गढ़वाली-कविता

ग़ज़ल (गढ़वाली)

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दिनेश
कुकरेती (वरिष्ठ पत्रकार) –
जख
अपणु क्वी नी, वख डांडा आगि कु सार छ भैजी,
जख
सौब अपणा सि छन, वख भि त्यार-म्यार छ भैजी।
बाटा
लग्यान नाता-पाथौं तैं, कुर्चिऽ सौब अपणि रौ मा,
जै
परैं अपण्यास सि लगद, ऊ भि ट्यार-ट्यार छ भैजी।
सच
त ई छ कि सिरफ दिखौ कीऽ, छपल्यास रैगे अब,
भितरी-भितरऽ
जिकुड़्यों मा, सुलग्यूं अंगार छ भैजी।
जौं
तिबरी-डंड्ळयों उसंकद छोड़ी, धार पोर ह्वै ग्यां हम,
सुणदौं
कि अब ऊंकी जगा, सिरफ खंद्वार छ भैजी।
ब्याळ
स्वीणा मा दिख्ये झळ, अर दिख्येंदी हर्चिग्ये।
कन
बिसरुलु वीं तै, जिकुड़ि मा बसिं अन्वार छ भैजी।
खीसा
देखी त, क्वी भि अपणु बणि जांद परदेस मा,
जु
तुम द्यखणा छा मुखिड़ि परैं, झूठी चलक्वार छ भैजी।

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