अब त वा (गढ़वाली ग़ज़ल)
प्रदीप सिंह रावत ‘खुदेड़’ //
अब त वीं लोळी तै हमारि याद बि नि सतांदी,
अब त वा लोळी हमते अपड़ू बि नि बतांदी।
झणी किले रुसई गुसाई छ वा आजकल मैसे,
अब त वा लोळी हमरा स्वीणो मा बि नि आंदि।
हमतै विंकि आंख्यूंन घैल होणो ढब पोड़ग्ये छौ,
पर अब वा लोळी आंख्यूं का तीर बि नि चलांदि।
बाटा मा मिलि मै तै अचणचकि वा लोळी आज,
मै देखि झणि किलै अब अपड़ि मुखड़ि लुकांदि।
आंखि आंख्यूं मा छ्वीं लगांदि छै ज्वा कबि,
अब वा मै तै आंख्यूं बटि खौड़ सि किलै बिरांदि।
सज धजी फ्योंली सि बणि आंदि छै समणि,
अब वा मुखड़ि मा किरीम पौडर बि नि लगांदि।
सरम हया अर नौळी गात वींकि ज्वन्यू गैणू छौ,
पर अब वा लोळी कै देखि बि नि सरमांदि।
चिट्टी-पत्रि, रंत-रैबार खूब आंदा छा विंका पैलि,
किलै अब खौळा मेळों मा दरसनू कू तरसांदि।
म्येरा सब दगड़्यों दगड़ी छप रैंदी बणि वा,
पर मैतै पैणै पकोड़ी सि नै नवाण कू तिरांदि।
यू घसेर डांडी विंका गीतून गुंजणि रैंदि छै कबि,
अब वा पौन पंछ्यूं तै रसीला गीत नि सुणान्दी।
कवि – प्रदीप सिंह रावत ‘खुदेड़’
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (30-08-2019) को "चार कदम की दूरी" (चर्चा अंक- 3443) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'