नजरिया

गैरसैंण से ऐसी ‘दिल्लगी’ ठीक नहीं

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जब नेता
‘बहरूपिये’, अफसर ‘मौकापरस्त’ और जनता ‘मूर्ख’ हो जाए तो राजधानी के सवाल का स्थायी
हल मिलना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन है। गैरसैंण (Gairsain) के मुद्दे पर हालात
यही हैं। सरकारों की गैरसैंण से ‘दिल्लगी’ आज उन प्रवासियों की तरह है, जिनके लिए उनका
गांव सिर्फ गर्मियों की चंद छुट्टियां बिताने या फिर देवी देवताओं की पूजा में शामिल
होने भर के लिए है। सरकारें चाहती तो गैरसैंण भी आंध्राप्रदेश के अमरावती की तरह स्थायी
राजधानी घोषित हो चुकी होती, लेकिन यहां सरकारों ने यह चाहा ही नहीं। अब तो प्रचंड
बहुमत की सरकार भी गैरसैंण में ‘आग ताप’ कर ‘हाथ झाड़कर’ लौट आयी है।
हां, अब
एक बात जरूर साफ है कि कांग्रेस और भाजपा की सरकारें तो गैरसैंण (Gairsain) को स्थायी
राजधानी न कभी बनायेंगी और न बनने देंगी। जो माहौल पिछली हरीश सरकार ने तैयार किया
मौजूदा त्रिवेंद्र सरकार भी उसी को आगे बढ़ा रही है। देखा जाए तो अब यह हर सरकार की
मजबूरी भी है। लेकिन आने वाले समय में हद से हद कुछ अधिक हुआ भी, तो गैरसैंण सिर्फ
ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित कर दी जाएगी। तय मानिये गैरसैंण ग्रीष्मकालीन राजधानी होने
का मतलब है उत्तराखंड की भविष्य की संभावनाओं का दम तोड़ना, पहाड़ की राजधानी पहाड़ में
होने के सपने का टूटना। ग्रीष्मकालीन राजधानी की घोषणा के बाद उत्तराखंड की स्थायी
राजधानी गैरसैंण होने का तो सवाल ही नहीं उठता, यह प्रस्ताव तो गैरसैंण को राजधानी
बनाने से टालने की बड़ी कोशिश है। सच यह है कि आज जो हालात राज्य के हैं, उसमें हर समस्या
का एकमात्र समाधान सिर्फ और सिर्फ स्थायी राजधानी गैरसैंण ही है।
पहाड़ की
राजधानी पहाड़ में पहुंचाकर ही इस प्रदेश को बचा पाना संभव है, वरना देहरादून में बैठकर
इस प्रदेश को राजनेता, नौकरशाह और सत्ता के बिचौलिए ‘खोखला’ कर चुके हैं। यह गठजोड़
किसी कीमत पर नहीं चाहता कि गैरसैंण स्थायी राजधानी बने। दुर्भाग्य यह है कि नेता
‘बहरूपिये’ हैं, जब सरकार में होते हैं तो ग्रीष्मकालीन राजधानी का ‘झुनझुना’ बजाते
हैं और जब विपक्ष में होते हैं तो तब गैरसैंण को स्थायी राजधानी घोषित करने की बात
करते हैं। विपक्ष में होते हैं तो गैरसैंण को राजधानी घोषित करने का प्रस्ताव लाते
हैं। वही नेता जब सरकार में आते हैं तो पार्टी के घोषणापत्र का राग अलापते हैं या मुंह
में ‘दही’ जमाकर बैठे होते हैं। कुछ तो इतने शातिर हैं कि कैमरे के आगे गैरसैंण को
जनभावनाओं का प्रतीक बताते हैं, जनभावनाओं के सम्मान की बात करते हैं और अपनी सियासी
जमीन पर गैरसैंण का विरोध करते हैं।
सार्वजनिक
मंचों पर पहाड़ की राजधानी पहाड़ में होने की जरूरत बताते हैं और बंद कमरों की बैठकों
में इस फैसले के सियासी नफा नुकसान गिनाते हैं। राज्य के भाग्यविधाता अफसरों का तो
