पारंपरिक मिजाज को जिंदा रखे हुए एक गांव..
हिमालयी दुरूहताओं के बीच भी अपने सांस्कृतिक व पारंपरिक मिजाज को जिंदा रखे हुए एक गांव…
हिमालय लकदक बर्फ़ीले पहाड़ों, साहसिक पर्यटक स्थलों व धार्मिक तीर्थाटन केन्द्र के रूप में ही नहीं जाना जाता। अपितु, यहां सदियों से जीवंत मानव सभ्यता अपनी सांस्कृतिक जड़ों को गहरे तक सहेजे हुए हैं। चकाचौंध भरी दुनिया में छीजते पारम्परिक मिजाज के बावजूद आज भी यहां पृथक जीवनशैली, रीति-रिवाज, परंपरायें, बोली-भाषा और संस्कृति का तानाबाना अपने सांस्कृतिक दंभ को आज भी जिंदा रखे हुए है। कुछ ऐसा ही अहसास मिलता है, जब हम भारत के उत्तरी सीमान्त गांव ‘माणा’ में पहुंचते हैं। जोकि आज वैश्विक मानचित्र पर ‘हेरिटेज विलेज’ के रूप में खुद को दर्ज करा चुका है।
विश्व विख्यात आध्यात्मिक चेतना के केन्द्र श्री बदरीनाथ धाम से महज तीन किमी. आगे है सीमांत गांव माणा। माणा अर्थात मणिभद्र्पुरम। पौराणिक संदर्भों में इस गांव को इसी नाम से जाना जाता है। धार्मिक इतिहास में मणिभद्रपुरम को गंधर्वों का निवास माना जाता था। आज के संदर्भों में देखे तो माणा गांव सीमांत क्षेत्र होने के साथ ही विषम भौगौलिक परिस्थितियों में जीवटता की पहचान अपने में सहेजे हुए है। भारत-चीन आक्रमण के दौर में इस गांव के लोगों ने भारतीय सैनिकों के साथ भरपूर साहस का परिचय दिया था। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने अपने तत्कालीन कार्यकाल में बदरीनाथ यात्रा के दौरान माणा गांव पहुंचकर उनकी जीवटता की सराहना की थी।
चीनी आक्रमण से पूर्व तक माणा व तिब्बत के बीच व्यापारिक व सांस्कृतिक संबन्ध गहरे थे। आज भी माणा के कुछ घरों में बुजुर्गों के द्वारा भारत-तिब्बत व्यापार से जुड़ी वस्तुएं सहेजी हुई हैं। जिन्हें देखकर भारत व तिब्बत के मध्य के सांस्कृतिक संबन्धों की पुष्टि हो जाती है। यह भी माना जाता है कि, माणा के वाशिंदों के सामाजिक तानेबाने, वेशभूषा व बोली-भाषा पर तिब्बत का काफ़ी प्रभाव रहा है। यहां ‘रंङपा’ जनजातिय लोगों की वसायत मौजुद है। शाब्दिक अर्थों में रंङपा यानि कि ‘घाटी में रहने वाले लोग’। वर्तमान में रंङपा को रोंग्पा भी उच्चारित किया जाता है।
लगभग तीन हजार की आबादी वाले इस गांव में जिन्दगी हर साल ग्रीष्मकाल में ही आबाद होती है। वर्ष के शेष छह माह ये लोग गोपेश्वर, घिंघराण, सिरोखुमा, सैटुणा आदि इलाकों में अपना ठौर जमाते हैं, या कहें कि, ऋतुओं के परिवर्तन के साथ ही इनके घर भी बदलते रहते हैं, और खानाबदोशी जैसा यह सिलसिला आज भी अनवरत जारी है।
यहां के पितृ सत्तात्मक समाज में भी महिलायें जितनी कुशलता के साथ अपने घर-परिवारों की जिम्मेदारियों के अहम किरदारों में जुटी रहती हैं। उतनी ही शिद्दत से वे अपने पारंपरिक उद्यमों को भी कारगर रखे हुए हैं। यहां तक कि पंचायत राज प्रणाली के चलते अब उनकी भूमिका नेतृत्वकारी भी हो चुकी है। आज श्रीमती गायत्री मोल्फा माणा की पहली प्रधान निर्वाचित होकर गांव की बागडोर संभाले हुए है।
