गेस्ट-कॉर्नर
उफ्फ ये बांधों की हवस
महीपाल सिंह नेगी
पहले एक बड़ी खबर, जो अब तक मीडिया में नहीं आई है। टिहरी बांध की झील के ऊपरी क्षेत्र में बसे करीब एक दर्जन और गांव कभी भी खिसककर झील में समा सकते हैं। इन गांवों में रहने वाले 1, 336 परिवारों को दूसरी जगह बसाने (पुनर्वासित करने) की सिफारिश भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग ने की है। उत्तराखंड की सरकार ने भारत सरकार से इन गांवों व परिवारों को पुनर्वासित करने के लिए 522 करोड़ 84 लाख रु. मांगे हैं।
भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग की रिपोर्ट के आधार पर ही बांध से आंशिक रूप से प्रभावित तीन गांवों को पहले ही पूर्ण प्रभावित में बदलना पड़ा है। इनके पुनर्वास के लिए करीब एक सौ करोड़ रु. भारत सरकार को सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर जारी करने पड़े हैं।
यह तस्वीर भयावह है। बांध की झील के ऊपर बसे वे क्षेत्र और उन पर बसे गांव भी खिसक रहे हैं, जिन्हें बांध की प्रारंभिक भूगर्भीय अध्ययन रिपोर्ट में पूरी तरह स्थिर बताया गया था। 1980 व 1990 के दशक में टिहरी बांध विरोधियों ने जब इन क्षेत्रों की स्थिरता पर प्रश्न खड़े किए, (केंद्र सरकार की ही ‘भुंबला कमेटी’ नाम से चर्चित पर्यावरणीय स्थाई कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर) तब बांध विरोधियों को देशद्रोही ठहराने की कोशिशें हुई थीं। फिलहाल झील के ऊपरी क्षेत्र में बसे करीब 15-16 गांव और 1,600 परिवार कामना कर रहे हैं कि जब तक उन्हें अन्यत्र नहीं बसा दिया जाता, कोई छोटा-मोटा भूकंप न आए। कौन जाने, कौन-सा या कितने गांव मिनटों में झील में समा जायें।
बांधों को लेकर उत्तराखंड में इन दिनों फिर हलचल है। भूकंपीय संवेदनशीलता के आधार पर दुनिया और भारत के भौतिक मानचित्र को कुल पांच जोन, एक से पांच (क्रमश: अधिक खतरनाक) में बांटा गया है। टिहरी बांध जोन चार (दूसरा सबसे खतरनाक) में बनाया गया है।
इन दिनों उत्तराखंड में मुख्य रूप से जिन चार बांधों पर ज्यादा ही समर्थन-विरोध हो रहा है वे सभी जोन पांच (सर्वाधिक खतरनाक) में हैं। ये बांध भूगर्भीय ही नहीं बल्कि पारिस्थितिक-पर्यावरणीय दृष्टि से भी सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्र में हैं। बांधों के नाम-भैरो घाटी, लोहारी-नागपाला, पाला-मनेरी व विष्णुगाड़-पीपलकोटी हैं।
इन चारों बांधों को योजनाकारों तथा बांध समर्थकों द्वारा ‘रन आफ द रीवर’ (छोटा बांध) बताया जा रहा है। पहले तीन बांध भागीरथी नदी पर उत्तरकाशी से आगे और चौथा अलकनंदा नदी पर जोशीमठ के निकट बन रहा है। भागीरथी के तीन बांध भारत सरकार ने रोक दिये हैं, जबकि अलकनंदा के बांध पर अस्थाई रोक लगाई गई है। पिंडर नदी पर देवसारी बांध व व मंदाकिनी पर बनने वाले बांध भी विवाद में हैं। इनके खिलाफ स्थानीय लोग मुखर हैं। ये बांध भी जोन पांच में हैं और रन आफ रीवर बताये जा रहे हैं। अलकनंदा पर कोटली भेल शृंखला के तीन में से एक बांध पर वन मंत्रालय की पर्यावरणीय अपीलीय अथारिटी ने ही दो साल पहले रोक लगा दी थी।
विश्व बांध आयोग, जिसमें भारत भी शामिल है, के मानक देखें तो विवाद में फंसे उक्त सभी नौ बांध, बड़े बांध हैं। मानकों के अनुसार नींव से लेकर शीर्ष तक 15 मीटर से अधिक ऊंचे बांध, बड़े बांध हैं। 15 मीटर से कम ऊंचाई के बांध भी यदि शीर्ष पर 500 मीटर से ज्यादा लंबें हों तो भी बड़े बांध हैं। दस लाख घन मीटर जल धारण क्षमता और 2000 क्यूमेक्स से अधिक डिस्चार्ज वाले बांध भी बड़े बांध हैं।
