बोली-भाषा
गढ़वाली भाषा की वृहद शब्द संपदा
उत्तराखंड राज्य के भूभाग गढ़वाल मंडल के प्रशासनिक भू-क्षेत्र की सीमाएं समय-समय पर बढ़ती-घटती रहीं हैं। गढ़वाल से तात्पर्य उस समस्त भू-भाग से है जहां आज गढ़वाली भाषा/ बोली प्रचलन में है अथवा इतिहास के कालखंड में प्रचलन में रही है। गढ़वाली भाषा/ बोली की शब्द- सम्पदा और समृद्धि को निम्नलिखित उदाहरणों के माध्यम से बेहतर समझा जा सकता हैं –
1. गढ़वाली भाषा में अनगिनत क्रियापद हैं।
जिनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं-
हरचण – खोना, गंवाना;
बुजण – बंद होना;
घटण – कम होना;
घैंटण – गाढ़ना;
बाण – हल लगाना;
बुतण – बीज बोना;
बोकण – बोझ उठाना;
जग्वालण – इंतज़ार करना;
ग्वड़ण – कमरे में बंद करना;
तचण – गर्म होना;
खैंडण – मिलाना, घोटना;
बिरौण – अलग करना;
मलासण – सहलाना;
सोरण – झाड़ू लगाना;
लोसण – घसीटते हुए ले जाना;
लुच्छण – जबरदस्ती छीन लेना;
लुकण – छिपना;
संटौंण – परस्पर विनिमय करना;
सनकौण – संकेत करना;
तड़कण – दरार पड़ना;
तड़कौण – किसी कीड़े द्वारा काटना;
बगण – बहना;
खतण – गिराना;
मठाण – मांजना;
हिटण – चलना;
उठण – उठना;
बैठण – बैठना;
लेखण – लिखना;
मिठाण – मिटाना;
रोण – रोना;
हैंसण – हंसना;
बिदकण – बिदकना;
दनकण – दौड़ना;
ठेलण – ठेलना;
बेलण – बेलना;
कटण – काटना;
पिसण – पीसना;
पकौण – पकाना;
उज्यौण – उबालना आदि।
2. गढ़वाली का बहुत-सा शब्द भण्डार वस्तुओं के टकराने, गिरने, रगड़ने, आघात करने आदि ध्वनियों से निर्मित हुआ है। दमडयाट, घमग्याट, छ्मणाट, खमणाट, भिभड़ाट, छिबड़ाट आदि ऐसी ही ध्वनियां हैं।
3. देशज शब्द का प्रयोग गढ़वाली की मुख्य विशेषता है जैसे – खुद, गुठ्यार, गोठ, छमोटु, ठुंगार, डांडा, धुंयाळ, पछिंडी, बिल्कुणु, ब्यखुनी, मौळयार, समलौण, स्वटिगि, स्वाणि, आदि ।
4. गढ़वाली भाषा में नए शब्द-निर्माण की विलक्षण शक्ति है। उदाहरणात :- ‘उच’ से उच्चा (ऊंचा), उचकौण (उकसाना), उचाट (विरक्ति), उच्याण (ऊंचा करना), उचणु (देवता की मनौती के लिए पूर्व में रखी गयी भेंट) आदि।
5. संज्ञा पदों से निर्मित कई धातु पदों में व्यवहारगत सरलता, भाव की चित्रात्मकता और बोधगम्यता की कुछ बानगी द्रष्टव्य है – जैसे ‘सिंग्याणु’ (सींग मारना), ‘धद्याणु’ (ऊंची आवाज देकर बुलाना), चुंगन्याणु (धीरे-धीरे एक-एक कण उठाकर खाना, क्वीनाणु (कोहनी से मारना), आदि अनेक नामधातु क्रियाएं गढ़वाली भाषा को समृद्ध करती हैं।
