गेस्ट-कॉर्नर
मछेरा जाल लपेटने ही वाला है
‘जब सभ्यता बहुत सभ्य हो जाती है
तो वह अपनी प्राचीनता को हीन समझ कर उससे पीछा छुड़ाना चाहती है। हम बातें तो हमेशा
‘लोक’ की करते हैं, पर व्यक्तिगत जीवन अभिजात्य वर्ग जैसा जीना चाहते हैं। गढ़वाली और
कुमाऊंनी समाज में यह प्रवृत्ति ज्यादा ही असरकारी हुई है, जिस कारण उनमें ‘लोक’ का
तत्व खोता जा रहा है, इतना कि अब ‘मछेरा जाल लपेटने ही वाला है।’ यह कथन था, गढ़वाली
लोकसाहित्य के पुरोधा डॉ. गोंवद चातक का।
तो वह अपनी प्राचीनता को हीन समझ कर उससे पीछा छुड़ाना चाहती है। हम बातें तो हमेशा
‘लोक’ की करते हैं, पर व्यक्तिगत जीवन अभिजात्य वर्ग जैसा जीना चाहते हैं। गढ़वाली और
कुमाऊंनी समाज में यह प्रवृत्ति ज्यादा ही असरकारी हुई है, जिस कारण उनमें ‘लोक’ का
तत्व खोता जा रहा है, इतना कि अब ‘मछेरा जाल लपेटने ही वाला है।’ यह कथन था, गढ़वाली
लोकसाहित्य के पुरोधा डॉ. गोंवद चातक का।
डॉ. चातक का जन्म ग्राम-सरकासैंणी,
पट्टी- लोस्तु, (बडियारगड़), टिहरी गढ़वाल में 19 दिसम्बर, 1933 को हुआ था। पिता स्कूल
में अध्यापक थे। गांव से दर्जा चार पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए वे पिता के
साथ मसूरी आ गए थे। घनानंद इंटर कॉलेज, मसूरी से इंटरमीडिएट के उपरांत स्नातक इलाहबाद
विश्वविद्यालय से किया। हाईस्कूल के अध्यापक प्रसिद्ध लेखक और शिक्षाविद शंभुप्रसाद
बहुगुणा ने चातक जी की साहित्यिक अभिरुचि को आगे बढ़ाने में योगदान दिया। जाति प्रथा
से बचपन से ही मोहभंग होने कारण वे किशोरावस्था में ही गोविंद सिंह कंडारी से गोविंद
चातक बन गए थे। ‘चातक पक्षी’ की तरह उनमें साहित्य सजृन की ‘प्यास’ और सामाजिक बेहतरी
की ‘आस’ एक साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में आजीवन रही।
पट्टी- लोस्तु, (बडियारगड़), टिहरी गढ़वाल में 19 दिसम्बर, 1933 को हुआ था। पिता स्कूल
में अध्यापक थे। गांव से दर्जा चार पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए वे पिता के
साथ मसूरी आ गए थे। घनानंद इंटर कॉलेज, मसूरी से इंटरमीडिएट के उपरांत स्नातक इलाहबाद
विश्वविद्यालय से किया। हाईस्कूल के अध्यापक प्रसिद्ध लेखक और शिक्षाविद शंभुप्रसाद
बहुगुणा ने चातक जी की साहित्यिक अभिरुचि को आगे बढ़ाने में योगदान दिया। जाति प्रथा
से बचपन से ही मोहभंग होने कारण वे किशोरावस्था में ही गोविंद सिंह कंडारी से गोविंद
चातक बन गए थे। ‘चातक पक्षी’ की तरह उनमें साहित्य सजृन की ‘प्यास’ और सामाजिक बेहतरी
की ‘आस’ एक साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में आजीवन रही।
मसूरी में रहते हुए ‘हिमालय विद्यार्थी
संघ’, ‘गढ़वाली साहित्य कुटीर संस्था’, ‘अंगारा’ और ‘रैबार’ पत्रिका में गोविंद चातक
की प्रमुख भूमिका थी। किशोरावस्था से ही उनकी कविताएं और कहानियां प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं
में छपने लगी थी। इलाहबाद से स्नातक के बाद वे मसूरी में उच्चशिक्षा के लिए प्रयत्नशील
रहते हुए सामाजिक और साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय थे। इस दौरान जौनपुर इलाके की
लोक संस्कृति से प्रभावित होकर गढ़वाली लोकगीतों के संकलन में जुट गए। राहुल सांकृत्यान