कहना ही क्या, वह तो इसी में सिद्धहस्त हैं कि कैसे असल ‘मुद्दे’ को ‘हवा’ किया जाए।
गैरसैंण के मुद्दे पर नेता एक बार के लिए ‘जनभावना’ के आगे घुटने टेक भी लें, लेकिन
नौकरशाह किसी हाल में इसके लिए तैयार नहीं और जब उन पर कसी ‘राजनैतिक लगाम’ कमजोर हो
तो फिर तो कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती। यह भी कैसे भूला जा सकता है कि जो ‘झुनझुना’
आज सरकारें बजा रही है, असल में तो वह भी नौकरशाहों का ही थमाया हुआ है। उन्हें नहीं
फर्क पड़ता कि प्रदेश पांच हजार करोड़ के कर्ज में हैं, उन्हें यह भी चिंता नहीं कि अदना
सा राज्य दो-दो राजधानियों का बोझ कैसे झेलेगा।
उन्हें
नहीं है यह फिक्र कि इसमें पैसे की और समय की कितनी बर्बादी होगी। उन्हें इससे भी कोई
सरोकार नहीं है कि गैरसैंण राजधानी बनने से ही राज्य की मूल अवधारणा साकार होगी। नौकरशाही
का नजरिया बिल्कुल अलग है, उनके लिए तो दो राजधानी बनने के बाद ‘खेलने’ की नई संभावनाएं
जन्म लेंगी। उनकी ‘पूछ’ और सिस्टम की उन पर निर्भरता और बढ़ेगी। अब रहा सवाल जनता का
तो बकौल मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने गैरसैंण में शीतकालीन सत्र आयोजित
कर बहुत बड़ा काम किया है, चौतरफा इसकी प्रशंसा हो रही है। मुख्यमंत्री की यह बात अगर
सच है तो फिर जनता तो मूर्ख है? वाकई जनता ‘मूर्ख’ न होती तो ग्रीष्मकालीन राजधानी
के प्रस्ताव पर यूं चुप बैठती। सच्चाई यह है कि मुख्यमंत्री गैरसैंण  के मसले पर जिस ‘इंतजार’ की बात कर रहे हैं, वह
इंतजार जनता के ‘रुख’ का ही है।
जहां तक
गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने का सवाल है तो यह काम तो हरीश सरकार ही कर चुकी
होती, लेकिन हरीश सरकार जनता के ‘रुख’ को लेकर आशंकित रही। उस वक्त भाजपा ने भी इसका
विरोध किया, लेकिन अब नई सरकार इसी के लिए माहौल तैयार कर रही है। यानि साफ है कि यह
सरकार गैरसैंण के मुद्दे पर ‘माइंड गेम’ खेल रही है। कहीं ऐसा न हो कि आम जनता की समझ
में जब तक यह खेल आए, तब तक बहुत देर हो चुकी हो। यह सही है कि गैरसैंण को नजरअंदाज
करना अब किसी सरकार के बूते की बात नहीं, लेकिन अगर सरकार अपने मंसूबों में कामयाब
हुई तो गैरसैंण हमेशा के लिए एक ‘अधूरी कहानी’ बन जाएगा।
बहरहाल
सरकारों की ‘दिल्लगी’ के बाद अब गैरसैंण की गेंद जनता के पाले में है। समय की मांग
भी है कि अब राज्य की ‘नई’ शुरुआत गैरसैंण राजधानी के नाम से शुरू की जाए। उत्तराखंड
में अगर विकास की इबारत लिखी जा रही है तो ऑल वेदर रोड और ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेललाइन
के साथ साथ गैरसैंण राज्य की स्थायी राजधानी क्यों नहीं हो सकती? यह संभव है, बशर्ते
जनभावनाएं हों और उन्हें पूरा करने की मजबूत राजनैतिक इच्छाशक्ति हो।
आलेख – योगेश भट्ट

(वरिष्ठ पत्रकार)

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