साहित्य

अथश्री प्रयाग कथाः सिविल सेवा परीक्षा के प्रतियोगियों पर रोचक उपन्यास

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– गंभीर सिंह पालनी//
प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुटे युवाओं
को लेकर हिन्दी में लिखे गए उपन्यासों ‘डार्क हॉर्स’ (लेखकः नीलोत्पल मृणाल) तथा ‘अल्पाहारी
गृहत्यागी’ (लेखकः प्रचंड प्रवीर) की सूची में हाल ही में एक और नये उपन्यास का नाम
जुड़ गया है; यह उपन्यास है श्री ललित मोहन रयाल का नया उपन्यास ‘अथश्री प्रयाग कथा
’। जहां एक ओर ‘अल्पाहारी गृहत्यागी’ उपन्यास में आई.आई.टी. की प्रवेश-परीक्षा की तैयारी
कर रहे छात्रों की दुनिया का चित्रण है तो ‘डार्क हॉर्स’ उपन्यास शानो-शौकत वाली नौकरी
आई.ए.एस. की अभिलाषा लिये प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुटे ग्रेजुएट/पोस्ट ग्रेजुएट
युवाओं की ज़िंदगी और उनके संघर्षों को लेकर है।
श्री ललित मोहन रयाल का नया उपन्यास ‘अथश्री
प्रयागकथा’ भी सिविल सेवा के  लिए चुने जाने
हेतु प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुटे युवाओं की ज़िंदगी और उन के संघर्षों को
लेकर है। ‘डार्क हॉर्स’ उपन्यास में जहां दिल्ली के मुखर्जी नगर व उसके आस-पास रह रहे
ऐसे प्रतियोगी छात्रों की दुनिया है तो ‘अथश्री प्रयाग कथा’ में इलाहाबाद में रहकर
संघर्ष कर रहे ऐसे छात्रों का संसार हमें देखने को मिलता है।
‘अथश्री प्रयाग कथा’ उपन्यास की चुटीली भाषा
और अनूठा शिल्प पाठक को इस तरह बांध लेते हैं कि 175 पृष्ठों की इस पुस्तक को पढ़ना
शुरू करने के बाद इसे पूरा पढ़े बिना रुकना मुमकिन नहीं। इस पुस्तक को पढ़ने से हमें
पता चलता है, “प्रतियोगी परीक्षा का नशा बड़ी जल्दी चढ़ता है और उतरता बड़ी मुश्किल से
है। साथ ही इस शहर का नशा, अगर एक बार चढ़ जाये तो ताउम्र हैंगओवर बना रहता है।”  
इस उपन्यास में हमें राज्यारोहण की अभिलाषा
लेकर भारी संख्या में टिड्डी दल की तरह इलाहाबाद आने वाले लड़के मिलते हैं। पैसेंजर-एक्सप्रेस
ट्रेनों में लदे, यहाँ तक की आरक्षित सीटों पर भी कब्जा जमाये छोकरे, गाँव-गिरांव से
लेकर , कस्बाई शहरों तक के हिन्दी पट्टी के विभिन्न प्रान्तों के नौजवानों का संगम।
कुछ संयुक्त परिवार की आशाओं को पूरा करने आये हुए तो कुछ अपने परिवार को दारिर्द्य
से उबारने का सपना सँजोये। कुछ ‘इलाकाई मेधावी’ हैं जो झण्डा गाड़ने के इरादे से आये
हुए  हैं, तो कुछ यशोलिप्सा की नीयत से। कुछ
गरीब घरों से आए हुए हैं तो कुछ धन-धान्य से लैस, प्रचुर मात्रा में अनाज और आशीर्वाद
भी साथ में लिए।
इनमें कुछ ऐसे भी हैं जो कम होनहार हैं लेकिन
ज्यादा महत्वाकांक्षी हैं, कुछ ऐसे हैं कि मिडिल स्कूल से लेकर यूनिवर्सिटी तक अव्वल-ही-अव्वल।
…..कुछ ऐसे हैं कि उन्हें देवासुर संग्राम से लेकर, आज तक का डाटा, सब जुबानी याद।
