शख्सियत

दुनियावी नजरों से दूर, वह ‘चिपको’ का ‘सारथी’

दुनिया को पेड़ों की सुरक्षा के लिए
‘चिपको’ का अनोखा मंत्र देने और पर्यावरण की अलख जगाने वाले ‘चिपको आंदोलन’ के 42
साल पूरे हो गए हैं। इस आंदोलन की सबसे बड़ी ‘यूएसपी’ थी, पर्वतीय महिलाओं की
जीवटता और निडरपन। मात्रशक्ति ने समूची दुनिया को बता दिया था, कि यदि वह ठान लें
तो कुछ भी असंभव नहीं।

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इस आंदोलन को अपने
मुकाम तक पहुंचाने में चिपको नेत्री गौरा देवी, बाली देवी और रैणी- रिगड़ी गांव की
महिला मंगल दल सदस्‍यों समेत धौलीगंगा घाटी के दर्जनों गांवों के लोगों का उल्‍लेखनीय
योगदान रहा। साथ ही चिपको नेता चंडी प्रसाद भट्ट, हयात सिंह बिष्‍ट, वासुवानंद नौ‍टियाल
आदि अनेकों लोगों ने आंदोलन में कामयाब भूमिका अदा की।

समूचा विश्‍व चिपको आंदोलन की कामयाबी से
अचंभित रहा और आज भी है। मगर, इस सबके बीच जिस व्‍यक्ति की बदौलत आज चिपको आंदोलन
विश्‍व मानचित्र पर अपनी ध्‍वजा को लहराए हुए है। वह ‘सारथी’ दुनिया की नजरों से
हमेशा दूर ही रहा। बिलकुल हम बात कर रहे हैं, कॉमरेड गोविंद सिंह रावत की। जिनको
जाने बिना चिपको आंदोलन की गौरवगाथा को अधूरा ही माना जाएगा।
देश की दूसरी रक्षापंक्ति के रूप में
प्रसिद्ध सीमांत जनपद चमोली स्थित जोशीमठ विकासखंड अंतर्गत नीति घाटी के कोषा गांव
में 23 जून 1935 को गोविंद सिंह रावत का श्रीमति चंद्रा देवी और श्री उमराव सिंह
रावत के घर जन्म हुआ। बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी गोविन्द सिंह रावत का
जीवन बेहद कठिनाइयों और संघर्षों में बीता। जब वह महज चार साल के थे, तो उनकी माता
इस दुनिया से हमेशा के लिए विदा हो गई थी। इस घटना ने गोविन्द सिंह को अंदर तक
झकझोर कर रख दिया। पारिवारिक स्थिति अच्छी न होने के कारण वह दस वर्षों तक स्कूल
नहीं जा पाये। जैसे- तैसे उन्होंने प्राथमिक की पढ़ाई गांव में, फिर आठवीं तक की
पढ़ाई नंदप्रयाग में हासिल की।
इसके बाद उनकी आगे की पढ़ाई बीच में ही
छुट गई। मगर, मन में पढ़ने की चाहत कम नहीं हुई, और मन विद्रोह को आतुर हो उठा। इसी
बीच उनके पिता जैसे ही व्‍यापार के लिए तिब्बत गए (उन दिनों भारत- तिब्बत का व्‍यापार
नीति दर्रे से होता था)
, अनुकूल मौका देखकर वह घर
छोड़कर पौड़ी गढ़वाल अंतर्गत बुआखाल आ गये। जहां उन्होने फलों की एक छोटी दुकान खोली।
साथ ही कुछ दिनों के बाद पास में ही मेस्मोर इंटर कालेज में किसी तरह से दाखिला भी
ले लिया। परिणामस्वरूप 10वीं की परीक्षा उत्तीर्ण हुए।
इसके बाद गोविंद सिंह रावत ने इस बार बुआखाल
में फलों की बजाए पान की दुकान खोली। साथ ही आगे की पढ़ाई के लिए पौड़ी टोल पोस्ट
पर 15 रूपये महीने में नौकरी भी की, और छोटे बच्चों को पढ़ना भी शुरू किया। धुन के
पक्के गोविन्द सिंह को तब झटका जब वह इंटर पहले साल में ही फेल हो गये। फिर उन्होंने
मेहनत की और 1960 में 25 साल की उम्र में इंटर पास किया। 12वीं पास करने के तत्काल
बाद चमोली में पटवारी पद की भर्ती खुली, तो गोविन्द सिंह परीक्षा पास करके 1963 पटवारी
बन गए। इसी बीच तिब्बत व्‍यापार भी बंद हो गया। गोविन्द सिंह का मन नौकरी में नहीं
लगा। 1964 में ही उन्होंने नौकरी छोड़ दी।
पौड़ी में पढ़ाई के दौरान उनकी मुलाकात पेशावर
कांड के नायक वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली और कई अन्य क्रांतिकारी लोगों से हुई थी। जिनके
विचारों का उनके जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। उन्हें भी समाज को समझने और
किताबों को पढ़ने शौक लग गया। धीरे-धीरे इसी शौक ने उन्हें जीवन में लोगों के लिए
