हिन्दी-कविता
मैं, इंतजार में हूं
मैं, समझ गया हूं
तुम भी, समझ चुके हो शायद
मगर, एक तीसरा आदमी है
जो, चौथे और पांचवे के –
बहकावे में आ गया है
खुली आंखों से भी
नहीं देखना चाहता ‘सच’
मैं और तुम विरोधी हैं उसके
कारण, हम नहीं सोचते उसकी तरह
न, वह हमारी तरह सोचता है
रिक्त शब्द भरो की तरह
हम खाली ‘आकाश’ भरें, भी तो कैसे
सवाल कैनवास को रंगना भर भी नहीं
पुराने चित्र पर जमीं धूल की परतें
खुरचेंगे, तो तस्वीर के भद्दा होने का डर है
मैं, इंतजार में हूं
एक दिन हिनहिनाएगा जरुर
और धूल उतर जाएगी उसकी
काश…
हमारा इंतजार जल्दी खत्म हो जाए
रात गहराने से पहले ही……
सर्वाधिकार- धनेश कोठारी
बहुत सुन्दर….