जी के सुझाव पर ‘रंवाल्टी लोकगीत और उनमें अभिव्यक्त लोक संस्कृति’ विषय पर आगरा विश्वविद्यालय
से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की।
संघ’, ‘गढ़वाली साहित्य कुटीर संस्था’, ‘अंगारा’ और ‘रैबार’ पत्रिका में गोविंद चातक
की प्रमुख भूमिका थी। किशोरावस्था से ही उनकी कविताएं और कहानियां प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं
में छपने लगी थी। इलाहबाद से स्नातक के बाद वे मसूरी में उच्चशिक्षा के लिए प्रयत्नशील
रहते हुए सामाजिक और साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय थे। इस दौरान जौनपुर इलाके की
लोक संस्कृति से प्रभावित होकर गढ़वाली लोकगीतों के संकलन में जुट गए। राहुल सांकृत्यान
जी के सुझाव पर ‘रंवाल्टी लोकगीत और उनमें अभिव्यक्त लोक संस्कृति’ विषय पर आगरा विश्वविद्यालय
से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की।
सन् 1960 से 1964 तक उन्होंने आकाशवाणी,
दिल्ली में नाट्य निर्देशक एवं गढ़वाली लोक संगीत के समन्वयक के रूप में कार्य किया।
वर्ष 1964 में राजधानी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में सेवानिवृति तक हिंदी प्रवक्ता
पद पर सेवारत रहे। 9 जून, 2007 को उनका देहांत हो गया।
दिल्ली में नाट्य निर्देशक एवं गढ़वाली लोक संगीत के समन्वयक के रूप में कार्य किया।
वर्ष 1964 में राजधानी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में सेवानिवृति तक हिंदी प्रवक्ता
पद पर सेवारत रहे। 9 जून, 2007 को उनका देहांत हो गया।
डॉ. गोविंद चातक को गढ़वाली लोकसाहित्य
के शुरुवाती प्रमाणिक संकलनकर्ता एवं शोधार्थी का श्रेय जाता है। उन्होंने लोकसाहित्य
के क्षेत्र में तब कार्य किया जब लोकगीतों एवं नृत्यों से जुड़े कलाकारों को यथोचित
सम्मान नहीं दिया जाता था। डॉ. चातक ने लोगों की इस निम्नकोटि की अवधारणा को बदलकर
बताया कि ‘लोककला और साहित्य किसी भी समाज का प्राण है जो कि बादलों से जल की तरह निकलकर
घरती पर मुलायम घास को उपजा कर मानवीय जीवन को गतिशीलता प्रदान करता है’।
के शुरुवाती प्रमाणिक संकलनकर्ता एवं शोधार्थी का श्रेय जाता है। उन्होंने लोकसाहित्य
के क्षेत्र में तब कार्य किया जब लोकगीतों एवं नृत्यों से जुड़े कलाकारों को यथोचित
सम्मान नहीं दिया जाता था। डॉ. चातक ने लोगों की इस निम्नकोटि की अवधारणा को बदलकर
बताया कि ‘लोककला और साहित्य किसी भी समाज का प्राण है जो कि बादलों से जल की तरह निकलकर
घरती पर मुलायम घास को उपजा कर मानवीय जीवन को गतिशीलता प्रदान करता है’।
‘एकला चलो रे’ की नीति को अपनाते
हुए गोविंद चातक ने गढ़वाली लोकसाहित्य के लोकतत्वों का साहित्यिक, सांस्कृतिक और सामाजिक
पक्षों के दृष्टिगत मूल्यांकन कर उसकी महत्ता और उपयोगिता को प्रमाणिक तौर पर सार्वजनिक
किया। गढ़वाली लोकसाहित्य के क्षेत्र में जो कार्य प्रतिष्ठित अकादमी नहीं कर सके, वह
चातक जी ने करके दिखाया। शैक्षिक संस्थाओं की यह शिथिलता आज भी जारी है। उत्तराखंड
बनने के 17 साल बाद भी गढ़वाली लोकसाहित्य में चातक जी जैसा मौलिक कार्य कोई अकादमी
नहीं कर पायी है।