इनके उद्यमों में हस्तशिल्प प्रमुख है। जिसमें प्राकृतिक रंगों, दृश्यों व भूगोल का समावेश बरबस ही जीवंत हो उठता है। बात ऊनी कपड़ों, शाल, दरियों, पंखी, दन, कालीन, कंबल, स्वेटर व पूजा आसन आदि के निर्माण की हो या खेती से जुड़ी कास्तकारी की, सभी में उच्च व मध्य हिमालय की दुरूहताओं के बीच मेहनत- मशक्कत की गाढ़ी खुबसुरती भी साफ़ झलकती है। इसी की बदौलत अब माणा घाटी में नकदी फसलों का उत्पादन भी जोरों पर होता है। जिनमें हरी सब्जियां, गोभी, मटर, मूली, धनिया और फाफर की ताजी फसल रोज ही बदरीनाथ व जोशीमठ के बाजारों में पहुंचती है। आने वाले वक्त में यही फसलें बाजार की मांग के अनुरूप आपूरित होकर गांव की आर्थिकी की संभावनाओं पर खरी साबित हो सकती हैं।
सीमांत गांव होने के बावजूद यह मान लेना कि यह हिमालयी समाज अपने पारंपरिक उद्यमों के बूते ही जिंदा है, ऐसा भी नहीं। जब ग्लोबल हो जाने की चाह हर तरफ़ ठाठें मार रही हो तो भला यह समाज भी क्यों नहीं अपने को आधुनिकता में समाविष्ट करेगा। निश्चित ही अपने सांस्कृतिक वेश को सहेजकर ‘रोंग्पा’ आधुनिक समाज का हमकदम होने का मादा खुद में बटोर चुके हैं।
उत्तराखण्ड में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में इनका उल्लेखनीय मुकाम इस बात को साबित भी करता है। आज शिक्षा के दृष्टिगत माणा के वाशिन्दे 74 प्रतिशत से ज्यादा साक्षर हैं। यही वजह है कि यहां के युवा पारंपरिक मिजाज से इतर आधुनिकता की तरफ भी सहज ही बढ़े हैं। उनमें स्टाइलिश लिबासों का क्रेज भी कमतर नहीं। हालांकि बुजुर्ग अब भी ऊनी कोट, लावा, पायजामा, टोपी व कमरबंध के साथ अपने समाज की पृथक पहचान को कायम रखे हुए हैं। तो दूसरी तरफ घरों की छतों पर टिके डिश एन्टीना बताते हैं कि, वे देश-दुनिया की रफ़्तार में जुड़ने में भी पीछे नहीं।
उच्च-मध्य हिमालय में दस हजार पांच सौ फीट पर जिन्दगी का सफ़र आसान नहीं होता है। लेकिन रंङपा मूल के लोगों की मौजुदगी उनके साहस की गवाह है। शायद उनकी हिम्मत की एक वजह यह भी है कि, हिमालय के कई रोमांचकारी शिखरों का रास्ता माणा से होकर ही जाता है। यहां से भारत-तिब्बत सीमा का आखिरी छोर मानापीक, चौखंबा, कामेट, नीलकंठ पर्वत, देवताल, राक्षसताल, मुच्कुन्द गुफा, वासुदेव गुफा के साथ ही पांडवों के अंतिम प्रयाण का मार्ग सतोपंथ, स्वर्गारोहणी, लक्ष्मी वन, सूर्यकुण्ड, चंद्रकुण्ड, आनन्द वन व पंचनाग मंदिर का रास्ता आरंभ होता है, तो पौराणिक नदी सरस्वती यहां साक्षात अविरल बहकर विष्णुपदी अलकनन्दा से केशवप्रयाग में एकाकार हो जाती है। यहीं से पांच किमी. आगे उत्तर की ओर है वसुधारा जलप्रपात। जोकि लगभग दो सौ मीटर की ऊंचाई से गिरते हुए चटख धूप खिलने पर सतरंगी छटा बिखेरता है।
माणा का अपना धार्मिक मिजाज भी समृद्ध है। धर्म के प्रति निष्ठा का ही उदाहरण है कि, बदरीनाथ भगवान के क्षेत्रपाल (भू-रक्षक) घंटाकर्ण देव भोटिया जनजाति के आराध्य हैं। जिनके प्रति असीम आस्था के वशीभूत हर वर्ष यहां लोकोत्सव का आयोजन किया जाता है। बदरी धाम की परंपराओं के तह्त इसी जाति की कन्याओं के द्वारा भगवान के लिए गर्म ऊनी चादर को बुना जाता है, जिसे शीतकाल के लिए भगवान की मूर्ति पर घृत लेपन कर ओढ़ा जाता है। मंदिर के कपाटोद्घाट्न के अवसर पर इसी चादर के टुकड़ों को श्रद्धालुओं में प्रसाद के रूप में बांटा जाता है।
आज दुनिया के नक्शे पर ‘हेरिटेज विलेज’ के रूप में शिरकत कर चुके माणा गांव की जमीं पर यदि पर्यटन विकास के लिए प्रस्तावित योजनायें साकार हुई तो बदरीनाथ के साथ ही माणा देश-दुनिया के पर्यटकों को आकर्षित करने में और इस सीमांत हिस्से की आर्थिकी के लिए भी काफ़ी अहम साबित होगा।
Copyright – धनेश कोठारी