व्यंग्यलोक

काश लालबत्तियां भगवा होती (व्यंग्य)

बसंत के मौल्यार से पहले जब मैं ‘दायित्वधारी‘ जी से मिला था तो बेहद आशान्वित से दमक रहे थे। भरी दोपहरी में चाय की चुस्कियों के साथ डेलीवार्ता की शुरुआत में ही उस दिन ‘श्रीमन् जी‘ ने अपने भविष्य को इमेजिन करना शुरु किया। ‘नास्त्रेदमस‘ के अंदाज में कहने लगे। जब नये साल में धरती पर बसंत दस्तक दे रहा होगा, ठिठुरते दिन गुनगुनी धूप को ताक रहे होंगे तो दलगत नीति के तहत दिशाहीनता के बोध के साथ पसरेगा अंधेरा…….. और कारों के क्राउन एरिया में ‘लालबत्तियां’ उदीप्त हो सायरन की हूटिंग के साथ सड़कों पर दौड़ने लगेंगी। वे इस सेल्फमेड डार्कनेस में हमारे भीतर के अंधकार को प्रकाशित करेंगी। नेकर की जगह शेरवानी पहने का मौका आयेगा और ज्योतिर्मय होगा, बंद गिरेबां। तमसो मा…… की भांति। लालबत्तियां मात्र प्रकाश स्तम्भ नहीं बल्कि भविष्य हैं। इसी के संदीपन में प्रगति का ककहरा पढ़ा व गढ़ा जा सकता है।

निश्चित ही उनकी इस ‘लालबत्ती‘ रूपी आशा के कई कारण थे। कि, अब तक छप्पन बसंत उन्होंने नेकर की पनाह में रहते हुए निष्ठा के साथ गुजारे। वह सब अंजाम दिया जो चातुर नेता होने के लिए जरुरी थे। उन्हें मालूम था कहां, कब, क्यों, कैसे गुलाटी मारी जाती है। जब जरूरत हुई तो लंगोट, कट्टा या फिर इमोशन, सभी कुछ यूज किया। यह भी कि कब कहां दंगे की जरूरत है और कहां मुर्तियों को दुध पिलाने की। यानि सभी दायित्वों को ‘श्रीमन्‘ ने बखूबी निभाया। सो इस चातुर नेता का लालबत्ती के लिए आतुर होना स्वाभाविक था। अगर उनके गुणों के फ्लैशबैक में देखें तो दरी उठाने से झण्डे लगाने का स्वर्णिम अतीत (जो अब वक्त के दरियाफ्त दरी खींचने से लेकर झण्डे गाड़ने तक में माहिर हो चुका) रहा है।

खैर, मैंने डेलीवार्ता की इस उदित दोपहरी में चुटकी ली। क्या आपको नहीं लगता कि इन स्वप्निल बत्तियों का रंग लाल की जगह कुछ और होता तो……। यू मीन…….भगवा। ‘भगवा‘ का उच्चारण मुझसे पहले ही उन्होंने कर डाला। मैंने कहा, क्योंकि लाल तो आपका अपोजिट कलर है और जमाना मैचिंग का है। मैंने जैसे ‘म्वारों‘ के छत्तो में पत्थर मार दिया था। श्रीमन् के नथुने फूल लगे, एकदम रोष में आ गये। ये सब ‘लेफ्ट‘ सोच का किया धरा है। इन्होंने कभी नहीं चाहा कि दुनिया ‘राइट‘ चले। फिर थोड़ा संयत हो बोले, अब लोगों के दिलों में इसी की धौंस है तो समझौता करना ही पड़ेगा। सोचो, दिल का रंग भी लाल है तो क्या निकाल फेंका ‘मुंछवालों‘ ने। लेकिन मेरा दावा है कि ‘इन फ्यूचर‘ बत्तियों का रंग ‘भगवा‘ होगा। आप भी दुआ कीजिए।

आज जब मैं अधिसंख्य लोगों के साथ उनके पैतृक पट्ठाल वाले घर की बजाय आलीशान काटेज में बुकेनुमा बधाई देने के लिए पहुंचा तो, मैं भी उनके अतीत से निकलकर वर्तमान से बेहद आशान्वित था। लेकिन ये क्या वे तो चेहरे पर ‘बेबत्ती दायित्व‘ की उदासी में बार-बार मुस्कराहट लाने की कोशिश कर रहे थे और साफ लग रहा था कि वे ‘ओवर रिएक्ट‘ कर रहे हैं। क्योंकि उन्होंने ह्यूंद के दिनों में ‘बाबत्ती दायित्व‘ को इमेजिन जो किया था। ‘दायित्वधारी‘ हो चुकने के और तप के प्रतिफल की प्राप्ति के बाद भी उनके चेहरे पर यह ए.के.हंगल जैसे भाव क्यों हैं। मैं समझ नहीं पाया।