हुए गोविंद चातक ने गढ़वाली लोकसाहित्य के लोकतत्वों का साहित्यिक, सांस्कृतिक और सामाजिक
पक्षों के दृष्टिगत मूल्यांकन कर उसकी महत्ता और उपयोगिता को प्रमाणिक तौर पर सार्वजनिक
किया। गढ़वाली लोकसाहित्य के क्षेत्र में जो कार्य प्रतिष्ठित अकादमी नहीं कर सके, वह
चातक जी ने करके दिखाया। शैक्षिक संस्थाओं की यह शिथिलता आज भी जारी है। उत्तराखंड
बनने के 17 साल बाद भी गढ़वाली लोकसाहित्य में चातक जी जैसा मौलिक कार्य कोई अकादमी
नहीं कर पायी है।
वर्ष 1954 में युवा गोविंद चातक की
प्रतिभा को पहचानते हुए उनके प्रथम संग्रह ‘गढ़वाली लोकगीत’ की भूमिका में महापंडित
राहुल सांकृत्यायन ने लिखा कि ‘चातक जी गुजरात के मेघाणी (राजस्थानी लोकगीतों के विख्यात
संग्रहकर्ता) की तरह अपनी तरुणाई लोकसाहित्य के संकलन के लिए समर्पित कर दीजिए। जब
बारह बरस की साधना कागज पर उतर आएगी तो आपके लिए इंद्र का आसन भी डोल जायेगा।’ यह प्रसन्नता
की बात है कि राहुल सांकृत्यायन से प्रेरणा पाकर चातक जी ने पूरी जीवटता और निष्ठा
के साथ जीवन भर लोक साहित्य के प्रति अपना समर्पण सनक की हद तक निभाया था।
प्रतिभा को पहचानते हुए उनके प्रथम संग्रह ‘गढ़वाली लोकगीत’ की भूमिका में महापंडित
राहुल सांकृत्यायन ने लिखा कि ‘चातक जी गुजरात के मेघाणी (राजस्थानी लोकगीतों के विख्यात
संग्रहकर्ता) की तरह अपनी तरुणाई लोकसाहित्य के संकलन के लिए समर्पित कर दीजिए। जब
बारह बरस की साधना कागज पर उतर आएगी तो आपके लिए इंद्र का आसन भी डोल जायेगा।’ यह प्रसन्नता
की बात है कि राहुल सांकृत्यायन से प्रेरणा पाकर चातक जी ने पूरी जीवटता और निष्ठा
के साथ जीवन भर लोक साहित्य के प्रति अपना समर्पण सनक की हद तक निभाया था।
डॉ. गोविंद चातक ने अपने जीवनकाल
में लोकसाहित्य एवं संस्कृति पर आधारित 25 किताबें प्रकाशित की थीं। वर्ष 1954 में
‘गढ़वाली लोकगीत’ से प्रारंभ उनकी साहित्यिक यात्रा में ‘गढ़वाली लोकगाथाएं’ (पुरस्कृत),
उत्तराखंड की लोककथाएं’, ‘गढ़वाली लोकगीतः एक सांस्कृतिक अध्ययन’, ‘मध्य पहाड़ी का भाषा
शास्त्रीय अध्ययन’, भारतीय लोक संस्कृति का संदर्भः मध्य हिमालय (पुरस्कृत), पर्यावरण
और संस्कृति का संकट (पुरस्कृत), ‘लड़की और पेड़’ (कहानी संग्रह) प्रमुख हैं।
में लोकसाहित्य एवं संस्कृति पर आधारित 25 किताबें प्रकाशित की थीं। वर्ष 1954 में
‘गढ़वाली लोकगीत’ से प्रारंभ उनकी साहित्यिक यात्रा में ‘गढ़वाली लोकगाथाएं’ (पुरस्कृत),
उत्तराखंड की लोककथाएं’, ‘गढ़वाली लोकगीतः एक सांस्कृतिक अध्ययन’, ‘मध्य पहाड़ी का भाषा
शास्त्रीय अध्ययन’, भारतीय लोक संस्कृति का संदर्भः मध्य हिमालय (पुरस्कृत), पर्यावरण
और संस्कृति का संकट (पुरस्कृत), ‘लड़की और पेड़’ (कहानी संग्रह) प्रमुख हैं।
लोक साहित्य से इतर गोविंद चातक ने
नाट्य विधा पर महत्वपूर्ण लेखन कार्य किया है। नाट्यालोचना में ‘प्रसाद के नाटकः स्वरूप
और संरचना’, ‘रंगमंचः कला और दृष्टि’ ‘आधुनिक हिन्दी नाटक का मसीहाः मोहन राकेश’ उनकी
चर्चित पुस्तकें हैं। उनके नाटकों में ‘केकड़े’ स्त्री-पुरुष संबधों की पड़ताल, ‘काला
मुंह’ दलित वर्ग की त्रासदी, ‘दूर का आकाश’ पहाड़ी फूल ‘फ्यूंली’ की बिडम्बना, ‘बांसुरी
