साहित्य

गढ़वाली बोलने, सीखने को प्रेरित करती किताब

गढ़वाली भाषा की शब्द-संपदा

इन दिनों रमाकांत बेंजवाल की गढ़वाली भाषा पर आधारित पुस्तक ‘गढ़वाली भाषा की शब्द-संपदा’ बेहद चर्चा में है। वह इसलिए क्योंकि उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद गढ़वाली भाषा पर आधारित पहली ऐसी पुस्तक प्रकाशित हुई है, जो आम पाठक को गढ़वाली बोलने एवं सीखने के लिए प्रेरित ही नहीं करती, वरन् गढ़वाली भाषा के सम्बन्ध में एक नए पाठक की हर आधारभूत जिज्ञासा को संतुष्ट करने में सक्षम दिखाई पड़ती है।

रमाकांत बेंजवाल पिछले ढाई दशक से भी अधिक समय से गढ़वाली भाषा और साहित्य के लिए एक मिशन के रूप में कार्य कर रहे हैं। उनके द्वारा इससे पूर्व पांच पुस्तकें सम्पादित अथवा प्रकाशित की गई हैं।

उनकी नवीनतम् पुस्तक ‘गढ़वाली भाषा की शब्द-संपदा’ में गढ़वाली भाषा को आधार बनकर मूलतः इस बिन्दु पर केन्द्रित किया गया है, कि कैसे एक गढ़वाली अथवा गैर गढ़वाली-भाषा भाषी व्यक्ति गढ़वाली भाषा की बारीकियों से अवगत हो सके। पुस्तक का प्रस्तुतिकरण इतना बेहतरीन बन पड़ा है कि आम आदमी को इससे गढ़वाली बोलने एवं सीखने में काफी सहायता मिल सकती है। गढ़वाली भाषा को जानने-समझने के लिए ऐसी पुस्तक की कमी और आवश्यकता काफी लम्बे समय से महसूस की जा रही थी।

शानदार साज-सज्जा में प्रस्तुत इस पुस्तक में कुल आठ अध्याय हैं। पहले दो अध्यायों में गढ़वाल की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ यहां के प्रसिद्ध बावन् गढ़, धर्म एवं जातियों की जानकारी शामिल है। तीसरे अध्याय में गढ़वाल की लोक संस्कृति, लोकगीत, लोककला एवं पर्यटन जैसी लोकविधाओं का सांस्कृतिक परिदृश्य वर्णित है।

पुस्तक का चौथा अध्याय महत्वपूर्ण है। इसमें ‘गढ़वाली भाषा सीखें’ शीर्षक के अन्तर्गत् गढ़वाली भाषा की विशेषताओं से अवगत कराया गया है। इनमें वाक्यों का तुलनात्मक अध्ययन, शब्दानुक्रमणिका, तथा वाक्यांश एवं वार्तालाप के जरिए गढ़वाली भाषा से अनजान व्यक्ति भी गढ़वाली भाषा सीखने के लिए प्रेरित हो सकता है। इस वार्तालाप में हिन्दी, अंग्रेजी एवं रोमन का सहारा लेकर गढ़वाली सीखने की प्रक्रिया को अधिक व्यावहारिक एवं रोचक बनाया गया है।

गढ़वाल में ‘ळ’ अक्षर का अधिक प्रयोग किया जाता है। ‘ळ’ तथा ‘ल’ अक्षर में ध्वनि-परिवर्तन के साथ-साथ शब्द के अर्थ में कितना परिवर्तन हो जाता है-इसे स्पष्ट किया गया है। पांचवें अध्याय में गढ़वाली भाषा के व्याकरण की बारीकियां प्रस्तुत की गई हैं। छटवें अध्याय में शब्द संपदा शीर्षक के अन्तर्गत शब्द-युग्म, पर्यायवाची शब्द, अनेकार्थी शब्द, विलोम शब्द, दैनिक बोलचाल में प्रयुक्त होने वाले शब्द, शब्द-परिवार, ध्वन्यात्मक शब्द, पानी, पत्थर, लकड़ी, तंत्र-मंत्र, शरीर, अनाज, फल, सब्जी, गांव के स्थान के नाम, गंध, स्वाद, स्पर्श-बोधक शब्द आदि, देकर पुस्तक को अधिक व्यवहारिक बनाने का सफल प्रयास किया गया है।

