गढ़वाली-कविता

अपण ब्वे का मैस

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अपण ब्वे
का मैस/
होला वो/
जो
हमरि जिकुड़ि
मा
घैंटणा
रैन/
घैंटणा
छन
कीला/वाडा/दांदा!
जो,
हमारा
नौ फर,
कागज लपोड़िकै/
फाइलों
का थुपड़ा लगैकै/
कम्प्यूटर
मा आंकड़ा भोरिकै/
विकास
कना छन/
जो,
हम तैं
उल्लू का पट्ठा समझिकै
हम तै
लाटा मानिकै/
हम तैं
मूर्ख समझिकै
हम तैं
सीधा- सरल मानिकै
मौज-मस्ती-
मटरगस्ती कैरिकै
अपणी मवासी
बणाण पर मिस्यां छन
अपण ब्वेका
मैस छन वो।।
कवि- स्व.
पूरण पंत ’पथिक’, देहरादून (उत्तराखंड)

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