बजती रही’ प्रेम की पीड़ा, और ‘अंधेरी रात का सफर’ टॉलस्टाय के निजी जीवन के द्वन्द्वों
को दर्शाते हैं।
नाट्य विधा पर महत्वपूर्ण लेखन कार्य किया है। नाट्यालोचना में ‘प्रसाद के नाटकः स्वरूप
और संरचना’, ‘रंगमंचः कला और दृष्टि’ ‘आधुनिक हिन्दी नाटक का मसीहाः मोहन राकेश’ उनकी
चर्चित पुस्तकें हैं। उनके नाटकों में ‘केकड़े’ स्त्री-पुरुष संबधों की पड़ताल, ‘काला
मुंह’ दलित वर्ग की त्रासदी, ‘दूर का आकाश’ पहाड़ी फूल ‘फ्यूंली’ की बिडम्बना, ‘बांसुरी
बजती रही’ प्रेम की पीड़ा, और ‘अंधेरी रात का सफर’ टॉलस्टाय के निजी जीवन के द्वन्द्वों
को दर्शाते हैं।
डॉ. गोविंद चातक के साहित्यिक कृतियों
को देश के कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों शामिल किया गया है। परन्तु गढवाली लोक
साहित्य की यह बिडम्बना ही है कि डॉ. गोविंद चातक के बाद इस क्षेत्र में मौलिक एवं
गंभीर कार्य नहीं हुआ है। चातक भी मानते थे कि ‘गढ़वाली लोकसाहित्य के वर्तमान शोधार्थियों
ने पूर्ववर्ती शोधकार्यों के पिसे आटे को ही बार-बार पीसा है, इसीलिए उनमें सामाजिक
उपयोगिता नदारद है।’
को देश के कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों शामिल किया गया है। परन्तु गढवाली लोक
साहित्य की यह बिडम्बना ही है कि डॉ. गोविंद चातक के बाद इस क्षेत्र में मौलिक एवं
गंभीर कार्य नहीं हुआ है। चातक भी मानते थे कि ‘गढ़वाली लोकसाहित्य के वर्तमान शोधार्थियों
ने पूर्ववर्ती शोधकार्यों के पिसे आटे को ही बार-बार पीसा है, इसीलिए उनमें सामाजिक
उपयोगिता नदारद है।’
गोविंद चातक दिल्ली की महानगरीय जिंदगी
को छोड़कर वापस अपने गढ़वाल में ही रहना चाहते थे। उन्होंने श्रीकोट, श्रीनगर (गढ़वाल)
में निवास हेतु ’देवधाम कुटी’ भी बनाई। परन्तु पहाड़ी लोगों की जानी-पहचानी नियति कि
पुनः उन्हें दिल्ली में ही रहना पड़ा। मेरे साहित्यकार मित्र महावीर रवांल्टा को दिए
एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि ‘…जिन्दगी डंडा लेकर मेरे पीछे पड़ी रही और
मैं दौड़ता रहा। पीछे मुड़नें और सुस्ताने का अवसर नहीं मिला। जिन्दगी की राह में कांटे
तो मिले ही फूल भी मिले, पर कहीं रमने का मौका नहीं मिला। कई बार प्रलोभन आए पर मैं
उन्हें देखकर आगे बढ़ गया और आगे बढ़ने पर पीछे छूटती चीजें छोटी लगने लगी। …जो नहीं
मिला उसकी पीड़ा भले ही हुई हो, पर उसको भुलाने में भी मुझे देर नहीं लगी।’
को छोड़कर वापस अपने गढ़वाल में ही रहना चाहते थे। उन्होंने श्रीकोट, श्रीनगर (गढ़वाल)
में निवास हेतु ’देवधाम कुटी’ भी बनाई। परन्तु पहाड़ी लोगों की जानी-पहचानी नियति कि
पुनः उन्हें दिल्ली में ही रहना पड़ा। मेरे साहित्यकार मित्र महावीर रवांल्टा को दिए
एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि ‘…जिन्दगी डंडा लेकर मेरे पीछे पड़ी रही और
मैं दौड़ता रहा। पीछे मुड़नें और सुस्ताने का अवसर नहीं मिला। जिन्दगी की राह में कांटे
तो मिले ही फूल भी मिले, पर कहीं रमने का मौका नहीं मिला। कई बार प्रलोभन आए पर मैं
उन्हें देखकर आगे बढ़ गया और आगे बढ़ने पर पीछे छूटती चीजें छोटी लगने लगी। …जो नहीं
मिला उसकी पीड़ा भले ही हुई हो, पर उसको भुलाने में भी मुझे देर नहीं लगी।’
आलेख- अरुण
कुकसाल