जिस पाला-मनेरी को ‘रन आफ द रीवर’ ठहराया जा रहा है, वह 74 मीटर और लोहारी-नागपाला 67 मीटर ऊंचा बांध है। इनका बाढ़ डिस्चार्ज क्रमश: 7000 और 5, 200 क्यूमेक्स है। अर्थात बड़े बांध के मानक से साढ़े तीन और ढाई गुना अधिक। अलकनंदा नदी की निचली घाटी जोन-चार में प्रस्तावित कोटली भेल –1 बी, 90 मीटर ऊंचा बांध है, टिहरी व पौड़ी जिलों के 26 गांवों को प्रभावित करने वाले इस बांध की झील 27.5 कि.मी. लंबी होगी। और हां, इसे भी ‘रन आफद रीवर’ बताया जा रहा है। अब बताइये जो बांध पावर सुरंग से 27 कि.मी. पहले नदी का प्रवाह रोक दे वह ‘रन आफ द रीवर’ किस रेखा गणित से हुआ। इन सभी बांधों की पावर सुरंगें 10 से 16 कि.मी. लंबी हैं। सुरंग आधारित होने से कोई बांध छोटा और ‘रन आफ द रीवर’ नहीं हो जाता।
ऐसे दर्जनों और बांध भी कथित ‘रन आफद रीवर’ की आड़ में थोपे जा रहे हैं। उत्तराखंड राज्य बनते ही जिस तरह ‘ऊर्जा प्रदेश’ का नारा उछला, बांध और बिजली की एक ‘तिलस्मी तस्वीर’ बुनी जाने लगी। कोई विशेषज्ञ दावा कर रहा है कि उत्तराखंड 30 हजार मेगावाट बिजली पैदा कर सकता है तो कोई 50 हजार मेगावाट तक कूद गया है। होगी भी इतनी क्षमता, पर उसके उपयोग का सुरक्षित तरीका तो बतायें। 1970 के दशक में बनी मनेरी भाली चरण- प्रथम, परियोजना की पावर सुरंग के ऊपर बसे जामक गांव में 1991 के मध्यम शक्ति (6.2 रिक्टर स्केल) के भूकंप ने भारी तबाही मचा दी थी। करीब 80 लोग एक इसी गांव में काल के ग्रास बन गए थे। आसपास के गांवों में भारी क्षति हुई। विष्णुप्रयाग बांध की पावर सुरंग से खतरे में पड़े चांई गांव को अन्यत्र बसाने का निर्णय लेना पड़ा है।
जामक हो या चांई गांव अथवा टिहरी बांध की झील के ऊपर बसे दर्जन भर गांवों के बांध बनने के बाद धराशाई होने का आंकलन नहीं किया गया, बल्कि लगता यह है कि खतरा छुपाया जाता है, ताकि विरोध में आवाजें न उठें।
बांधों की इस तिलिस्मी दुनिया की एक सच्चाई यह भी देखें- टिहरी बांध राकफिल (मिट्टी-पत्थर निर्मित) श्रेणी का बांध है। लेकिन सच मानिये इसमें भी सात लाख टन सीमेंट और 90 हजार टन स्टील का प्रयोग हुआ है। बांध की दीवार भले मिट्टी-पत्थर की हो परंतु सुरंग, पावर हाउस व स्पिलवे पर सीमेंट, सरिया-लोहा बिछा दिया गया है।
‘रन आफ द रीवर’ बताये जा रहे अन्य सभी बांध कंक्रीट के बन रहे हैं। लाखों टन सीमेंट व लोहा। ये तमाम बांध सौ-सवा सौ साल के लिए डिजाइन हो रहे हैं। दोहन की मानसकिता के चलते इतने साल तक क्या ये नदियां बची भी रह पायेंगी? एक ही स्थान पर लाखों टन सीमेंट-लोहे का बोझ, अभी बाल्य अवस्था से गुजर रहे ‘ग्रोइंग हिमालय’ पर कयामत नहीं है? क्या भू-अस्थिरता का खतरा नहीं है? और जब सौ साल बाद ये बांध व्यर्थ हो जायेंगे यह सीमेंट लोहा क्या परमाण कचरे से कम खतरनाक नहीं होगा?
2, 400 मेगावाट के एक टिहरी बांध से करीब सवा लाख लोग प्रभावित हो रहे हैं। 50 हजार मेगावाट की दौड़ में उत्तराखंड के 25 से 30 लाख लोग रौंदे जा चुके होंगे। टिहरी बांध के विस्थापितों को बसाने के लिए जब जमीन नहीं मिली तब करीब 600 परिवारों को आधा एकड़ जमीन देकर टरका दिया गया।
क्रमश:
साभार-समयांतर