1951 से 1975 तक
सारे भारत में स्वतंत्रता उपरान्त जो बदलाव आये वही परिवर्तन गढ़वाल व गढ़वाली प्रवासियों में भी आये, स्वतंत्रता का सुख, स्वतंत्रता से विकास, इच्छा में तीव्र वृद्धि, समाज में समाज से अधिक व्यक्तिवाद में वृद्धि, आर्थिक स्थिति व शिक्षा में वृद्धि, राजनेताओं द्वारा प्रपंच वृद्धि आदि इसी समय दिखे गये हैं।
गढ़वाल के परिपेक्ष में पलायन में कई गुणा वृद्धि, मन्यार्डरी अर्थव्यवस्था से कई सामजिक परिवर्तन, औरतों का प्रवास में आना, संयुक्त परिवार से व्यक्तिपुरक परिवार को महत्व मिलना, गढ़वालियों द्वारा, सेना में उच्च पद पाना, होटलों में नौकरी से लेकर आईएएस ऑफिसर की पदवी पाना, नौकरीपेशा वालों को अधिक सम्मान, कृषि पर निर्भरता की कमी, कई सामाजिक-धार्मिक कुरुरीतियों में कमी।
किन्तु नयी कुरीतियों का जन्म, हेमवती नंदन बहुगुणा का धूमकेतु जैसा पदार्पण या राजनीती में चमकना, गढ़वाल विश्वविद्यालय, आकाशवाणी नजीबाबाद जैसे संस्थानों का खुलना, देहरादून का गढ़वाल कमिश्नरी में सम्मलित किया जाना, 1969 में कांग्रेस छोड़ उत्तरप्रदेश में संविद सरकार का बनना, फिर संविद सरकार से जनता का मोहभंग होना, गढ़वाल चित्रकला पुस्तक का प्रकाशन, उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा गढ़वाली साहित्य को पहचान देने, चीन की लड़ाई, मोटर बस रास्तों में वृद्धि, लड़कियों की शिक्षा को सामाजिक प्रोत्साहन, अंतरजातीय विवाहों की शुरूआत (हेमवती नंदन बहुगुणा व शिवानन्द नौटियाल उदाहरण हैं), जाड़ों में गृहणियों द्वारा परदेश में पति के पास भेजने की प्रथा का आना, पुराने सामाजिक समीकरणों का टूटना व नए समीकरणों का बनना आदि इस युग की विशेषताएं है, चौधरी चरण सिंह द्वारा हिंदी की वकालत हेतु अंग्रेजी विषय को माध्यमिक कक्षाओं से हटाना जैसी राजनैतिक घटनाओं ने भी गढ़वाली समाज पर प्रभाव डाला। जिसका सीधा प्रभाव गढ़वाली कवियों व उनकी कविताओं पर पड़ा।
कविता के परिपेक्ष में सामाजिक संस्थाओं द्वारा साहित्य को अधिक महत्व देना, गढ़वाली साहित्यिक राजधानी दिल्ली का बन जाना, कवि सम्मेलनों का विकास, नाटकों का मंचन वृद्धि, साहित्यिक गोष्ठियों का अनुशीलन, जीत सिंह नेगी की अमर कृति ’तू ह्वेली बीरा’ का रचा जाना, मैको पाड़ नि दीण और घुमणो कु दिल्ली जाण’ जैसे लोकगीतों का अवतरण, लोकगीतों का संकलन एवं उन पर शोध, चन्द्र सिंह राही का पदार्पण आदि मुख्य घटनाएँ हैं।
कविताओं ने नए कलेवर भी धारण किये, इस युग में कई नए प्रयोग गढ़वाली कविताओं में मिलने लगे,
अबोधबंधु बहुगुणा, कन्हैयालाल डंडरियाल, जीत सिंह नेगी, गिरधारी लाल थपलियाल ’कंकाल’, ललित केशवान, जयानंद खुकसाल ’बौळया’, प्रेमलाल भट्ट, सुदामा प्रसाद डबराल ‘प्रेमी’, जैसे महारथियों के अतिरिक्त पार्थसारथि डबराल, नित्यानंद मैठाणी, शेरसिंह गढ़देशी, डा. गोविन्द चातक, गुणानन्द पथिक, भगवन सिंह रावत ’अकेला’, डा. शिवानन्द नौटियाल, महेश तिवाड़ी, पुराने छंद गीतेय शैली से भी मोह, हिंदी भाषा पर कम्युनिस्ट प्रभाव भी गढ़वाली कविता में आने लगा, अनुभव गत विषय, रियलिज्म, व्यंग्य में नई धारा, नये बिम्ब व प्रतीक, प्रेरणादायक कविताओं से मुक्ति से छटपटाहट, पलायन से प्रवासियों व वासियों के दुःख, शैलीगत बदलाव, विषयगत बदलाव, कवित्व में बदलाव आदि इस युग की देन हैं और इस युग की गढ़वाली कविताओं की विशेषता भी है। मानवीय संवेदनाओं को इसी युग में नयी पहचान मिली।
शिवानन्द पाण्डेय ’प्रमेश’, रामप्रसाद गैरोला, जगदीश बहुगुणा ’किरण’, महावीर प्रसाद गैरोला, चन्द्र सिंह राही, डा. उमाशंकर थपलियाल ‘समदर्शी’, डा उमाशंकर थपलियाल ‘सतीश’, ब्रह्मानंद बिंजोला, भगवन सिंह कठैत, महिमानन्द सुन्द्रियाल, सचिदानन्द कांडपाल, रघुवीर सिंह रावत, डा. पुरुषोत्तम डोभाल, परशुराम थपलियाल, मित्रानंद डबराल शर्मा, श्रीधर जमलोकी, जीवानन्द श्रीयाल, कुलानन्द भारद्वाज ‘भारतीय’, मुरलीमनोहर सती ’गढ़कवि’, वसुंधरा डोभाल, उमादत्त नैथाणी, सर्वेश्वर जुयाल, अमरनाथ शर्मा, विद्यावती डोभाल, ब्रजमोहन कबटियाल, चंडी प्रसाद भट्ट ’व्यथित’, गोविन्द राम सेमवाल, जयानंद किशवान, शम्भू प्रसाद धस्माना, जग्गू नौडियाल, घनश्याम रतूड़ी, धर्मानन्द उनियाल, बद्रीश पोखरियाल, जयंती प्रसाद बुड़ाकोटी, पाराशर गौड़ जैसे कवि मुख्य हैं। इनमे से कईयों ने आगे जाकर कई प्रसिद्ध कवितायेँ गढ़वाली कविता को दीं। जैसे पाराशर गौड़ का इन्टरनेट माध्यम में कई तरह का योगदान!
@Bhishma Kukreti
बेहतरीन पोस्ट .बधाई !