बोली-भाषा

गढवाली भाषा में सत्य नारायण ब्रत कथा

भगवान सत्य नारायण जी की प्रेरणा से मिथैं भगवान सत्य देव की कथा कु पद्यानुवाद कनौ अंतनिर्हित आदेश ह्वै। अर वांकि हि परीणति च आपक समणि श्री हरि कथा कु यु टुट्यां फुट्यां शबदुं मा प्रस्तुत पद्यात्मक कथा समोदर।
रचना – विवेकानदं जखमोला

व्यास जी ब्वना छना-

एक दौं नैमिषारण्य मा, बैठ्यां छ्या शौनकादी ऋषी।
पुछणन श्री सूत जी से, भलि सि क्वी तप व्रत विधी।
सूत जी ब्वलदिन त सूणा, तुम सबी विद्वत गुणी।
यनि कुछ पूछणा छा हरि से, एक दौं नारद मुनी।
भ्वगणा छन नर लोक मा दुःख,
सूणा हे लक्ष्मी पती।
भलु सी क्वी तप व्रत बथावा, पै सक्यां जु सि सदगती।
शंख, चक्र, गदा पद्म धारी बैठ्यां छन श्री विष्णु जी।
सत्य रुपि नारैण मेरा, प्रभु हरी श्री विष्णु जी।
सूणि नारदजी की या सदिच्छा,
प्रसन्न ह्वैनी हरी।
सत्य नारायण कु व्रत बताई, नरुं खुणि कृपा करी।
स्वर्ग अर मृत्यु लोक मा दुर्लभ यू व्रत मेरू।
मनवांछित फल देंदु वैथैं,मनचितऽ धरि जू करू।
रोग, शोक अर दुःख विनाशक, व्रत यू नारद मुने।
जन कल्याण का बान्यूं पूछी, तबि मिलऽ तुम से बुनै।
धन-दौलत, औलाद देंदू, घर मा सुख समृद्धि करू।
श्रद्धा भक्ति से मनखि जू भी, सत्य देव कु व्रत धरू।
दिन भर हरि भजन कारु, शाम दौं पूजन करौ।
बंधु बांधवुं दगड़ि बैठि, पंड जि से हरि कथा करौ।
क्याल़ा फोल़ि, ग्यूं आटौ चूरण, दगड़ि मा गुड़ घ्यू धरी।
सवाया परसाद बांटू, हरि जि थैं अर्पण करी।
ग्यूं कु आटौ यदि न हो तो, चौंल़ु कू आटौ भलू।
मन से जू भी करिल्या अर्पण, तै सई व्रत तप फलू।
भोजन परसाद पैकी, फिर से हरि कीर्तन करू।
नाम जप कलजुग मा फलदू,मन से जू भी व्रत करू।
पैलु पारायण हरी कू, सूणि ल्या नारद मुनी।
जगत कू कल्याण हो, व्रत फलदायी हो सब खुणी।
तऽ बोला सत्य देव भगवान की ईईई जयऽऽ।

