महा क्रांति आमंत्रित कर (हिन्दी कविता)
सने धवल प्रासाद खड़े।
तेरी जीवन से ही निर्मित,
तेरी छाती पर किन्तु अड़े
इनको करके दृढ़ से दृढ़तर,
तू स्वयं बना कृश से कृशतर।
नर कहूं तूझे।
तेरे विनाश के नित नूतन
षडयंत्रों के मंत्रणागार।
तेरी ही शोषण का इनमें,
होता है क्षण-क्षण पर विचार।
तेरी करुणा, तेरे कुन्दन,
ठुकराए जाते हँस हँस कर
कर महा क्रान्ति आमंत्रित कर
नर कहूं तुझे।
अपना जीवन यौवन देकर,
अपना प्यारा तन-मन देकर,
कुछ, चांदी के टुकड़ों पर ही –
अपने जीवन को खो, खोकर,
तूने ही इनको खड़ा किया,
तेरे गवाह ईटें पत्थर।
कर महा क्रांन्ति आमंत्रित कर
नर कहूं तुझे।
अपना सब कुछ खोकर जीना
यह ग्लानि-गरल पीना, पीना।
कैसे सह लेता है सीना ?
यह भी कुछ मानव का जीना।
थोड़ी ही हिम्मत कर उठ जा!
उठकर कह दे जय प्रलयंकर।
कर महा क्रान्ति आमंत्रित कर
नर कहूं तुझे।
पृथ्वी काँपे आकाश हिले,
तारे नभ के कुछ, थर्राये।
अत्याचारी जग के प्रहरी –
ये सूर्य चन्द्र कुछ घबरावें।
ऐसी हो क्रान्ति विशाल विपलु।
काँपे हिमनग थर-थर-थर-थर।
कर महा क्रान्ति कर
नर कहूं तुझे।
सब कुछ, समाप्त करने वाला-
प्रलयंकर नृत्य भयंकर हो।
उस सर्वनाश की ज्वाला में –
जलता सब अशिव अशंकर हो।
ओ रे! शोषित! ओ रे! पीड़ित!
गा क्रान्ति गीत! पंचम स्वर भर।
कर महा क्रान्ति आमंत्रित कर,
नर कहूं तुझे।
बहुत सुन्दर और मार्मिक