6. किसी विशिष्ट भाव या वस्तु की परुषता, कोमलता, कर्कशता, गत्यात्मकता, एवं गिरने या टकराने को व्यक्त करने के लिए गढ़वाली में ‘फच्च’, ‘फत्त’, ‘भट्ट’, छुस्स’, ‘छस्स’, ‘ठस्स’, ‘चस्स’, ‘फुस्स’, ‘छराक’, ‘तराक’, ‘छपछपी’, ‘उचमुची’, ‘घचपच’, ‘बबराट’, ‘भभराट’, ‘धकद्याट’ आदि अनेक अर्थपूर्ण शब्द हैं।
7. अनेक संज्ञा शब्दों में ‘आण’ प्रत्यय जोड़कर गंध के परिचायक शब्द बनाए जा सकते हैं जैसे – मछली से मछ्ल्याण, कुकुर से कुकराण, मूत्र से मुताण/चराण, घी से घियाण, दूध से दुधाण, तेल से तेलाण, ज्वर से ज्वराण, बकरियों से बकरयाण, मिटटी से मटाण, धुंए से धुंवाण, मोळ(गोबर) से मोळयाण आदि शब्द गढ़वाली भाषा में सूंघने की प्रवृत्ति के परिचायक हैं।
8. गढ़वाली भाषा में स्पर्श के विभिन्न अनुभवों को व्यक्त करने के लिए भी अलग-अलग शब्द मिलते हैं। जैसे – कड़कुड़ु (सूखा, प्राणहीन), गदगुदु (मोटा और मुलायम), गिंजगिजु (गीला), चिपचिपु (चिपकने वाला), चिफलु (फिसलने वाला) आदि।
9. स्वाद का बोधक करने वाले शब्दों में खट्टु (खट्टा), मिट्ठु (मीठा), लुण्यां (नमकीन), मर्चण्यां (अधिक मिर्च वाला), चटपुटु (चटपटा), घतघुतु (फीका), मळमुळ (बेस्वाद), फक्फुकु (कठिनाई से निगला जाने वाला), कर्च्याणा (जो कच्चा रह जाए) आदि शब्द आते हैं।
10. पर्यायवाची शब्द भाषा की समृद्धि के द्योतक होते हैं।
– किसी सीमित या कम जगह में जबरदस्ती कुछ डालने या घुसाने के लिए पुण्यांण, क्वचण, ठ्वसण, घुसाण, छिराण, धंसाण आदि कई पर्याय क्रियापद हैं।
– खाने के लिए ‘खाण’ के अतिरिक्त कई ऐसे शब्द हैं जो खाने की क्रिया को ही दिखाते हैं जैसे – भकोरण, घुळण, घटकण, घपकौण, सपोड़ण, चुंगन्याण आदि।
– शरारती बालक के व्यवहार और उसकी हरकतों के लिए बिग्ड्यूं/बिगच्यूं, खत्यूं, लड़खु, फुंडु धोळयूं आदि शब्द हैं।
– ज्यादा दिखावा या नाज-नखरे करने पर नखरयाट, छ्कनाट, नकच्याट, खकच्याट, लबड़ाट, चमच्याट आदि शब्द प्रचलन में रहे हैं।
– गुस्से को प्रकट करने के लिए डंगड्याण, चटगाण, घमकाण, भतकाण, चमकाण, लट्ठयाण, आदि शब्द उपलब्ध हैं।
सन्दर्भ :-
1. गढ़वाली भाषा के अनालोचित पक्ष – डॉ. अचलानंद जखमोला
2. उत्तराखण्ड की लोकभाषाएं – गढ़वाली/कुमाऊंनी/जौनसारी – डॉ. अचलानन्द जखमोला
3. गढ़वाली भाषा और उसका लोक-साहित्य – डॉ. जनार्दन प्रसाद काला
4. भारतीय लोक-संस्कृति का सन्दर्भ : मध्य हिमालय – डॉ. गोविन्द चातक
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (28-08-2019) को "गीत बन जाऊँगा" (चर्चा अंक- 3441) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार सर, सूचना एवं मेरे ब्लॉग पोस्ट की चर्चा के लिए। तहेदिल से शुक्रिया।
आपका आभार, इतना ही कह सकता हूं।
bhaut badhiya