अथ् दुसरु अध्याय
सूत जी ब्वलदिन –

करि कै कैन व्रत यु उत्तम, सूणा अब तुम हे महामुन्यूं।
फल क्या मिलि वूं थैं ये व्रत कू,
सूणा तुम जनु मी ब्वनू।
विप्र एक गरीब छौ, सतानंदऽ नाम को।
बसदु छौ काशीपुरी मा, भूखु छौ हरि नाम को।
श्री हरी छन भक्त वत्सल, पूछि तौंन विप्र से।
किलै भटगदौ पंड जि इथगा ऽ, ब्वाला मेमा निश्चिंत ह्वै।
ब्रह्म मूर्तिल हाथ जोड़ी, विनति कै बुढ्या पंड जि से।
छौं मि ब्राह्मण कर्म से प्रभु, प्वटगि पल़्दू भिक्षा पै।
कैरि सकदौ तुम उयार, मेरि गरीबि मिटाणा को।
कष्ट कारा बुढ्या पंडा जी, यनु उयार बथाणा को।
सूणि सतानंदऽ कि विनती, श्री हरी ब्वलदिन तबऽ।
सूणा हे द्विज श्रेष्ठ मेरी बात टक लगै अबऽ।
श्री हरी सत्य देव जी कू ये उत्तम तुम व्रत कर्यां।
मनवांछित फल देलु तुम थैं, ध्यान से तुम व्रत धर्यां।
विधि विधान तब बथैकी, अलोप ह्वै गिन हरी।
व्रत कू संकल्प लेकी, पंड जि गैं भिक्षाटन फरी।
आज श्री हरि की कृपा से, पंड जि थैं अन धन मिली।
ऐकि घौऽर कुटमदरि संग, सत्यदेव कु व्रत करी।
व्रत का शुभ फल से, तौंकू अन धनाऽकू घड़ु भ्वरी।
व्रत करि सदानि हरि कू, अंत हरि चरणूं वरी।
प्रभु नारैणऽन याहि कथा, नारदऽ ऋषि थैं सुणै।
वूंकि कृपा प्राप्त करणू, सहज च मनख्यूं खुणै।
ऋषिगण फिर पुछण छन, महामुनी श्री सूत जि थैं ।
हौरि कैन कैरि व्रत यो, तुम सुणावा कृपा कै।
तब ब्वना छन सूत जी, ल्या सुणा अगने कथा।
सतानंदऽ कू नियम छौ हर मैना कन श्री हरि कथा।
एक दिन तै शुभ समै पर, पौंछि तख लखड़्वल़ु एकऽ जी।
पुछदु लखड़ूं धैरि भूयं मा, काम क्या यो नेक जी।
बथै पंडा जिन पूण्य फलदायी कथा।
श्रद्धानत ह्वै लखड़्वल़ु, भूलि गे अपड़ी व्यथा।
लेकि श्री हरि कू परसाऽदऽ, मन मा यू संकल्प ले।
धन जु मिललू लखड़ूं बेची, कथा करण मिल व्रत ले।।
आज ह्वै गे बड़ु अचंभा, लखड़्वल़ु प्रसन्न ह्वै ।
दुगणु दाम मिलि गे तैथैं, श्री हरी के कृपा से।
गै बजार आटु,गुड़,घी, क्याल़ा आदी ल्हैकि ऐ।
बंधु बांधवुं दगड़ि मिलि की सत्यनरैणऽकु व्रत कै।
व्रत का प्रभाव से पुत्र पै धनवान ह्वै।
श्री हरी की कृपा से अंत मा गोलक गे।
दुसरु पारायण कथा कू, सूणा तुम मनचित धरी।
मनोवांछित फल मिलू, कामना मन ज्वा धरीं।
तऽ बोला श्री सत्यनारायण भगवान की ईईई जयऽऽ।