कई तो धुरंधर खैनीबाज। 
जरा इन लड़कों के रहने की व्यवस्था पर नजर डालिएः
“दस-बाई-दस के कमरों में, छह बाई तीन के तख्त
पर जूझते छात्र। पटखाट या फोल्डिंग पलंग पर आसान जमाये, हठयोगी की तरह, किस्मत को चुनौती
देते छात्र। इस शहर में, इस पॉश्चर में, सहस्रों मिल जाते हैं। …तीसरी मंजिल पर भी
कक्ष। वस्तुतः वे कक्ष थे ही नहीं। स्टोर अथवा टूटी-फूटी सामग्री को फेंकने का स्थान
रहा होगा, जिसे झाड-पोंछ कर कक्ष का स्वरूप दे दिया गया हो।”
दस-बाई-दस के इन कमरों को लड़के पार्टनरशिप में
लेते हैं। “सौ वर्ग फीट क्षेत्रफल का विभाजन, दो महत्वाकांक्षी सरदारों के बीच ऑटोमैटिकली
हो जाता है। ….वे एक- दूसरे का क्लेश हरते हैं। दूसरे के अनजान अतीत की जानकारी रखते
हैं । एक-दूसरे के ‘टॉप सीक्रेट ’जानते हैं, तो ‘ट्रेड सीक्रेट’ भी। यदि दोनों नौसिखिये
बछड़े हैं तो साथ-साथ गिरते हैं। रो-धोकर, फिर से ठोस रणनीति बनाते हैं। …’घास की
रोटी खाएँगे, भूमि-शयन करेंगे’ श्रेणी के जज़्बात, छलकने लगते हैं।”
इन लड़कों का बहुत- ही सजीव चित्रण उपन्यास में
हमें देखने को मिलता है। इसकी एक बानगी देखियेः
पिज्जा को खाकर गँवई पृष्ठभूमि से आया लड़का
कहता है, “ई होत है पिज्जवा। ई तो हम गउँवा में ढेर खाए रहे। रोटिया के अंदर प्याज-टमाटर-धनिया
भर-भर के खूब खाये रहे।” 
इन कमरों में रहने वाले लड़कों द्वारा आपस में
पालियाँ नियत कर दी गयी थीं। एक खाना बनाएगा तो दूसरा बर्तन मांजेगा, चक्रीय क्रम में।
रोस्टर व्यवस्था कड़ाई से लागू। इस तरह के माहौल में रहते हुए ये लड़के बहुत पुराने रेडियो
पर बी.बी.सी., वॉयस ऑफ अमेरिका, परिक्रमा, सुर्खियों से आगे, स्पॉटलाइट आदि प्रोग्राम
दिल थामकर सुनते हैं। किसी के खाँसने या छींकने का विघ्न भी बर्दाश्त नहीं। इस ‘अट्टालिका
अरण्य’ में विलासिता की एकमात्र सामग्री ‘विविध भारती’ के प्रोग्राम ही मनोरंजन के
साधन थे।
जो लड़के सफलता की आस में कई-कई बरस से यहाँ
जमे हुए हैं, उन्हें स्वाभाविक तौर पर ‘सीनियर’ या ‘गुरु’का दर्जा प्राप्त है। जाहिर
है, वे जूनियर लड़कों के सामने ज्ञान भी बघारते हैं और रौब भी गाँठते हैं।
इन लड़कों की “अपनी महत्वाकांक्षा का कैनवास
भी छोटा-मोटा नहीं है, बहुतै बड़ा है। कुर्सी चाहिए, तो सिर्फ और सिर्फ आबनूस की। बहुत
हुआ तो बर्मी टीक – सागौन की। इस से नीचे स्टैंडर्ड नहीं गिरा सकते।  नो कोंप्रोमाइज , जीवन में सब कुछ कर सकते हैं;
बस इस मामले में समझौता नहीं कर सकते। लोहा-लक्कड़ और प्लास्टिक की कुर्सी तो कहीं भी
मिल जाती है। रेलवे स्टेशन और पालिका दफ्तर के बाहर, पार्क में तो हमेशा लगी रहती है।
वे अब वापस नहीं लौट सकते। विफल होकर वापस लौटना
कायरता है, पीठ दिखाना है। वे सब कुछ कर सकते हैं, पीठ नहीं दिखा सकते। ऐसे मौकों पर
