नजरिया
सिर्फ ‘निजाम’ दर ‘निजाम’ बदलने को बना उत्तराखंड?
धनेश कोठारी/
युवा उत्तराखंड के सामने साढे़ 17 बरस बाद भी चुनौतियां अपनी जगह हैं। स्थापना के दिन से ही राज्य के मसले राजनीति की विसात पर मोहरों से अधिक नहीं हैं। राज्य के स्वर्णिम भविष्य के दावों के बावजूद अब तक कारगर व्यवस्थाओं के लिए किसी तरह की नीति अस्तित्व में नहीं है। बात मूलभूत सुविधाओं बिजली, पानी, सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा या संस्कृति, खेल, फिल्म, पर्यटन, भूमि क्रय-विक्रय, खनन, आबकारी, उद्योग, स्थानान्तरण, रोजगार, पलायन और स्थायी राजधानी आदि पर किसी तरह का ‘खाका’ सरकार के पास होगा, उम्मीद नहीं जगती। अब तक राज्य में जो घोटाले चर्चाओं में रहे उनपर क्या कार्रवाई हुई, कौन दोषी था, किसे जेल हुई, यह सब भी आरोपों- प्रत्यारोपों तक ही सीमित दिखता है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ने की बात के बाद भी ‘लोकायुक्त’ के वजूद में आने का इंतजार ही है।
इसबीच यदि कुछ खास हुआ है, तो वह यह कि इस छोटे से अंतराल में उत्तराखंड में चार बार सत्ता का हस्तांतरण हुआ ओर नौ बार आठ मुखिया जरूर गद्दीनसीन हुए हैं। लेकिन चेहरों की अदला-बदली के बावजूद कार्यशैली में बदलाव आता नहीं दिखा। सिहांसन पर जिसने भी एंट्री ली राज्यवासियों के दर्द से दूर ही रहा। हां पूर्ववर्ती सरकारों के फैसलों को बदलने, अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को गढ़ने और वोट बैंक को साधने के लिए किसी ने कोई कसर नहीं छोड़ी। सरकारें
अपनी बतौर बड़ी उपलब्धि यह तो बताती हैं कि राज्य में प्रति व्यक्ति आय गुजरात से भी अधिक एक लाख 60 हजार हो चुकी है। लेकिन कोई यह नहीं बताता कि इस अरसे में राज्य पर कर्ज बढ़कर 50 हजार करोड़ से अधिक हो गया है। तब भी आर्थिक मजबूती के लिए कोई ठोस प्लान राज्य के पास नहीं।
अपनी बतौर बड़ी उपलब्धि यह तो बताती हैं कि राज्य में प्रति व्यक्ति आय गुजरात से भी अधिक एक लाख 60 हजार हो चुकी है। लेकिन कोई यह नहीं बताता कि इस अरसे में राज्य पर कर्ज बढ़कर 50 हजार करोड़ से अधिक हो गया है। तब भी आर्थिक मजबूती के लिए कोई ठोस प्लान राज्य के पास नहीं।
आलम यह है कि कर्मचारियो के वेतन, भत्तों और एरियर देने के लिए सरकार को बाजार से कर्ज पर कर्ज उठाना पड़ रहा है। जो कि 4000 करोड़ से आगे पहुंच चुका है। दूसरी तरफ सरकारी महकमों में हजारों रिक्त पदों के बाद भी प्रदेश में बेरोजगारों की तादाद 10 लाख का आंकड़ा पार कर चुकी है। आपदा से तहसनहस केदारनाथ धाम तो संवर गया, किंतु केदार घाटी के प्रभावित गांवों में जीवन अब भी आपदा के घावों से कराह ही रहा है। राज्य की स्थायी राजधानी का मसला अब भी अधर में है।
सवाल यहीं नहीं ठहरते, बल्कि आवाज देते हैं कि राज्य आंदोलन के दौरान मुजफ्फरनगर कांड के दोषियों को कब और कौन सजा दिलाएगा, यूपी के साथ परिसंपत्तियां का बंटवारा ईमानदारी से कब तक पूरा होगा, पलायन पर किस तरह से रोक लगेगी, भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए लोकायुक्त कब वजूद में आएगा, जीरो टॉलरेंस की बात नारों से निकल कर हकीकत में बदलेगी, घोटालों के दोषी कब तक सींखचों के भीतर होंगे, विजन डॉक्यूमेंट के मुद्दे जमीन पर कब तक अवतिरत होंगे या विजन भर ही रहेंगे। या फिर सब पर अंधेरा ही कायम दिखता रहेगा !!