संस्कृति

पहाड़ के लोकजीवन में रची बसी रोपणी

संजय चौहान // 
          पहाड़ के लोकजीवन मे अषाड़ महीने का सदियों से गहरा नाता रहा है। अषाड़ का महीना पहाड़ में धान की रोपाई अर्थात रोपणी लगाने का महीना होता है। रोपणी और पहाड़ एक दूसरे के पूरक हैं। रोपणी पहाड़ के लोकजीवन मे इस तरह से रची बसी है कि आज भी रोपणी बरबस ही लोगों के मन को बेहद भाती है।
अषाड महीने का आगमन मानसून आने का भी सूचक माना जाता है। क्योंकि पहाड़ की खेती पूरी तरह से मौसम पर निर्भर होती है और जब बारिश आयेगी तभी रोपणी लगती है। रोपणी प्रकृति और अपनी माटी के प्रति लोगो के प्रेम को भी दर्शाती है। जनपद चमोली के कर्णप्रयाग ब्लाक के सिंदरवाणी गांव के ग्रामीणों ने अषाड की पहली रोपणी लगाई गई। इस दौरान पूरे गांव में उत्सव का माहौल था।
ऐसी लगती है रोपणी
रोपणी लगाने से एक रात पहले खेत को नहरों/कूलों के द्वारा पानी से भरा जाता है, जिससे सूखी मिट्टी गीली हो जाती है और फिर रोपाई के लिए खेत तैयार हो जाता है। जिसके बाद बैलों के सहारे पूरे खेत में हल लगाकर खेत को धान की रोपाई के लिए तैयार किया जाता है। तत्पश्चात महिलाओं द्वारा खेत में धान की छोटी-छोटी पौध को रोपा जाता है, जिसे रोपणी कहा जाता है।
सहभागिता का बेहतरीन उदाहरण
पहाड़ के घर गांव में लगने वाली रोपणी सामूहिक सहभागिता का बेहतरीन उदाहरण है। जिसमें गांव के लोगों के खेतों में रोपाई के अलग-अलग दिन निर्धारित होते हैं। जिस दिन जिसके खेत में रोपाई लगानी होती है, गांव की सभी महिलाएं वहां पहुंचती हैं। इन महिलाओं के भोजन, चाय-पानी की व्यवस्था भू-स्वामी को करनी होती है। भोजन में लजीज पकवान और व्यंजन शामिल होते हैं। भोजन सर्वप्रथम ईष्ट देवता और पितृ देवता को चढ़ाया जाता है। रोपाई के बाद महिलाएं और बच्चे एक साथ बैठकर भोजन करते हैं। सारा काम निपटने के बाद भू-स्वामी सभी लोगों की सहायता और आगमन के लिए उनका आभार व्यक्त करता है। एक एक करके पूरे अषाड में हर गांव के लोगों की रोपणी लगाई जाती है जो सामूहिक सहभागिता का सबसे बेहतरीन उदाहरण है।
परदेश से घर आते थे लोग
रोपणी लगाने के लिए दूर परदेस में काम करने वाले लोग छुट्टी लेकर अपने खेतों में रोपाई के कार्यक्रम में भाग लेने पहुंचते थे। बेटी से लेकर बेटों को रोपणी की बडी चिंता रहती थी। पहाड़ में रोपणी किसी लोकपर्व से कम नहीं होता है। रोपणी के जरिये गांव के लोगों का एक दूसरे मिलन भी होता है। लेकिन धीरे धीरे लोग रोपणी से विमुख होते जा रहे है। अब बहुत कम लोग ही रोपणी के लिए घर आते हैं।
विलुप्त होते ’हुडका बोल’
बेमौसम बारिश और कम उपज होने से लोग खेती को छोड़ रहे है। लोगों के खेती से विमुख होने से रोपणी के समय गाये जाने वाले कुमाऊं की लोकसंस्कृति ’हुडका बोल’ विधा पर भी संकट गहराने लगा है। इस परंपरा में एक लोक कलाकार हुड़का बजाते हुए लोकगाथाएं आदि का वर्णन करता था। लोकगाथाएं सुनते हुए रोपाई करने वाली महिलाओं को थकान का आभास भी नहीं होता था। लेकिन पिछले कुछ सालों से हुड़किया बोल की परंपरा कम ही दिखाई देती है। कतिपय स्थानों को छोड़कर हुड़किया बोल का आयोजन विलुप्त होने के कगार पर जा पहुंचा है।
वास्तव मे देखा जाए तो अषाड महीने में लगने वाली पहाड़ की रोपणी यहां के लोकजीवन का अभिन्न अंग तो रही है साथ ही लोकसंस्कृति की सौंधी खुशबू भी बिखेरती है। तभी तो इस पर पहाड़ के लोक में एक कहावत प्रचलित है।
आषाढ़ की रोपणी भादो कु घाम,
सौण की बरखा अशूज कु काम,
ह्युन्द की मैना की लम्बी लम्बी रात,
आहा कन छा आपडा गौं की बात,

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