कुछ करने की प्रेरणा दी। उनका झुकाव भारतीय कम्‍यूनिस्‍ट पार्टी की तरफ रहा। इसलिए
उन्होंने सन् 1969 में पार्टी ज्वाइन कर ली। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं
देखा। जनहित से जुडे़ छोटी बड़ी समस्याओं के निराकरण के लिए उन्होंने लोगों को एकजुट
करना शुरू कर दिया।
इसी बीच चुनाव के दौरान उन्हें अपने जनपद के
सामाजिक तानेबाने को करीब से जाने का मौका मिला। दो फरवरी 1973 को उन्हें जोशीमठ
विकासखंड का पहला प्रमुख चुना गया। इस दौरान मलारी सड़क मार्ग निर्माण में लोगो की
कृषि भूमि काटी गई थी, लेकिन मुआवजा नहीं मिला था। गोविन्द सिंह ने ग्रामीणों को मुआवजा
दिलाने के लिए शासन-प्रशासन से मांग की, साथ ही बदरीनाथ दौरे पर आई तत्कालीन गढ़वाल
कमिश्‍नर कुसुमलता मित्तल से भी वार्ता की। इस दौरान वह कमिश्‍नर से भी भीड़ गए और
उनका घिराव कर दिया। कमिश्नर के जबाब
जानते हो हम कमिश्नर हैं, के उत्तर मेंगोविंद सिंह
की बात कमिश्नर जी हम भी जनता हैं, की यादें आज भी पुराने लोगों के जेहन में
तरोताजा है।
इसी दौर में गढ़वाल परिक्षेत्र में जंगलों
को काटने का ठेका दे दिया गया था। रामपुर-फाटा से लेकर मंडल और रैणी के जंगलों के
पेड़ों को काटने का ठेका साइमन एंड गुड्स कम्पनी को दिया गया था। जंगल काटने को
लेकर पूरे गढ़वाल में लोगों में असंतोष था। अप्रैल 1973 में श्रीनगर में आयोजित
गोष्टी में गोविंद सिंह को इसके बारे में विस्तार से पता चला। गोष्टी में चंडी
प्रसाद भट्ट ने उन्हें बताया की रैणी का जंगल भी चार लाख 71 हजार में बिका है- इसको
बचाने की सोचो। तब दोनों ने परिचर्चा कर पेड़ों को बचाने के लिए रणनीति तैयार की।
पहले मंडल के जंगलों को काटने के खिलाफ
आवाज बुलंद हुई, और फिर रामपुर फाटा के जंगलों को बचाने में ग्रामीणों को कामयाबी
मिली। इसी वर्ष मई में गोपेश्वर में एक वन संरक्षण पर एक वृहद सम्मलेन आयोजित हुआ।
जिसमें गोविन्द सिंह ने सबको बड़े गौर से सुना और उस पर मंथन भी किया। जिसकी परणिति
यह हुई कि रातों रात जनजागरूकता को एक पंपलेट तैयार हो गया। जिसमे लिखा था
‘आ गया लाल निशान, लुटने वाले हो सावधान’, ‘लिपटो, झपटो और चिपको’। सबकी सहमति से अक्तूबर 1973
में पीले कागज में इसे लाल अक्षरों से छापा गया।
इसके बाद कॉ. गोविंद सिंह रावत ने जोशीमठ
से लेकर रैणी गांव के आसपास यानि नीति घाटी के दर्जनों गांवों की पदयात्रा शुरू की।
पीले पंपलेट बांटते हुए चेलेंजर माइक से लोगों को पेड़ बचाओ
, पहाड़ बचाओ की अलख जगाने लगे। साथ ही लोगों को जंगलों
के कटान से तय नुकसान भूस्खलन
, पानी, चारा
संकट की जानकारियां दी। उन्‍होंने परवाह नहीं की कि कौन सुन रहा है और कौन नहीं।
उन्‍होंने जनजागृति की मुहिम जारी रखी। शुरुआती दौर में कई लोगों ने उन्हें पागल
तक समझा। लेकिन धीरे-धीरे उन्‍हें भी जंगलों की अहमियत समझ में आने लगी।
दिसम्बर 1973 में गोविंद सिंह रावत एक
सम्मेलन में शिरकत करने टिहरी गए। जहां उन्होंने लोगों को चमोली में जंगल बचाने की
मुहीम के बारे विस्तार से बताया, और जागरूक होने को कहा। साथ ही मार्च महीने तक
रैणी के जंगल को बचाने के लिए लोगों एकजुट किया। गोविन्द सिंह यह मुहिम उस वक्‍त
काम आई, जब प्रशासन ने सोची समझी रणनीति के तहत 14 सालों से अटके मुआवजे के लिए
रैणी के पुरूषों को चमोली तहसील में बुलाया गया, और दुसरी तरफ ठेकेदार साइमन गुड्स
के मजदूरों ने रैणी के जंगलों पर धावा बोल दिया। तब जिसके प्रतिकार में गौरा देवी
की अगुवाई में रैणी की महिलाओं ने अपने हरे भरे जंगलों को बचाने के लिए अनोखा रास्‍ता
अपनाया। वह पेड़ों से चिपक गई। मातृशक्ति  के
हौसले के आगे ठेकेदार के मजदूरों ने हार कर वापसी कर रुख किया।