अथ् तिसरु अध्याय –

सूत जी ब्वलदिन त सूणा ऋष्यूं अगने की कथा।
उल्कामुख नामऽकु छौ राजा,राणि तैकी पतिव्रता।
भद्रशीला नदि किनर सी करणा छ्या श्री हरि कथा।
नदीतट पर पौंछि तब ही , साधू नामौ इक वणिक।
हाथ जोड़ि खड़ु ह्वै सन्मुख, पूजा हरि की देखि कऽ।
पूछि राजा से हाथ जोड़ी, क्या कना छन मन लगै?
फल क्या मिलदू मे बथाणा, कृपा कारा हथ जुड़ै।
राजा राणी द्वी ब्वदिन, हमरि क्वी संतानऽ न्ही ।
सत्य देव कु व्रत छौं करणा, ल्हे कामना संतानऽ की।
कामना पूरक च व्रत यू, श्री हरी नारैण कू।
यु ही च मन मा यांकै बान्यूं,व्रत च यू नारैण कू।
सूणि मन मा करि विचार ऽ, साधु वणियांऽनऽ तभी।
होलि जू संतान मेरि बि, करलु ये व्रत मी तभी।
वणिक काऽ संकल्प से, ह्वैन दैणा श्री हरी।
लीलावती की भ्वरे कुछली, कन्या जलमीईई सुंदरी।
दिलै यादऽ तब पती थै, कारा श्री हरि की कथा।
ब्यौ का बगत करौलु प्यारी इंका, मी प्रभु की कथा।
चंद्र की सोलह कलाओं जणि बढी कलाऽवती।
ब्यौ की चिंता ह्वै वणिक थैं, करण लैगे सटपटी।
दूत भ्यजिनि चौदिशौं मा, योग्य घर-वर ढुंढणा कूऊऊ।
लेकि ऐ गिन दूत, वणि सुत योग्य कांचन नगर कूऊऊ।
धूमधाम से कैरि दे ब्यौ, वणियांऽनऽ वूं दूयुं कूऊऊ ।
भूलि गे हरि ध्यान फिर भी, रुष्ट ह्वै गे श्री प्रभूऊऊ।
कुछ समै का बाद बणिया, नाव ले व्यापारौ गे।
जमाता अर कारि बारीई दूतुं दगड़म ल्हेकि गे।
सागर सीना चिरोड़ी, रत्नसारपुर मा ऐ।
पौंछि की तख बणिया अपड़ू व्यापार करण लगे।
संकल्पभ्रष्टऽ बणिक फरै श्री हरी थैं क्रोध ऐ।
दंड दीणौ बान्यूं हरि न अपड़ि यनि माया बणै।
चंद्र केतु का कोश की तै दिन मा चोरि ह्वै,
ऐकि चोर मालमत्ता बणिक समणी धोल़ि गे।
ऐकि देखी सैनिंकु थैं बणिक पर बड़ु क्रोध ऐ।
लेकि गैनी राजा समणी जवैं सहितऽ बणिक थैं ।
क्रोध मा ऐ चंद्रकेतू राजाऽन आदेश दे।
कारागारऽम ध्वाल़ा दुयुं थैं, मालमत्ता जब्त कै।
दर दर भटगदि मां बेटि भी, श्री हरी का कोप से।
दुखित ह्वै गेनि वू सबी नारैणऽ प्रकोप से।
भुखमरी से भटगदन द्वी मां बेटी घर-घर जई।
भूख प्यास मिटौंदि अपड़ी, नाना विध भटगण कई।
घुमदा घुमदी कलावती जब पौंछि इक दिन नगर में ।
देखि हरि की कथा रुकि गे, देर से वा घौऽर ऐ।
लाड कैरी लीलावति , कन्या थैं अपरी पूछऽदी।
इथगा रात ह्वै ग्या कखन ऐ, त्वै घौऽर कि नीई सूझऽदी।
कलावती तब ब्वलदि मांजी, नगर मा रुकि गौं जरा।
हूणु छौ सत्यदेव पूजन, और श्री हरि की कथा।
कथा कि सूणि बात मां थैं, श्री हरी की याद ऐ।
राजि खुशी लवा पति जमाता थैं, द्यौंलु तुम्हारी कथा मिसै।
करूणावरुणालय हरी संकल्प से प्रसन्न ह्वै।
राति राजाऽक स्वीणा जै, बणियों थैं छुडणौ आदेश दे।
चंद्रकेतु सबेर होंदी, दरबार्युंकि कछड़ी लगै।
बंदि बणिया थैं जमाता दगड़ि छुडणौ आदेश ह्वै ।
बंदि बणियों थैं सिपै, तब राजा जी का समणी लै।
दाढिकाटि संवारि केश, धन दौलत दे ह्वै विदै।
तीसरु पारायण अर्पित च, श्री हरि प्रभु थैं।
मनवांछित फल प्राप्त हो हे प्रभो यजमान थैं।
त जरा जोर से ब्वाला श्री सत्यनारायण भगवान की ईईई जयऽऽ।