उनके अंदर का मध्ययुगीन सिपाही जाग्रत हो उठता है, जो प्रतिबद्धता याद दिलाता रहता
है; शहीद होंगे तो इसी रणभूमि में होंगे। ‘होगा कि नहीं होगा‘ का पेंडुलम लगातार झूलता
रहता है, जो मन को डगमगा जाता है। वापस लौटना मुमकिन नहीं। ऐसा किए तो भरोसा खो बैठेंगे
– परिवार और समाज दोनों का। खैर, समाज की तो ऐसी-की-तैसी। परिवार की नज़रों में गिरने
से सचमुच भय लगता है और उस से ज्यादा भय, अपनी नजरों में गिरने से।”
अपने सपनों को सँजोये इलाहाबाद में डटे हुए
इन लोगों की स्थिति यह है कि वे जिस खेल में अब 
शामिल हो चुके हैं, उसे अधूरे में छोड़ कर वापस घर नहीं भाग सकते। वापसी की तो
सोच भी नहीं सकते। इन के इतने वर्षों से इलाहाबाद में डटे होने के कारण अब घर वाले
भी संयम खोने लगे हैं। बार-बार पूछते हैं, “कब तक हो जाएगा?” दूसरी तरफ रिश्तेदार घर
वालों को बिन मांगी सलाह दे जाते हैं,” बचवा ऊंचा सपना देखा है, पाना आसान नहीं। ऐसा
न हो कि सपना, सपना ही रह जाये।” जब रिश्तेदार घर वालों को भरमा नहीं पाते तो स्वरोजगार
का विकल्प सुझाते हुए अपने कमाऊ पूत का बखान करने लगते हैं जिस से घर वाले उनके बहकावे
में आकर और भी विचलित हो जाते हैं।
कुछ लड़कों को परीक्षा भी एक किस्म की युद्धभूमि
जान पड़ती है। इस के लिए तैयारी करने के विविध तरीके हैं। एक सज्जन तो प्रतियोगिता से
संबन्धित विशेष किताब को वहाँ से पढ़ना शुरू करते थे, जहां पर हॉलोग्राम चस्पा रहता
है, असली-नकली का भेद बताने वाला। ….फिर ऑफसेट प्रिंटिंग प्रैस वगैरह से पारायण शुरू
करते थे और वहाँ तक, जहां पर बारकोड नंबर, आई.एस.बी.एन. नंबर छपा रहता है। ….रीतिकालीन
ग्रन्थों को भरपेट पढ़ते थे। शृंगार का सम्पूर्ण रस खींच लेने में वे विलक्षण थे, लगभग
सांस्कृतिक दस्यु।
ऐसा रस – भरा वातावरण भला क्यों न हो, जब वहाँ
ऐसे सीनियर मौजूद हों, जो सलाह देते हों कि चित्त का स्वभाव ही है चंचलता। चिकित्सकीय
लिहाज से भी यह उचित जान पड़ता है कि हृदय अगर किसी ‘दीगर’ के पास रेहन अथवा गिरवी पर
रखा हो, तो हृदयाघात का सवाल ही पैदा नहीं होता। दिल का दौरा पड़ने का टंटा खत्म।
उपन्यास लेखक की डेढ से दो दशक पुरानी स्मृतियों
को सँजोये हुए है, जब वह स्वयं भी इलाहाबाद में रहकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी
किया करता था। सिविल सेवा परीक्षा के तीनों चरणों प्री, मेन तथा इंटरव्यू से जुड़े प्रसंगों
को भी लेखक ने पुस्तक में अत्यंत रोचक प्रवाह के साथ समेटा है।
उपन्यास में लोकोक्तियों, मुहावरों और सूक्तिनुमा
वाक्यों का प्रयोग बहुत ही शानदार अंदाज में किया गया हैः “इतने अरसे से तो घुइयाँ
ही छील रहे हैं”, “उसका जन्म, धनु राशि के मूल नक्षत्र में हुआ था, एक तो करेला, ऊपर
से नीम चढ़ा”, “तभी उन का एक मुंहलगा चेला, आगे को बढ़ आया। संभवतः वह नीम-हकीम रहा होगा”,