कॉ. गोविन्द सिंह रावत द्वारा पूर्व में गांव-गांव
पहुंचकर जंगलों को बचाने का जो संदेश प्रसारित किया गया था, आखिरकार वही काम
 आया। भले उस दिन गोविन्द सिंह और अन्य लोग रैणी
में न रहें हों। लेकिन उनकी जगाई अलख रंग लाई। जिसे भुलाया नहीं जा सकता है। इसके
बाद चिपको की जीत पर जोशीमठ में एक विशाल जुलूस भी निकाला गया। इस कामयाबी के
उपरांत रैणी जांच समिति बनी। जिसमें चंडी प्रसाद भट्ट और गोविन्द सिंह रावत को
सदस्य बनाया गया। उनकी संस्तुतियों के आधार पर जंगलों का कटान रोक दिया गया। जो ‘चिपको
आंदोलन’ की ही जीत थी। इसके बाद ‘चिपको’ रैणी से निकलर देश-दुनिया में चमक बिखेरने
लगा और गोविन्द सिंह चिपको से इतर छीनो-झपटो में लग गए।
एक फरवरी तक 1978 तक गोविंद सिंह रावत ब्लाक
प्रमुख रहे। 1980 में वन अधिनयम के विरोध में भी वह खुलकर आगे आये। 1979 में गौचर
में आयोजित उत्तराखंड क्रांति दल के ऐतिहासिक सम्मलेन में उन्हें भी बुलावा भेजा
गया था। 19 नवंबर 1988 को वह दोबारा जोशीमठ के ब्लाक प्रमुख चुने गए
, और दिसंबर 1996 तक इस पद पर बने
रहे। उन्‍होंने अलग उत्‍तराखंड राज्य निर्माण के आन्दोलन में भी बढ़ चढ़कर हिस्सा
लिया। आंदोलन में उनके द्वारा बदरीनाथ से ऋषिकेश तक कई मर्तबा दीवार लेखन भी किया
गया।
ताउम्र पहाड़ के हितों के लिए लड़ते रहे
गोविंद सिंह के साथी हुकुम सिंह रावत कहते हैं कि उनके जैसा सरल
, कर्मठ, जुझारू और निस्वार्थ व्‍यक्ति
आज शायद ही कहीं मिले। लोगो की मांगों के लिए वे जोशीमठ में एक पत्थर पर बैठकर
घंटों चैलेंजर से अवगत कराते थे। ब्लाक प्रमुख रहते हुये भी उन्होंने कभी अपने लिए
कुछ नहीं किया। जिसकी बानगी उस समय उनके घर में जाकर देखी जा सकती थी। बिल्कुल सामान्य
जीवन। उनका एक ही उद्देश्य था कि जनसमस्याओं को कैसे दूर किया जाए।
हुकुम सिंह रावत आगे कहते हैं कि बस एक ही
कमी थी
, एक लक्ष्य पूरा होते ही
दूसरे लक्ष्य को पाना। जिस चिपको आंदोलन ने दुनिया को हैरत में डाला। उसकी सफलता
को उन्होंने कभी भी भुनाया न। बल्कि चिपको की सफलता के बाद दूसरे कार्यों की ओर
मुड़ गए। यही कारण है कि चिपको की चमक में जोशीमठ का गोविन्द सिंह रावत आज भी देश
और दुनिया की नजरों से दूर है। जीवनपर्यंत लोगों के लिए लड़ने वाले गोविन्द सिंह
रावत 21 1998 को दुनिया से विदा हुए।
वास्तव में पेड़ों पर अंग्वाल से लेकर
चिपको का सफर बहुत जादुई भरा रहा हो, लेकिन इसको सफल बनाने में कई लोगों का हाथ
रहा है। जिनमें गोविन्द सिंह रावत का योगदान अमूल्य है, इसे भुलाया नहीं जा सकता
है।

प्रस्‍तुति- संजय चौहान 
(चिपको आन्दोलन के 42 बरस पूरे होने पर विशेष लेख) 

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4 Comments

  1. Kudos on the well-written and well-researched article.

    On the Kusum Lata Mittal episode, it may interest you to know that the wheel turned full circle in May 2016. The misplaced excrement of "jaante ho hum commissioner hain" that has fogged the vision of countless UP/UK cadre bureaucrats since independence finally met its match on a Delhi court judgement asking the ex-commissioner to pay Rs 1 lakh to an aggrieved in the aftermath of 1984 riots. Read here:

    http://timesofindia.indiatimes.com/city/delhi/Court-asks-ex-IAS-officer-to-pay-damages-to-former-cop/articleshow/52171903.cms

    – A Pahadi from the United States

  2. चिपकाे एक सफल प्रयास रहा वे सभी सारथी बघाई के पात्र हैं लेकिन एक और शराब का जहर जन मनस को खा रहा है उसके लिये भी नए मसीहा मिलें

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