क्या नपुंसकों की फ़ौज गढ़वाली साहित्य रच रही है ?
जो जीवविज्ञान की थोड़ी बहुत जानकारी रखते हैं वे जानते हैं कि, जीव-जंतुओं में पुरुष कि भूमिका एकांस ही होती है, और वास्तव में पुरुष सभी बनस्पतियों, जानवरों व मनुष्यों में नपुंसक के निकटतम होता है। एक पुरुष व सोलह हजार स्त्रियों से मानव सभ्यता आगे बढ़ सकती है। किन्तु दस स्त्रियाँ व हजार पुरुष से मानव सभ्यता आगे नहीं बढ़ सकती है। पुरुष वास्तव में नपुंसक ही होता है, और यही कारण है कि, उसने अपनी नपुंसकता छुपाने हेतु अहम का सहारा लिया और देश, धर्म(पंथ), जातीय, रंगों, प्रान्त, जिला, भाषाई रेखाओं से मनुष्य को बाँट दिया है। यदि हम आधुनिक गढ़वाली साहित्य कि बात करें तो पायेंगे कि आधुनिक साहित्य गढ़वाली समाज को किंचित भी प्रभावित नहीं कर पाया है। गढ़वालियों को आधुनिक साहित्य की आवश्यकता ही नहीं पड़ रही है। तो इसका एक मुख्य करण साहित्यकार ही है।
जो ऐसा साहित्य सर्जन ही नहीं कर पाया की गढ़वाल में बसने वाले और प्रवासी गढ़वाली उस साहित्य को पढने को मजबूर हो जाय। वास्तव में यदि हम मूल में जाएँ तो पाएंगे कि गढवाली साहित्य रचनाकारों ने पौरुषीय रचनायें पाठकों को दी और पौरुषीय रचना हमेशा ही नपुंसकता के निकट ही होती है। एक उदारहण ले लीजिये कि जब गढ़वाल में “ए ज्योरू मीन दिल्ली जाण” जैसा लोकगीत जनमानस में बैठ रहा था। तो हमारे गढ़वाली भाषा के साहित्यकार पलायन कि विभीषिका का रोना रो रहे थे। “ए ज्योरू मीन दिल्ली जाण” का रचनाकार स्त्री या शिल्पकार थे। जोकि जनमानस को समझते थे। किन्तु उस समय के गढवाली साहित्यकार उलटी गंगा बहा रहे थे।
स्व. कन्हैयालाल डंडरियाल जी को महाकवि का दर्जा दिया गया है। यदि उनके साहित्य को ठीक से पढ़ा जाय तो पाएंगे कि जिस साहित्य कि रचना उन्होंने स्त्रेन्य अंतर्मन से लिखा वह कालजयी है। किन्तु जो डंडरियाल जी ने पौरुषीय अंतर्मन से लिखा वह कालजय नहीं है। तुलसीदास, सूरदास को यदि सामान्य जन पढ़ता है या गुनता है तो उसका मुख्य कारण है कि उन्होंने स्त्रेन्य अंतर्मन से साहित्य रचा। बलदेव प्रसाद शर्मा ’दीन’ जी क़ी “रामी बौराणी” या जीतसिंह नेगी जी कि “तू होली बीरा” गीतों का आज लोकगीतों में सुमार होता है तो उसका एकमेव कारण है कि, ये गीत स्त्रेन्य अंतर्मन से लिखे गए हैं।
नरेन्द्र सिंह नेगी के वही गीत प्रसिद्ध हुए जिन्हें उन्होंने स्त्रेन्य अंतर्मन से रचा। जो भी गीत नेगी ने पौरुषीय अंतर्मन से रचे /गाये वे कम प्रसिद्ध हुए। उसका मुख्य कारण है कि, पौरुषीय अंतर्मन नपुन्सकीय ही होता है। जहाँ अभिमान आ जाता है वह पौरुषीय नहीं नपुंसकीय ही होता है। जहाँ गढ़वाल में “मैकू पाड़ नि दीण पिताजी” जैसे लोकगीत स्त्रियाँ या शिल्पकार रच रहे थे। वहीं हमारे साहित्यकार अहम के वशीभूत पहाड़ प्रेम आदि के गीत/कविता रच रहे थे। स्त्री अन्तर्मन से न रची जाने वाल़ी रचनायें जनमानस को उद्वेलित कर ही नहीं सकती हैं।
गढ़वाली में दसियों महिला साहित्यकार हुए हैं। किन्तु उन्होंने भी पौरुषीय अंतर्मन से गढ़वाली में रचनाये रचीं और वे भी गढ़वाली जनमानस को उद्वेलित कर पाने सर्वथा विफल रही हैं। मेरा मानना है कि जब तक आधुनिक गढ़वाली साहित्य लोक साहित्य को जनमानस से दूर करने में सफल नहीं होगा तब तक यह साहित्य पढ़ा ही नहीं जाएगा। इसके लिए रचनाकारों में स्त्री/ हरिजन/ शिल्पकार अंतर्मन होना आवश्यक है। न कि पौरुषीय अंतर्मन या नपुंसकीय अंतर्मन। स्त्रीय/ हरिजन/ शिल्पकार अंतर्मन जनमानस की सही भावनाओं को पहचानने में पूरा कामयाब होता है। किन्तु पौरुषीय अंतर्मन (जो कि वास्तव में नपुंसक ही होता है) जनमानस की भावनाओं को पहचानना तो दूर जन भावनाओं कि अवहेलना ही करता है।
जब कोई भी किसी भी प्रकार की रचना स्त्रेन्य अंतर्मन से रची जाय वह रचना पाठकों में ऊर्जा संप्रेषण करने में सफल होती है। वह रचना संभावनाओं को जन्म देती है। अतः गढ़वाली साहित्यकारों को चाहिए की अपनी स्त्रेन्य/ शिल्पकारी/ हरिजनी अंतर्मन की तलाश करें और उसी अंतर्मन से रचना रचें। हमारे गढ़वाली साहित्यकारों को ध्यान देना चाहिए कि सैकड़ों सालों से पंडित श्लोको से पूजा करते आये हैं और जनमानस इस साहित्य से किंचित भी प्रभावित नहीं हुआ। किन्तु शिल्पकारों/ हरिजनों/ दासों/ बादी/ ड़ळयों (जो बिट्ट नहीं थे) क़ी रचनाओं को जनमानस सहज ही अपनाता आया है। उसका एक ही कारण है, पंडिताई साहित्य पौरुषीय साहित्य है। किन्तु शिल्पकारों/ बादियों/ ड़लयों/ दासों का साहित्य स्त्रेन्य अंतर्मन से रचा गया है।
- भीष्म कुकरेती