आजकल

गैरसैंण राजधानी : जैंता इक दिन त आलु..

अगर
ये सोच जा रहा हैं कि गैरसैंण में कुछ सरकारी कार्यालयों को खोल देने से
. कुछ नई सड़कें बना दिये जाने से, कुछ
क्लास टू अधिकारियों को मार जबरदस्ती गैरसैंण भेज देने से राजधानी के पक्षधर लोग
चुप्पी साध लेंगे। शायद नहीं
….। आज भावातिरेक में यह
भी मान लेना कि उत्तराखण्ड में जनमत गैरसैंण के पक्ष में है। तो शायद यह भी अतिश्‍योक्ति
से ज्यादा कुछ नहीं है। भाजपा ने जब राज्य की सीमायें हरिद्वार
उधमसिंहनगर तक बढ़ाई थीं तो तब ही अलग पहाड़ी राज्य का सपना बिखर
गया था
,
और फिर परिसीमन ने तो मानो खूंन ही निचोड़
दिया। इसके बाद भी गैरसैंण की मांग जारी है। क्यों है न आश्‍चर्य
….
सच यह
भी है कि राज्य का एक बड़ा वर्ग जो शिक्षित है और
, बेहद
चालाक भी
। मगर वह समझबुझकर भी अनजान है कि
अलग राज्य क्यों मांगा गया
?
वह अनजान ही बने रहना भी चाहता है।
क्योंकि यदि वह नौकरीपेशा है तो उसे आरामदायी नौकरी के आसान तरीके मालूम हैं।
व्यवसायी है तो
,
वह सत्तापार्टियों
को
चंदे
का लॉलीपाप दिखाने का हुनर रखता है।
राजनीतिज्ञ है तो
,
जानता है किकितनी बोतलों में उसकी जीत सुनिश्चित होगी।
          दूसरी
ओर कांग्रेस
भाजपा के लिए गैरसैंण में रेल, हवाई
जहाज नहीं जाते। उन्हें वहां भूकम्प के कारण
अमररहने का वरदान निश्फल हो जाने का डर है। राज्य निर्माण के बाद
यहां की
मलाई
की पहली स्वघोषित हकदार यूकेडी आज खुरचन
को भी नहीं छोड़ना चाहती है। ऐसे में सवाल लाजिमी है कि
, गैरसैंण राजधानी फिर किसको चाहिए?
          आज
मुझे याद आ रहा है आन्दोलन का वह दिन जब मैं और मेरे साथी ५ दिसम्बर १९९४ को जेल
भरो के तहत मुनि की रेती से नरेन्द्रनगर के लिए रवाना हुए थे। सड़क के दोनों छोर से
महिला
पुरूष हम पर फूलों की वर्षा करते हुए हमारे साथ जेल की रोटी खायेंगे, उत्तराखण्ड
बनायेंगे

का नारा 
बुलन्द कर रहे थे। जेलभरो के लिए गये कई लोगों में से अधिकांश नरेन्द्रनगर
में रस्म अदायगी के बाद वापस लौटना चाहते थे
, सिवाय
हम ११ लोगों के। इस दौरान नरेन्द्रनगर में कई आम व दिग्गजों ने हमें जेल न जाने
देने का खासा प्रयास किया। यहां तक कि
, कुछ
ने तो शासन
प्रशासन के उत्पीड़न का खौफ दिखाकर भी रोकना चाहा। सब नाकाम रहे।
          यह मैं
इसलिए याद कर रहा हूं
,
क्योंकि आज भी बहुत से लोग हमें राज्य की
आर्थिक स्थिति का डर दिखा रहे हैं। अब भी गुमराह कर रहे हैं कि
, विकास की बात कीजिए। राजधानी से क्या हासिल होगा? यह कोई नहीं बता रहा कि वे किसके विकास का दम भर रहे हैं। क्या
उसमें घेस
बधाण,
नीतीमलारी, त्यूनीचकरौता,
धारचुला, अल्मोड़ा, बागेश्वर, रवाईंजौनपुर,
गंगीगुंजी
आदि का आखिरी आदमी शामिल है
? बिलकुल भी नहीं। लेकिन
उत्तराखण्ड तो इन्होंने और हमने मांगा था। उत्तराखण्ड की मांग हरिद्वार
, उधमसिंहनगर, रुड़की, मंगलौर या अब शामिल होने की चाहत रखने वाले बिजनौर, सहारनपुर ने तो नहीं की थी। तमाम बहसमुबाहिसों को दरकिनार कर एक लाइन में समझा जा सकता कि, उत्तराखण्ड को पहाड़ोंने मांगा था। पहाड़ ने खूंन बहाकर मांगा था। अपने युवाओं का
बलिदान कर मांगा था। इसलिए गैरसैंण भी उन्हें ही चाहिए।
आखिर टालोगे कब तक…?
धनेश कोठारी

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