अथ् चौथु अध्यायः-

मति हरण जब होंदु मनखी, भूलि जांदू हरि जि थैं ।
बणिक का दगड़म बि आज कुछ यनी हि बात ह्वै।
घौऽर जांदा बणिक की, श्री हरिन फिर परीक्षा ले।
क्या भ्वर्यूं तेरि नाव मा, हे बणिक इथगा बथै।
दंडि स्वामी देखि बणिया, झणि क्या स्वचण बैठि ग्या।
मांगु ना कुछ दंडि स्वामी, लता पत्तर बोलि ग्या।
श्री हरी थैं बात सूणी, एक दौं फिर क्रोध ऐ।
जनु ब्वनू छै ल्वाल़ा बणिया, जा त्वै खुणि तनु ह्वै हि जै।
न्है धुयेकि बणिया जब अपड़ी नौका का समंणि ऐ।
लता पत्रादिक थैं देखी, लमडि गे भुंया होश ख्वै।
नाव की दुर्दशा देखी, जामातऽल, बणियम बथै।
दंडि कू च श्राप सूणा, वांका कारण यनु यु ह्वै।
शरण जावा दंडि की, क्षमा मांगी आवा धौं।
दंडि की तुम कृपा पैकि, जनु छयो तनि पावा जी।
गैनि तब दुया हाथ जोड़ी, दंडि स्वामि कि शरण मा।
दंडवत ह्वै पड़ि गेन द्विया तब, दंडि जी का चरण मा।
करि बणिऽनऽ संकल्प तब, हरि जी कि पूजा करणऽकू।
धूल़ माथा लगै दुयों नऽ, दंडि स्वामि का चरऽण कू।
दया का सागर हरी तब फिर से तुष्टऽ ह्वै गेनी।
नाव माकू सब्बि धाणी, फिर जनऽकु तनि ह्वै गेनी ।
पौंछि नगर का समणि बणियऽन,
दूतुं थैं घौऽर ऽ लखै।
ऐ गैनी दामाद दगड़ी बणिक, सब सुख शांति से।
दूतुं का सूणि शुभ वचऽन, लीलावती प्रसन्न ह्वै।
कलावति कन्या भि पति की खबर पैकी खुश ह्वै गे।
मां ब्वदी सुण बेटि आंदू मि, तेरा पिता कु दरश पै।
ऐ जै तू भी दरश करणू, पूजन थैं पूरु कै।
बेटि भी पति दरश खातिर मां का पिछनै दौड़ि गे।
सत्यदेव भगवान की, पूजा अधुरी छोड़ि के।
बिन प्रसाद खयां ऐ गिनि, जब द्विया मां अर बेटीईई।
रुष्ट ह्वैनि नारैण फिर से, जमाता हरऽण करीईई।
नाव दगड़ि अलोप ह्वै गे, जमाता कलावतिनऽ सूणीईई।
सती होणो प्रण लेकी, ढड्डी देदे की रुणीईई।
बेटि की देखी दशा, स्वचण लैगे बणिक भी।
सत्य देवकु ध्यान करदू, देर नी करि क्षणिक भी।
करुणानिधि फिर द्रवित ह्वै गेनी सूणि की।
ब्वन बैठिन तू देख साधू, बात जरा या गूणि की।
बेटि तेरी दौड़ि गे यख, मेरि पूजा छोड़ि की।
पति जु चांदी राजि खुशि औ ले प्रसाद तु दौड़ि की।
श्री हरी का वचन सूणीईई, बेटि दौड़ी घौऽर गे।
हरि कु पै परसाद तैंन, फिर पती कू दरश पै।
हंसि खुशी बणिया कुटमदरि का समेतऽ घौऽर ऐ।
मन चित से ऐकि घौऽर श्री हरी पूजन उरे।
बंधु बांधवुं दगड़ि मिलि की, नारैण कू व्रत धरे,
संध्या बेल़ा कथा उरे की, विष्णु जी कु आशीष पै।
संगरंदि अर पूर्णिमा सब पर हरी सुमिरण करी।
अंत मा साधू बण्या भी, हरि का चरणुं मा तरी।
चौथु पारायण अर्पित चऽ, हे हरी तेरा चरण मा ।
देर करि ना हे प्रभु, दुख दूर हमारा करण मा।
त जरा जोर से बोला कि श्री सत्य नारायण भगवान की ईईई। जय ऽऽ।

