साहित्य
मानकीकरण पर आलोचनात्मक लेख
मानकीकरण गढवाली भाषा हेतु एक चुनौतीपूर्ण कार्य है और मानकीकरण पर बहस होना लाजमी है. मानकीकरण के अतिरिक्त गढवाली में हिंदी का अन्वश्य्क प्रयोग भी अति चिंता का विषय रहा है जिस पर आज भी सार्थक बहस हो रहीं हैं.
रिकोर्ड या भीष्म कुकरेती की जानकारी अनुसार, गढवाली में मानकीकरण पर लेख भीष्म कुकरेती ने ‘बीं बरोबर गढवाली’ धाद १९८८, अबोधबंधु बहुगुणा का लेख ‘भाषा मानकीकरण कि भूमिका’ (धाद, जनवरी , १९८९ ) में छापे थे. जहां भीष्म कुकरेती ने लेखकों का ध्यान इस ओर खींचा कि गढवाली साहित्य गद्य में लेखक अनावश्यक रूप से हिंदी का प्रयोग कर रहे हैं. वहीं अबोधबंधु बहुगुणा ने भाषा मानकीकरण के भूमिका (धाद, १९८९) गढवाली म लेखकों द्वारा स्वमेव मानकीकरण पर जोर देने सम्बन्धित लेख है. तभी भीष्म कुकरेती के सम्वाद शैली में प्रयोगात्त्मक व्यंगात्मक लेख ‘च छ थौ’ (धाद, जलाई, १९९९, जो मानकीकरण पर चोट करता है)
इस लेख के बारे में डा अनिल डबराल लिखता है सामयिक दृष्टि से इस लेख ने भाषा के सम्बन्ध में विवाद को तीव्र कर दिया था. “इसी तरह भीष्म कुकरेती का एक तीखा लेख ‘असली नकली गढ़वाळी’ (धाद जून १९९०) प्रकाशित हुआ जिसने गढवाली साहित्य में और भी हलचल मचा दी थी. मुख्य कारण था कि इस तरह की तीखी व आलोचनात्मक भाषा गढवाली साहित्य में अमान्य ही थी. ‘असली नकली गढ़वाळी’ के विरुद्ध में मोहनलाल बाबुलकर व अबोधबंधु बहुगुणा भीष्म कुकरेती के सामने सीधे खड़े मिलते है. मोहनलाल बाबुलकर ने धाद के सम्पादक को पत्र लिखा कि ऐसे लेख धाद में नही छपने चाहिए. वहीं अबोधबंधु बहुगुणा ने ‘मानकीकरण पर हमला (सितम्बर १९९०)’ लेख में भीष्म कुकरेती की भर्त्सना की. बहुगुणा ने भी तीखे शब्दों का प्रयोग किया. अबोधबंधु के लेख पर भी प्रतिक्रया आई. देवेन्द्र जोशी ने धाद (दिसम्बर १९९०) में ‘माणा पाथिकरण’ बखेड़ा पर बखेड़ा’ लेख/पत्र लिखा कि बहुगुणा को ऐसे तीखे शब्द इस्तेमाल नही करने चाहिए थे व इसी अंक में लोकेश नवानी ने मानकीकरण की बहस बंद करने की प्रार्थना की. रमाप्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’ एक लम्बा पत्र भीष्म कुकरेती को भेजा, पत्र भीष्म कुकरेती के पक्ष में था.
इस ऐतिहासिक बहस ने गढवाली साहित्य में आलोचनात्मक साहित्य को साहित्यकारों के मध्य खुलेपन से विचार विमर्श का मार्ग प्रशस्त किया व आलोचनात्मक साहित्य को विकसित किया.
क्रमश:–
द्वारा- भीष्म कुकरेती