“हौसला, उनका बढ़ा-चढ़ा हुआ है। सातवें आसमान पर है।”, “छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता,
टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता”,  “प्रकृति संतुलन
कैसे साधती है, परिवर्तन से”, “पथ की बाधाओं से कभी विचलित नहीं होना चाहिए। जीवन में
बहुत सी परस्पर असंबद्ध घटनाएँ घट जाती हैं”, “जब वे झुंड में नए नवेले आए थे, हर ओर
सींग फँसाते रहते थे”, “जमाना खराब है, जिल्द देखकर किताब खरीदने का रिवाज है”,  “मछली, पानी कब पीती है, पड़ोसी मछली तक को कानोंकान
खबर नहीं हो पाती”,  “धार्मिक ज्वार भी कभी
– कभी उद्देश्य देखकर उमड़ता है। ” “दो सीट और होती तो बेड़ा पार हो जाता”,  “तुम रहे घोंघा के घोंघा।”
संस्मरणात्मक शैली मे लिखा गया यह उपन्यास एक
वरिष्ठ लोक – सेवक के द्वारा प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के दौरान जिये हुए अनुभवों
और देखे हुए संसार को पूरी जीवंतता के साथ समेटे हुए है । समस्त पात्रों और प्रसंगों
के चित्रण बड़े ही सजीव बन पड़े हैं।
इन प्रतियोगियों में से कोई उपन्यास का नायक
नहीं है बल्कि सभी प्रतियोगी  नायक हैं। फिर
भी अखिलेश का जिक्र यहाँ जरूरी है जो कि इस बार परीक्षा में सफल होने के बाद इंटरव्यू
देकर इलाहाबाद जाने के बजाय अपने गाँव लौट आए हैं “उत्तम खेती मध्यम बान” का विकल्प
अपनाने, चूंकि इस आखिरी प्रयास में अब सफल होने की धुंधली उम्मीद भी बाकी न थी। खरीफ
का सीजन था। रोपनी चल रही थी। आपाद -मस्तक मिट्टी, कीचड़ में सने अखिलेश झुककर फावड़ा
चलाने में तल्लीन हैं कि उन्हें ऑल इंडिया रेंकिंग में नवें रेंक में चुने जाने का
समाचार मिलता है। अखिलेश को कुछ नहीं सूझता कि खुशी कैसे मनाएँ। एक मन तो कर रहा था
कि इन्हीं खेतों में लोट लगाएँ और बार – बार लगाएँ पर इस उद्दाम भावना को उन्होने जैसे
– तैसे जज़्ब कर लिया था।
उपन्यास का अंत आते-आते ऐसे ही एक प्रतियोगी
दीपक सिंह भी मेधा सूची में मनवांछित स्थान पा जाते हैं। कीर्तिमान स्थापित करते हैं।
जो इन्हें नहीं जानते, उन्हें इस परिणाम पर आश्चर्य होता है। जो इन्हें जानते थे, उन्होने
कहा, “यह तो होना ही था।”
उपन्यास की भाषा इलाहाबादी फ्लेवर लिए हुए है
जिसका अपना विशेष स्वाद पाठक नहीं भूल पाता। इस अविस्मरणीय कृति के लिए लेखक बधाई के
पात्र हैं।
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समीक्षित पुस्तक :
अथश्री प्रयाग कथा (उपन्यास ), पेपर बैक संस्करण,
लेखक : ललित मोहन रयाल,
मूल्य 200 रुपये,
प्रकाशक : प्रभात पेपरबैक्स,
4/19 आसफ अली रोड,
नई दिल्ली, 110002

समीक्षक :  गंभीर
सिंह पालनी, 26-ए, दानपुर, वाया रुद्रपुर- 263153 (उधमसिंहनगर) उत्तराखंड. (मोबाइल-
9012710777)

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