अथ् पंचौं अध्याय –

सूत जी ब्वलदिन त सूणा ऋष्यूं अगने की कथा ।
तुंगध्वज नाम कू ह्वै छौ ब्ल तब इक बड़ु रजा।
मृगया खेलणौ वु इक दिन बोण मा भटगुणु छयो।
प्यास से आकुल वु एकऽ, बौऽड़ाका छैलम गयो।
तै डाल़ा का छैल बैठ्यां ग्वाल बाल ख्यल्णा छ्या।
खेल ही खेलम हरी विष्णू कि पूजा करणा छ्या।
बौड़ऽका फलुं कू परसाद, दे तौंन जब राजा थैं।
सोचि जंगल़ि फल नि खांदु,बड़ नगर कू राजा मैं।
परसाद त्यागी हरी कू राजाऽन यू दंड पै।
सत्यदेव का क्रोध से, धन पुत्र राज विनष्ट ह्वै।
देखि दुर्दशा अपड़ि यनि, राजा थैं सोची होश ऐ।
श्री हरी कूऊऊ दंड चऽ यो, मिल परसाद जु फुंड चुटै।
दौड़ि की गे राजा फिर से ग्वाल बालुं कि शरण मा।
खै परसाद बड़ फलूं कू, पोड़ि प्रभु का चरणुं मा।
श्री हरी की कृपा से सब कुछ जना कु तनि ह्वै गे।
राजा तुंगध्वज तब बटै कमलानन कू भगत ह्वै।
भक्ति कैरी श्री हरी की अंत मा बैकुंठ गे।
मेरा नारैण कि कृपा से चरणूं मा तौंकी शरण पै।
पूण्य प्रद यीं व्रत कथा थैं, जू बि सुणदूऊऊ गूणऽदूऊऊ।
श्री हरि की कृपा से हर काम वैकू पूरऽदूऊऊ।
दरिद्र थैं धन मान मिलदू, बंदि बंधन मुक्त हो।
निपूतौं संतान मिलदीईई, सब गुणों से युक्त हो।
अंत मा श्री हरि चरण कु वास वै थैं मीलऽदू।
जू प्रभू श्री विष्णु कू, नाम संकीर्तन कदू।।
सत्य देव, सत्य नारायण, नाम छिन प्रभु का कई।
मनवांछित फल पांदु वू जू ध्यांदु वूं थैं मन सई।
सूत जी ब्वलदिन कि सूणा हूंदु क्या ए कैरि की।
हरि कृपा से नजर नी प्वड़ण्या कभी भी बैरि की।
पैलि जौंन करि कथा या , तौंकि बात सुणांदु मी।
फल क्या पै कख गेनि सी, तौंकि बात बथांदु मी।
बुद्धिमान सतानंद जी, सुदामा भगत ह्वै।
कृष्ण चरणाम्बुज अमृत पै, श्री हरी कू लोक पै।
लकड़हारा भील फिर गुहराज बणि निषाद ऐ।
जगका तारणहार ऽकि सेवा मा,
जीवन अर्पण करे।
उल्कामुख राजा जु छौ स्यो फिर से दशरथजी बणिन।
राम – राम रटदा-रटदा, विष्णु का चरणुंम प्वड़िन।
साधु वैश्य नै जनम मा, राजा मोरध्वज बणी।
आरा से शरीर चीरी, महादानी कू पद वरी।
राजा तुंगध्वज स्वयंभू मनु ह्वै ऐनि फिर ये जगत मा।
वैष्णव पथ पर लगै सब्यूं, गैनि हरी की शरण मा।
हरि चरण की रज लगावा ऐकि अपड़ा मुंड फरै।
बोला श्री हरि, जय रमापति जयति जय जगदीश जै–2।
रेवाखंड स्कंदपुराण कु यू पंचौं पारैण चा।
हम सत्य देव का भक्त छौं , हम भक्त छौं नारैण का।
त फिर जोर से बोला –
श्री सत्य नारायण भगवान की ईईई। जय

रचनाकारः विवेकानन्द जखमोला, गटकोट, द्वारीखाल, पौड़ी गढ़वाल

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