबहादुर सूरजमल झुनझुनवाला ने इस स्थान पर 50 हजार रुपये की लागत से लोहे की रस्सियों पर एक पुल का निर्माण कराया था, जो 1923 में गंगा में आई बाढ़ में बह गया और फिर मेरे निर्माण की कवायद, जैसा कि मैं पिछले खंड में बता चुका हूं। यह सेतु वास्तव में मेरा आदि पूर्वज था। मैं विशुद्ध रूप से विज्ञान की देन हूं, इसलिए धर्म और अध्यात्म के मामले में कमजोर हूं। यह सब तो प्रसंगवश मैंने आपको बता दिया। लेकिन इसमें जो इतिहास बताया गया है, वह सत्य की कसौटी पर खरा और प्रमाणिक है। मैं अब बूढा हो चला हूं…, इसलिए अपनी आने वाली पीढ़ियों को यह इतिहास बताने की कोशिश कर रहा हूं।
जहां तक आस्था का सवाल है तो मैंने आप जैसे अनगिनत लोगों के दिलों में मेरे प्रति आस्था का वह भाव देखा। आपको याद हो या ना हो मगर मुझे खूब याद है कि जब तुमने पहली दफा मेरी हथेलियों में अपने पैर बढ़ाएं, उससे पहले एक अनजान आस्था ने तुम्हारा शीश मेरे सम्मान में झुका दिया था। तुमने मेरे ऊपर बेफिक्री से गंगा पार करने से पहले न जाने क्यों मुझे अपने अंतर मन से सम्मान देते हुए प्रणाम कहा था। हालांकि मैंने कभी किसी से भी ऐसी अपेक्षा नहीं की थी।
मैं अपने निर्माण से लेकर आज तक, जब मैं बूढ़ा हो चला हूं… मैंने कभी अपने स्वार्थ को नहीं जिया और ना ही अपने स्वभाव को कभी स्वार्थी होने दिया। हां यह अलग बात है कि मेरा अस्तित्व ना जाने कितने लोगों को स्वार्थी बना गया। मैंने तो हमेशा स्वयं को भूगोल के दो खंडों के बीच अखंड रखने का प्रयास किया। मेरी इस अखंडता ने मेरे आस-पास की सभ्यता को इतना सुदृढ़ बना दिया कि अब मुझे इस सभ्यता की चिंता भी सताने लगी है। चिंता इसलिए कि जो सभ्यता मेरे बलबूते सुदृढ़ हुई, संपन्न बनी, मेरे बाद ना जाने क्या परिणाम होगा। मैं कभी अंतर्मुखी और स्वपोषी नहीं रहा। इसलिए, क्योंकि मैं लक्ष्मणझूला सेतु हूं…, मैं लक्ष्मणझूला सेतु हूं.., मैं लक्ष्मणझूला सेतु हूं..,
@ – दुर्गा नौटियाल, ऋषिकेश
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