आधुनिक गढ़वाळी कविता का इतिहास
गढवाली भाषा का प्रारम्भिक काल
गढवाली भाषायी इतिहास अन्वेषण हेतु कोई विशेष प्रयत्न नही हुए हैं, अन्वेषणीय वैज्ञानिक आधारों पर कतिपय प्रयत्न डा गुणा नन्द जुयाल, डा गोविन्द चातक, डा. बिहारीलाल जालंधरी, डा. जयंती प्रसाद नौटियाल ने अवश्य किया। किन्तु तदुपरांत पीएचड़ी करने के पश्चात इन सुधिजनो ने अपनी खोजों का विकास नहीं किया और इनके शोध भी थमे रह गये डा. नन्दकिशोर ढौंडियाल व इनके शिष्यों के कतिपय शोध प्रशंसनीय हैं पर इनके शोध में भी क्रमता का नितांत अभाव है. चूँकि भाषा इतिहास में क्षेत्रीय इतिहास, सामाजिक विश्लेषण, भाषा विज्ञान आदि का अथक ज्ञान व अन्वेषण आवश्यक है।
अतः इस विषय पर वांछनीय अन्वेषण की अभी भी आवश्यकता है. अन्य विद्वानों में श्री बलदेव प्रसाद नौटियाल, संस्कृत विद्वान् धस्माना, भजनसिंह ’सिंह’, अबोधबंधु बहुगुणा, मोहनलाल बाबुलकर, रमा प्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’, भीष्म कुकरेती आदि के गढवाळी भाषा का इतिहास खोज कार्य वैज्ञानिक कम भावनात्मक अधिक हैं। इन विद्वानो के कार्य में क्रमता और वैज्ञनिक सन्दर्भों का अभाव भी मिलता है।
इसके अतिरिक्त सभी विद्वानो के अन्वेषण में समग्रता का अभाव भी है. जैसे डा. चातक और गुणानन्द जुयाल के अन्वेषणों में फोनोलोजी भाषा विज्ञानं है, डा. जालंधरी ने ध्वनियों की खोज की है पर क्षेत्रीय इतिहास के साथ कोई तालमेल नही है. अबोध बन्धु बहुगुणा ने नाथपंथी भाषा साहित्य को आदि गढ़वाली का नाम दिया है। किन्तु यह कथन भी भ्रामक कथन है. नाथपंथी साहित्य में गढ़वाली है, किन्तु नाथपंथी साहित्य संस्कृत के धार्मिक, अध्यात्मिक, कर्मकांडी साहित्य जैसा है जिसे सभी हिन्दू कर्मकांड या अध्यात्मिक अवसरों पर प्रयोग करते हैं. उसी तरह नाथपंथी साहित्य में गढवाली अवश्य है पर यह नितांत गढवाली भाषा नही कहलायी जाएगी।
डा. शिवप्रसाद डबराल ने अपने उत्तराखंड के इतिहास में पुरुषोत्तम सिंह समय वाले शिलालेख, अशोक चल का गोपेश्वर (उत्तरखंड का इतिहास भाग -1 पृष्ठ -97-98), मंकोद्य काव्य, दिल्ली सल्तनत, आदि के सन्दर्भ से सिद्ध किया की गढवाली और कुमाउनी भाषाओँ का उद्भव खश भाषा से हुआ यानि की कुमाउनी और गढवाली भाषाओँ का उद्भव कैंतुरा शासनकाल (650 ई. से पहले), ( कुमाऊं पर कैंतुरा वंशीय शासन था, और गढ़वाल में चौहान/पंवार बंशीय शासन 650 ईसवी से 1947 तक रहा है) में हुआ।
डा. बिहारी लाल जालंधरी (2006 इ.) के गढ़वाली -कुमाउनी भाषाई ध्वनियों के अन्वेषण से भी सिद्ध हुआ है कि कुमाउनी-गढवाली भाषाओं की मा एक ही भाषा थीं . कुमाउनी भाषा लोक साहित्य के संकलनकर्ता भी स्वीकार करते हैं कि गढ़वाली कुमाउनी कि माँ एक ही भाषा रही होगी। चूँकि गढवाली भाषा के अतिरिक्त अभी तक यह सिद्ध नहीं हुआ/अथवा प्रमाण मिले हैं कि पंवार वंशीय या चौहान वंशीय शासनकालों में गढवाळी भाषा के अतिरिक्त कोई अन्य भाषा भी गढ़वाल की जन भाषा थी तो सिद्ध होता है कि गढ़वाल राष्ट्र में खश भाषा समापन के उपरान्त गढवाली भाषा ही गढ़वाल कि जन भाषा थी।
प्रथम ईसवी के करीब खश भाषा गढवाल में बोली जाती रही है और धीरे-धीरे खश भाषा की अवन्नति या क्षरण हुआ। वह खश अपभ्रंश में बदली और धीरे इसने गढ़वाली का रूप लिया और छटी सदी आते-आते खश अपभ्रंश गढ़वाली में बदल चुकी थी। छटी सदी से गढवाल में यद्यपि शासन का चक्र बदलता गया किन्तु चौहान /पंवार वंशीय शासन में नवीं सदी से अठारवीं सदी तक कोई भारी परिवर्तन गढ़वाल में नहीं आया हाँ भारत से प्रवासी गढ़वाल में बसते गये किन्तु उन्होंने गढ़वाली भाषा में कोई आमूल परिवर्तन नहीं किया। बस अपने साथ लाये शब्दों को गढवाली में मिलाते गए होंगे।
निष्कर्ष में कह सकते हैं कि गढवाली भाषा से पहले गढ़वाल में खश अपभ्रंश का बोलबाला था जो कि खश भाषा कि उपज थी या यों कह सकते हैं कि गढ़वाली भाषा की माँ खश भाषा है और छटी सदी से लेकर ब्रिटिश काल के प्रारम्भ होने तक गढ़वाल राष्ट्र में एक ही जन भाषा थी और वह थी गढवाली भाषा। और यदि खश अपभ्रंश को गढवाली भाषा माने तो गढवाल देश में गढवाली भाषा प्रथम सदी से विद्यमान रही है।
@Bhishma Kukreti
बहुत अच्छी प्रस्तुति .
श्री दुर्गाष्टमी की बधाई !!!