संस्कृति

सिल्‍वर स्‍क्रीन पर उभरीं अवैध खनन की परतें

फिल्म समीक्षा
गढ़वाली फीचर फिल्म

उत्तराखंड में अवैध खनन
सिर्फ राजनीतिक मुद्दा भर नहीं है। बल्कि, यह पहाड़ों,
नदियों, गाड-गदेरों की नैसर्गिक संरचना
और परिस्थितिकीय तंत्र में बदलाव की चिंताओं का विषय भी है। लिहाजा
, ऐसे मुद्दे को व्यापक रिसर्च के बिना ही रूपहले फिल्मी परदे पर उतारना आसान नहीं।
हालिया रिलीज गढ़वाली फीचर फिल्म
भुली ऐ भुलीके साथ ही यही हुआ है।
बहन के प्रति भाई का भावुक प्रेम और नेता-माफियातंत्र में
जकड़ा अवैध खनन फिल्म की कहानी के दो छोर हैं। रियल ग्राउंड पर स्वामी निगमानंद, स्वामी शिवानंद और मलेथा की महिलाओं के आंदोलन के बतर्ज नायक इंस्पेक्टर सूरज
माफिया से अपने हिस्से की जंग लड़ता है, और जीतता भी है। मगर,
तब भी फिल्म खननका दंश झेलते इस राज्य के सच को फौरी चर्चासे आगे नहीं बढ़ा पाती है।
वैष्णवी मोशन पिक्चर्स के बैनर पर बतौर
निर्माता ज्योति एन खन्ना की पहली आंचलिक फिल्म
भुली ऐ भुली
में खनन के विस्फोट में मां-बाप को खोने के बाद सौतेली बहन चंदा
(प्रियंका रावत) की जिम्मेदारी सूरज (बलदेव राणा) के कंधों पर आ जाती है। जिससे वह
अगाध प्रेम करता है। उनके बीच प्रेम के इस धागे को सूरज की पत्नी सुषमा (गीता उनियाल)
भी मजबूत रखती है। वहीं
,
सूरज अपने प्रेरणा पुरुष सकलानी (राकेश गौड़) की सलाह पर मेहनत
और लगन के बूते पुलिस इंस्पेक्टर बनकर
अवैध खननको खत्म करने का संकल्प भी लेता है। नतीजा, खनन माफिया कृपाराम
(रमेश रावत) की तकलीफें बढ़ जाती हैं।

और फिर चलता है दोनों के बीच शह-मात का खेल। कृपाराम सूरज पर
नकेल कसने के लिए
मंत्री
के साथ अपने भांजे जसबीर (अतुल रावत) का सहारा लेता है। कृपाराम
के षडयंत्र से जसबीर और चंदा आपस में एक दूजे के तो हो जाते हैं
, लेकिन यह राज ज्यादा दिन नहीं छुपता। खनन के खेल और कृपाराम से जसबीर के संबंध, भाई (सूरज) पर आत्मघाती हमले की क्लिप उसके दिमागी संतुलन को बिगाड़ देते है। चंदा
(भुली) की कुशलता के लिए सूरज सब उपाय करता है। असलियत सामने आने पर वह कृपाराम के
विरूद्ध आखिरी मोर्चा खोलता है
, और इस जीत के बाद भाई-भुली
के संसार में एकबार फिर से खुशियां लौट आती हैं।
निर्देशक नरेश खन्ना ने ही भुली ऐ भुली
की कथा-पटकथा भी लिखी है। जिसपर काफी हद तक रूटीन हिंदी फिल्मों
की छाप दिखती है।
रीमेक
जैसे स्क्रीनप्ले में अवैध खननका ज्वलंत मसला गंभीर विमर्श की बजाय माफिया कृपाराम के हरम में नाचने वाली के ठुमके
तक सिमटा सा लगता है। फाइट सीन्स में सह कलाकारों के चेहरे पर
हंसी
फिल्मांकन की कमियों को उजागर करती हैं। गणेश वीरान
के लिखे संवाद भी फीके से लगते हैं।
आंचलिक फिल्मों में बतौर खलनायक चर्चित
अभिनेता बलदेव राणा फिल्म
चक्रचाल
के बाद एकबार फिर भुली ऐ भुलीमें नायक
बनें हैं। पुलिस इंस्पेक्टर का गेटअप उनपर खूब फबता है। मगर, कई जगह उनके अभिनय पर खलनायक
ही हावी दिखता है। अपनी पहली ही फीचर फिल्म में रमेश रावत विलेन
के किरदार में दमदार रहे हैं। वह पूरी फिल्म पर हावी दिखते हैं। प्रियंका रावत का चुलबुलापन
और बच्चों संग मस्ती अच्छी लगती है। गीता उनियाल
, राजेश यादव,
राकेश गौड़ ने भी खुद को साबित किया है। बच्चों के किरदारों में
बाल कलाकार उम्मीदें जगाते हैं। संजय कुमोला का संगीत और विक्रम कप्रवाण के गीत ठीकठाक
है।
रुद्र्रप्रयाग, टिहरी,
श्रीनगर आदि की मनोहारी लोकेशंस पर बेहतर सिनेमेटोग्राफी की
बदौलत फिल्म खूबसूरत होकर उभरी है। हां
, स्पॉट रिकॉर्डिंग
ने जरूर मजा किरकिरा भी किया है। कुल जमा
भुली ऐ भुलीजहां भाई बहन के बीच कई भावुक सीन से दर्शकों को बांधे रखती है। वहीं, कामचलाऊ स्क्रिप्ट राइटिंग, संवाद, तकनीकी खामियां उसकी रेटिंग कम भी करते हैं। खनन के खेल
में नौकरशाहों के तीसरे कोण को क्यों नहीं छुआ गया, यह सवाल अनुत्तरित ही रह गया। बावजूद, ‘भुली ऐ भुलीआंचलिक सिनेमा के भविष्य के प्रति कुछ आश्वस्त जरूर करती है।
समीक्षक- धनेश कोठारी

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