सहकार से बचेंगी लोकभाषायें
उत्तराखण्ड भाषा संस्थान ने पिछले दिनों राजधानी देहरादून में लोकभाषाओं के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए तीन दिवसीय सम्मेलन आयोजित किया। सरकार ने जिस मंशा से इसे किया था, उसे समझने में किसी को ज्यादा दिमागी जमाखर्च करने की जरूरत नहीं है। लोकभाषाओं पर सरकार की चिंता से सभी वाकिफ हैं। वैसे भी लोकभाषायें सरकार से नहीं, सहकार से बचेंगी। उसके लिए ओएनजीसी के हॉल में सम्मान समारोह नहीं, बल्कि जौनसार और अस्कोट के उस लोक को बचाने की जरूरत है जो अब समाप्त हो रहा है।
इन भाषाओं के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए सरकारी प्रोत्साहन का जहां तक सवाल है, इसी सरकार ने विधानसभा में पारित लोकभाषा बिल को कुछ लोगों के हडक़ाने पर वापिस ले लिया था। पिछले साल सरकार ने स्थानीय भाषा-बोलियों को समूह ‘ग’ की सेवाओं में शामिल करने का मसौदा तैयार किया था। लेकिन बाद में कुछ मंत्रियों और विधायकों के दबाव में इसे वापस लेना पड़ा। अफसोसजनक बात यह है कि जिस मंत्री ने इस विधेयक का सबसे ज्यादा विरोध किया, वही इस सम्मेलन में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहे। इतने बड़े सम्मेलन में किसी की हिम्मत नहीं हुई कि वह मदन कौशिक से पूछ सके कि वह किस मुंह से लोकभाषा की बात कर रहे हैं। सवाल तो मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ और प्रकाश पंत से भी किया जाना चाहिए था, लेकिन यह लोकभाषा पर सवाल करने का नहीं, इसी बहाने सम्मान पाने का समारोह था। मुख्यमंत्री से और भी काम पड़ते रहते हैं। इसलिए यह मान लेना चाहिए कि कुछ तो अच्छा हो रहा है।
उत्तराखण्ड में लोकभाषाओं पर बहस की बात नई नहीं है। संविधान की आठवीं अनुसूची में इसे शामिल करने के लिए लंबे समय से मांग की जा रही है। विभिन्न संगठनों और क्षेत्रीय समाचार माध्यमों ने इसे एक अभियान के रूप में चलाया। जब भी यह बातें आगे बढ़ीं, सरकार और राष्ट्रीय स्तर के ‘पहाड़ी’ साहित्यकारों ने अपनी टांग अड़ा दी। इस सम्मेलन में एक प्रतिष्ठित हिंदी के साहित्यकार ने तो ‘उत्तराखण्ड’ शब्द पर ही एतराज जता दिया। उन्होंने कहा कि उन्हें ‘उत्तरांचल’ शब्द ही अच्छा लगता है। उत्तराखण्ड के सरोकारों से दूर इन साहित्यकारों से प्रमाणपत्र की आवश्यकता न होते हुए भी सार्वजनिक तौर पर दिये गये उनके इस बयान को इसलिए गंभीरता से लिया जाना चाहिए क्योंकि वो भी पुरस्कार बांटने वालों में से एक थे। उनसे यह भी सवाल किया जाना चाहिए कि उनकी बात मान भी ली जाये तो क्या उत्तरांचल शब्द से कुमाऊनी, गढ़वाली या जौनसारी भाषा का उद्धार हो जायेगा?
