नजरिया

क्‍या यह चिंताएं वाजिब लगती हैं..

कोश्‍यारी जी को चिंता है कि यदि आपदा प्रभावित गांवों को जल्‍द राहत नहीं दी गई तो नौजवान माओवादी हो जाएंगे। समझ नहीं पा रहा हूं कि माओवादी होना क्‍या राष्‍ट्रद्रोही होना है, क्‍या माओवादी बनने का आशय आंतकी बनने जैसा है, यदि इन जगहों पर माओवादी पनप गए तो क्‍या पहाड़ और ज्‍यादा दरकने लगेंगे, क्‍या ये गांवों में लूटपाट शुरू कर देंगे, क्‍या ये लोग खालिस्‍तान या कश्‍मीर की तरह अलग देश की मांग कर बैठेंगे, आखिर क्‍या होगा यदि माओवाद को आपदा पीडि़त बन गए तो…

बड़ा सवाल यह कि ऐसी चिंता सिर्फ कोश्‍यारी जी की ही नहीं है, बल्कि राज्‍य निर्माण के बाद कांग्रेस, बीजेपी नौकरशाहों की चिंताओं में यह मसला शामिल रहा है। इसकी आड़ में केंद्र को ब्‍लैकमेल किया जाता रहा है, और किए जाने का उपक्रम जारी है।

यहां एक और बात साफ कर दूं कि मेरे जेहन में उपजे उक्‍त प्रश्‍नों का अर्थ यह न निकाला जाए कि मैं माओवाद का धुर समर्थक या अंधभक्‍त या पैरोकार हूं। बल्कि जिस तरह से पहाड़ के नौजवानों के माओवादी होने की चिंताएं जताई गई हैं, वह एक देशभक्‍त पहाड़ को गाली देने जैसा लग रहा है, जिसके युवा आज भी सेना में जाकर देश के लिए मर मिटने  का जज्‍बा अपने सीने  में पालते हुए बड़े होते हैं। जिसकी गोद में पले खेले युवा गढ़वाल और कुमाऊं रेजीमेंट के रुप में बलिदान की अमर गाथाएं लिखते रहें हैं। ऐसे में क्‍या यह चिंताएं वाजिब लगती हैं….

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button