इसी खिन्नता के साथ बधाईयों के परकोटे से निकल दायित्वधारी जी एकान्तिक वातावरण की तरफ कैकयी स्टाईल में प्रविष्ट हुए तो, मैं भी दशरथी भाव ओढ़कर उनके ‘कोपभवन‘ में पहुंचा। मैंने कहा, ‘प्रिये‘ आज उल्लास और उमंग का अवसर आया है (प्रिये के संबोधन को अन्यथा न लें। क्योंकि वे अब तक पुरुष ही हैं) और तुम्हारा ‘इमेजिनेशन‘ हकीकत बन चुका है। फिर……। मेरे वाक्य से पूर्व ही बिफर पड़े बोले, जानते हो दायित्व का अर्थ ? कितना भारी है यह एक शब्द। गधे से ‘वजन‘ पुछोगे तो क्या बता पायेगा। बस लाद दिया। आखिर ढोना तो हमें ही है। मैं जानता हूं वजन………। दरियां उठाई हैं मैंने। ऊपर से ‘सायरन‘ भी नहीं। तुम्हें मालूम है न मेरा ख्वाब। मुझे लगा कि वे ‘तारे जमीं पर‘ के स्टाईल में दोहरा रहे हैं। तुझको पता है न………..। लालबत्तियों में उदीप्त, सायरन बजाता, सड़कों पर दौड़ता रौब गालिब करता भविष्य। और अब देख रहे हो लालकालीन तो दूर दफ्तर में कोई कुर्सी नहीं छोड़ता। प्रमाणपत्र चाहिए कि मैं दायित्वधारी हूं। जबकि पहले सायरन की आवाज से ही उनके नितम्ब कांपने लगते थे। फिर, ये दायित्व किस काम का।

माना कि लाल से परहेज था। माना कि हम इसी मुद्दे पर यहां तक पहुंचे। माना कि लालबत्तियां बदनाम बहुत हैं। तो क्या बत्ती बुझाने के बजाय बत्ती का रंग बदल ‘भगवा‘ नहीं किया जा सकता था। मैं ‘दायित्वधारी जी‘ की उदासी को समझ रहा था। कहने लगे, दायित्व जैसे भारी भरकम शब्द को गड़ने पहले सोचना था कि हमारे कंधे कितने बोझ उठा सकते हैं। हम कौन से रिटायर हैं कि दायित्व का पीट्ठू लगाया और लगा डाले चार चक्कर लेफ्ट राइट।

उनके अंदर के गहराते इस दुःख से मैं भी संवेदना के स्तर पर गंभीर हो गया। हालांकि भाषण उन्हीं का जारी था। भई! जो अतीत में ढोया अगर वही वर्तमान में भी ढोया जाय तो क्या मानें प्रगति हुई या पैंडुलम की तरह एक ही धुर्रे पर लेफ्ट-राइट करते रहे। ‘प्राण जाय पर बचन न जाय‘ की इस परिणति पर फफक पड़े वे। जब दिल ही टुट गया हम जी के……। सही वक्त भांपकर मैंने उनके अंदर के हवन कुंड में घी की एक और आहूति दे डाली कि, यह तो सम्मान को …….।

बात उन्होंने ही आगे बढ़ायी। निश्चित ही जिस भविष्य की कल्पना हमने की थी। उस जैसा स्टेटस् दायित्वबोधता में नहीं है। लेकिन यह खुदा न सही खुदा से कम भी नहीं है। उर्वरकता और संभावनायें ‘दायित्व‘ की ओट में भी कम नहीं हैं। परसन्टेज यहां से भी अच्छा निकल सकता है। लेकिन ‘बेबत्ती‘ होकर ‘संभावनाओं‘ को दुहना सम्मानजनक कार्यप्रणाली तो नहीं मानी जा सकती। दायित्वधारी जी की स्थिति देख मैं विलाप के इन क्षणों में उस ‘मंथरा‘ को कोस रहा था जिसने लालबत्तियों के वरदान को पलटकर रख दिया और दायित्वधारी जी की आशाओं के प्रकाशित होने के साथ ही मेरी तमन्नाओं को भी उजाले के लिए तरसा दिया है।

@Dhanesh Kothari

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