असल में वे हमेशा लोकभाषाओं को हिंदी के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते रहे हैं। लोकभाषाओं को खतरा बताने वाले लोग लोकभाषा सम्मेलन के अतिथि के रूप में शामिल होंगे तो समझा जा सकता है कि हम किस दिशा में जा रहे हैं। एक और प्रतिष्ठित साहित्यकार इस सम्मेलन को धन्य कर गये। उन्होंने माफी मांगी कि वह तैयारी करके नहीं आये हैं। तैयारी करके भी आते तो क्या हो जाता। वे अपनी समझ या लोकभाषाओं के प्रति दृष्टिकोण तो नहीं बदलते। राष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिप्राप्त होने के बाद वे कुमाऊनी, गढ़वाली या जौनसारी की वकालत कर अपने को छोटा क्यों करते। बाद में जैसा उन्हें समझ में आया बोले भी। उन्होंने कहा कि हमें कुमाऊनी-गढ़वाली के चक्कर में पडऩे की बजाय एक विश्व भाषा पर बात करनी चाहिए।
लोकभाषा पर आयोजित इस सम्मेलन के ये कुछ फुटकर उदाहरण हैं। इसके अलावा भी बहुत कुछ हुआ। ऐसा होना कोई अनहोनी नहीं है। सरकार इस तरह के आयोजन अपनी उपलब्धियों में शामिल होने के लिए करती है। जो असल सवाल है वह लोकभाषाओं के प्रति हमारे पक्ष का है। उस पक्ष को तय न करने का संकट हम सबके बीच है। कुछ लोगों ने इस सम्मेलन में बहुत तरीके से भाषा के संवर्धन और संरक्षण के सवाल भी उठाये। कुमाऊं विश्वविद्यालय के प्रो. देवसिंह पोखरिया ने जिस सवाल को उठाया, वह लोकभाषाओं-बोलियों के लिए सबसे महत्वपूर्ण है। अस्कोट में वनरावतों के बीच बोली जाने वाली राजी भाषा को बोलने वाले कुल ३५० लोग बचे हैं। यह भाषा एक पूरी संस्कृति की वाहक है। उसका लिखित साहित्य भी नहीं है। इसी तरह लगभग आधा दर्जन बोलियां हैं, जो धीरे-धीरे समाप्त हो रही हैं।
कुमाऊनी, गढ़वाली और जौनसारी के कई शब्द समाप्त हो रहे हैं। इसके पीछे के कारणों और उस लोक को बचाने के बारे में भी सोचना होगा जहां भाषा और संस्कृति पुष्पित-पल्लवित होती है। लोकभाषा के साथ कुछ जुडऩा और छूटना अलग बात है, लेकिन उसे संरक्षित करने की ईमानदार पहल होनी चाहिए। अधिकतर विद्वानों का मानना है कि लोकभाषाओं को पाठ्यक्रम में लागू किया जाना चाहिए। इस तरह की मांग का स्वागत किया जाना चाहिए। जब हम इस तरह की बातें करते हैं तो हमें वस्तुस्थिति से भी अवगत होना चाहिए। मौजूदा समय में उत्तराखण्ड में सरकारी स्कूलों की हालत खस्ताहाल है।
पिछले दिनों सरकार ने छह सौ से अधिक प्राइमरी स्कूलों को बंद किया है। जिन गांवों के इन स्कूलों को छात्रविहीन बताया गया है, वहीं खुले पब्लिक स्कूलों में बच्चों की भारी संख्या है। इन पब्लिक स्कूलों में स्थानीय भाषाओं के लिए कोई स्थान नहीं है, इसलिए लोकभाषा के सवालों पर बात करते समय पुरस्कारों और सरकारी आयोजनों का मोह छोडऩा जरूरी है। मौजूदा सरकार लोकभाषा विरोधी है, जिन लोगों से संघर्ष है, उन्हीं से दोस्ती खतरनाक होती है। लोकभाषा की चिंता करने वाले विद्वान अगर प्रतीकात्मक रूप से भी लोकभाषा विधेयक को वापस लेने वाली सरकार के सम्मान को वापस कर देते तो आधी लड़ाई हम जीत लेते। आखिर हम कौन होते हैं बोलने वाले। बोलेंगे विद्वान, सुनेंगे विद्वान, चिंता करेंगे विद्वान और उन्हें प्रोत्साहन देगी सरकार।
आमीन!
चारु तिवारी
कार्यकारी सम्पादक
जनपक्ष आजकल