बोली-भाषा

गढ़वाली भाषा के हित के लिए व्यापक दृष्टि सर्वोपरी

bol pahadi

नरेन्द्र कठैत //

अक्सर सुनने में आता है कि हम हिंदी भाषा के आचार व्यवहार में तालव्य ‘श’ का उच्चारण सही नहीं कर पाते। तालव्य ‘श’ के स्थान पर दन्त ‘स’ उच्चारित करते हैं। देश को देस, प्रदेश को प्रदेस, आकाशवाणी को आकासवाणी इत्यादि हमारे श्रीमुख से आम बोलचाल में निकल ही जाते हैं। इसके पीछे एकमात्र कारण यही है कि गढ़वाली लोक व्यवहार में तालव्य ‘श’ नहीं है। क्योंकि गढ़वाली भाषा अभी तक ठेट गांव या यूं कहें देहात की ही भाषा रही है अतः हमारी हिंदी पर भी उसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। इसमें अतिरंजन या मनोरंजन का कोई भाव निहित नहीं है। खबीश को हम खबेस ही कह पाते हैं। क्या करें! ठेट देहाती जो ठहरे।

ठेट लोक व्यवहार के साथ भाषा के इस तारतम्य का वर्णन करते हुए आचार्य विनोवा जी एक स्थान पर  लिखते हैं – ‘देहाती लोग जो उच्चारण करते हैं, उसे हम अशुद्ध कहते हैं। लेकिन पाणिनी तो कहते हैं कि साधारण जनता जो बोली बोलती है, वही व्याकरण है। तुलसीदास जी ने रामायण आम लोगों के लिए लिखी है। वह मानते थे कि देहाती लोग ‘स’ ‘ष’ और ’श’ के उच्चारण में फर्क नहीं करते। आम लोगों की जबान में लिखने के लिए उन्होंने रामायण में सब जगह ‘स’ ही लिखा है। वह नम्र हो गये। उनको तो आम लोगों को रामायण सिखानी थी, तो फिर उच्चारण भी उन्हीं का होना चाहिए।’ आचार्य विनोवा जी के आंकलन के अनुसार तुलसीदास जी ने आमजन को समझाने के लिए सम्पूर्ण रामायण में ‘स’ का प्रयोग किया।

जहां तक गढ़वाली भाषा के लोक व्यवहार का प्रश्न है तो तालव्य ‘श’ तो गढ़वाली भाषा के लोक व्यवहार में भी नहीं है। जो शब्द लोक व्यवहार में नहीं है उसको लिखित साहित्य में प्रयोग करना उचित नहीं जान पड़ता। गढ़वाली भाषा में प्रथम पुस्तक प्रकाशित होने के बाद इन पंक्तियों के लेखक ने तालव्य ‘श’ के प्रयोग को नामोल्लेख तक ही सीमित करना शुरू किया। उसी लय पर लेखक आज भी कायम है।

अरविंद पुरोहित – बीना बेंजवाल कृत ‘गढ़वाली हिंदी शब्दकोश’ में ठीक यही युक्ति देखने को मिली है। अतः कह सकता हूं इस सन्दर्भ में अकेला नहीं है। किंतु भगवती प्रसाद नौटियाल – डा. अचलानन्द जखमोला द्वारा संपादित ‘वृहत त्रिभाषीय शब्दकोश’ में तालव्य ‘श’ को परिभाषित करते हुए लिखा गया है कि ‘इस वर्ण का प्रयोग सामान्यतः लिखित साहित्य में ही मिलता है बोलचाल में यह ‘स’ वर्ण के साथ परिर्वतनीय है। प्रश्न यही है कि अगर गढ़वाली लोक व्यवहार में तालव्य ‘श’ नहीं है तो फिर लिखित में क्यों?

गढ़वाली भाषा में हिंदी भाषा से आयातित एक अन्य अक्षर है – क्ष। यह अक्षर भी गढ़वाली भाषा और लोक व्यवहार में नहीं है। ‘क्ष’ अक्षर की उपस्थिति भी मेरे संज्ञान में आये किसी गढ़वाली शब्दकोश या किसी गढ़वाली पुस्तक में नहीं दिखी है। यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं कि इन अक्षरों से दूरी गढ़वाली भाषा की मजबूरी नहीं बल्कि उसकी एक अलग भाषाई छवि रही है।

प्रश्न विचारणीय है कि गढ़वाली भाषा की इस विसंगति का कारण क्या देवनागरी लिपि है? जिससे की गढ़वाली भाषा की तस्वीर हमें हिंदी के अनुरूप दिखती है। अथवा हिंदी भाषा की वर्णमाला के सभी स्वर और व्यंजनों को अपनाने की गढ़वाली भाषा के लिए वाध्यता है? किंतु गढ़वाली भाषा की अभी तक यही तकदीर रही है क्योंकि वह प्रबुद्धजनों द्वारा हिंदी के आइने से ही देखी जाती रही है। जबकि गढ़वाली भाषा का अपना एक पृथक ढांचा है। गढ़वाली भाषा में एक नहीं बल्कि अनेकों अक्षर, शब्द ऐसे हैं जिनका अर्थ गूढ़, व्यापक और शोधपरक है। आज भले ही गढ़वाली भाषा पर इतना मंथन करने की जरूरत महसूस न की जा रही हो किंतु यह निश्चित है कि इन तमाम बिंदुओं पर हमें भविष्य में मंथन करना ही है।

सर्वविदित है कि राज्याश्रय से लेकर अभी तक गढ़वाली भाषा ने विकास की एक लम्बी यात्रा तय की है। हाल ही में इसमें जनपद पौड़ी से ‘प्राथमिक कक्षाओं के लिए गढ़वाली पाठ्यक्रम’ के रूप में एक और नई कड़ी जुड़ी है। इसको आकार देने हेतु  समस्त माननीयों/पदाधिकारियों/बुद्धिजीवियों/भाषा विशेषज्ञों तथा पठन पाठन में रत सभी छात्रों- शिक्षकों को हार्दिक बधाई है!

त्रुटियों का रहना स्वाभाविक है। किंतु ऐसा भी नहीं है कि त्रुटियां आपकी दृष्टि में नहीं हैं। संशोधन अपेक्षित हैं। क्योंकि इसी बुनियाद पर भविष्य में गढ़वाली भाषा की कई इमारतें खड़ी होनी हैं। आज न सही तो कल इतिहास ने हमारे पदचाप गिनने ही हैं। अस्तुः गढ़वाली भाषा के हित के लिए व्यापक दृष्टि ही सबसे सर्वोपरी है।
एक बार पुनः पौड़ी जनपद की प्राथमिक पाठशालाओं के लिए पाठ्यक्रम निर्माण के श्रमसाध्य कार्य से जुड़े  समस्त माननीय/ पदाधिकारी/ बुद्धिजीवी/ भाषा विशेषज्ञ तथा पठन-पाठन में रत छात्र-शिक्षक हार्दिक बधाई स्वीकार करें।

ज्ञात हुआ कि गढ़वाली भाषा की परिधि में आने वाले जनपद रुद्रप्रयाग के जिलाधीश गढ़वाली भाषा प्रेमी श्री मंगेश घिल्डियाल भी पाठ्यक्रम तैयार करवाने में प्रयासरत हैं। उन्हें भी अग्रिम शुभकामनाएं!

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