पुस्तक के सातवें अध्याय में गढ़वाली भाषा साहित्य की प्रकाशित पुस्तकों में से लगभग 250 पुस्तकों की सूची, वर्णमाला क्रमानुसार प्रकाशित की गई है। आठवें अध्याय में गढ़वाली भाषा के मुहावरे, लोकोक्तियां, पहेलियां आदि शामिल हैं। किसी भी भाषा की ये पारम्परिक धरोहर भाषा के सौन्दर्य को बढ़ाने वाले आभूषण माने जाते हैं।

गढ़वाली भाषा उत्तराखण्ड की प्रमुख लोकभाषा है। गढ़वाली  भाषा की विशेषता की एक झलक स्वयं लेखक के शब्दों से महसूस की जा सकती है। अपनी बात में वे लिखते हैं, ‘‘गढ़वाली भाषा में ऐसे शब्दों की भरमार है, जिनके लिए हिन्दी में कोई शब्द नहीं है। जानकारी के अभाव में हिन्दी, अंग्रेजी या अन्य भाषाओं का मुंह ताकती है। गढ़वाली में 50 के आसपास गंधबोधक शब्द, 32 से अधिक स्वादबोधक शब्द, 100 के आसपास ध्वन्यर्थक शब्द, 26 से अधिक स्पर्शबोधक शब्द और असंख्य संख्यावाची तथा समूहवाचक शब्दावली है। सूक्ष्म अर्थभेद की जो प्रवृत्ति गढ़वाली में मिलती है, उसका अपना एक निराला सौंदर्य है।’’

पुस्तक को इस तरह से तैयार किया गया है कि जो भी व्यक्ति गढ़वाली भाषा बोलना एवं सीखना चाहे, उसे भाषा के साथ-साथ गढ़वाल के इतिहास और पृष्ठभूमि की झलक भी मिल जाए।

मेरी दृष्टि में सन् 1959 में डा0 गोविन्द चातक द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘गढ़वाली भाषा’ तथा सन् 1976 में डा0 हरिदत्त भट्ट ‘शैलेश’ की पुस्तक ‘गढ़वाली भाषा और उसका साहित्य’ के बाद गढ़वाली भाषा पर आधारित कोई मानक और उपयोगी पुस्तक प्रकाश में आयी है तो वह है, रमाकांत बेंजवाल की सद्य-प्रकाशित पुस्तक ‘गढ़वाली भाषा की शब्द-संपदा’।

न केवल पुरानी पीढ़ी, बल्कि कॉन्वेंटी भाषा और सभ्यता मे पल-बढ़ रही आधुनिक पीढ़ी को भी यह पुस्तक पसंद आएगी। यदि आप गढ़वाली हैं, तो फिर यह पुस्तक आपके पास होनी ही चाहिए। यदि गैर-गढ़वाली भाषी हैं और गढ़वाली भाषा को बोलना और सीखना चाहते हैं तो फिर गढ़वाली सीखने के लिए हिन्दी में इससे बढ़िया पुस्तक आपको मिल नहीं सकती।

हार्ड-बॉण्ड में डीमाई आकार में आईएसबीएन युक्त 248 पेज की इस पुस्तक की कीमत रू0 195/- है, जो इसके मैटर के हिसाब से उचित है। विनसर प्रकाशन देहरादून द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक को वितरक  उत्तराखण्ड प्रकाशन डिस्पेंसरी रोड़, देहरादून से प्राप्त किया जा सकता है। इतना जरूर कहूंगा कि पुस्तक को समय रहते प्राप्त कर लें, अन्यथा आपको पुस्तक के अगले संस्करण आने का इंतजार करना पड़ सकता है। एक उत्कृष्ट कृति के लिए रमाकांत बेंजवाल, बधाई के पात्र हैं- जुग-जुग जिएं। 

समीक्षक- वीरेन्द्र पंवार

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