साहित्य

तमsलि़ उंद गंगा: सांस्कृतिक विरासत का दस्तावेज़

आशीष सुंदरियाल //
आज के समय में जब हमें ‘अबेर’ नहीं होती बल्कि हम ‘late’ हो रहे होते हैं, हम ‘जग्वाल़’ नहीं करते ‘wait’ करते हैं, हमें ‘खुद’ नहीं लगती हम ‘miss’ करते हैं – ऐसे समय में एक गढ़-साहित्य एवं मातृभाषा प्रेमी अपने अथक प्रयासों से लगभग 1000 पृष्ठों का एक बृहद गढ़वाली़ भाषा शब्दकोश तैयार करता है तो एक सुखद अनुभूति होती है। साथ ही इस बात का भी विश्वास होता है कि जब तक समाज में इस तरह के भाषानुरागी हैं तब तक हमारा लोक व लोक की ‘पच्छ्याण’  (identity) -हमारी भाषा जीवित रहेगी।
गढ़वाली़ भाषा के शब्दकोश के निर्माण से गढ़वाली़ भाषा प्रेमी हर्षित तो होंगे ही, साथ ही इस भाषा ग्रन्थ की व्यापकता को देखकर अचम्भित भी होंगे कि कैसे  एक ही शब्द को अलग- अलग स्थानों में अलग अलग बोलियों में अलग अलग ढंग से बोला जाता है। कैसे एक syllable stress का प्रयोग समान दिखने वाले शब्दों की meaning बदल देता है। कैसे यदि एक शब्द ‘आणे’ (मुहावरे) में प्रयोग किया जाता है तो उसके मायने बदल जाते हैं।
यदि कोई यह जानना चाहता हो कि ‘अओल़’ या फिर ‘बयाल़’ का मतलब क्या है? या फिर ‘बालण पूजा’ क्या होती है- यह सब कुछ इस पुस्तक में उपलब्ध है। ‘ट्वाला’ , ‘निकरै’ व ‘सॉंगो’ जैसे शब्द जो धीरे धीरे विलुप्त होते जा रहे हैं, उनको भी इस संग्रह में संकलित किया गया है।
यह संकलन निःसंदेह गढवाली़ भाषा को सीखने व शोध करने वाले लोगों के लिए reference book के रूप में एक बेहतर विकल्प होगा। साथ ही साथ गढ़वाली भाषा में उपलब्ध अथाह शब्द भण्डार को देखकर  गढ़वाली को भाषा न मानने वाले लोगों की आँखें खुली की खुली रह जायेंगी।

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