विलेन बनना चाहता है आज का आदमी
गढ़वाली लोक कलाकार रामरतन काला किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उन्होंने बहुत से नुक्कड़ नाटकों और मंचीय कार्यक्रमों में भाग लिया। कई गढ़वाली फिल्मों और एलबमों में वह अभिनय का लोहा मनवा चुके हैं। स्यांणी, नौछमी नारेणा, सुर्मा सुरेला, हल्दी हात, तेरी जग्वाल, बसंत अगे आदि उनकी चर्चित एलबम हैं। उनसे बातचीत के अंश-
आपका बचपन कहां बीता और शिक्षा-दीक्षा कहां हुई?
मैं बचपन में बहुत शैतान था। पदमपुर, कोटद्वार में जन्म हुआ। यहीं बचपन बीता और शिक्षा-दीक्षा हुई। पिताजी आर्मी में थे। मुझे भी आर्मी में जाना ही था, लेकिन पता नहीं क्या कारण थे कि मैं फौजी की बजाए कलाकार बन गया। विद्यालय से ही कलाकार के लक्षण पैदा होने लगे थे। अध्यापक मानने लगे थे कि यह आर्टिस्ट है। विद्यार्थी जीवन में ही मैं स्टेबलिश आर्टिस्ट हो गया था। मैंने हास्य-व्यंग्य वाले गीत भी गाए हैं, लेकिन मूलरूप से मैं रंगकर्मी हूं। नाट्य विद्या का आदमी हूं।
शिक्षा के बाद आजीविका का साधन क्या अपनाया और अपने कलाकार को कैसे बचाए रखा?
आजीविका के लिए मैं कहीं नहीं गया। मुझे यह डर होने लगा था कि मैं घर से बाहर चला गया, गढ़वाल से मैं पश्चिममुखी हो गया तो मेरे अंदर का कलाकार मर जाएगा। इसलिए मैंने स्ट्रगल किया और यहीं का होकर रह गया। कोटद्वार में रहते हुए भी नजर हमेशा पहाड़ों की ओर रही। और जो कुछ सीखा, जो कुछ किया, वो सब पहाड़ों से। बेटी, माता, बहनों, बुजुर्गों से सीखा और उन्हें ही दिया।
आजीविका कैसे चलाई?
एक तो मेरे पास खेती है। खेती के समय में मैं कहीं नहीं जाता। एक-दो जगह दुकान की। दुकानदारी ठीक चली, लेकिन इधर-उधर जाने के लिए शटर डाउन करना पड़ता। नौकरी भी की, लेकिन वह सूट नहीं हुई। नौकरी में- ‘ओ काला, ओ फल्लाणें, वो ठिमके। यह मुझे रास नहीं आया। मैंने कहा कि मैं सामान्य आदमी हूं, सामान्य जिंदगी जीना चाहता हूं। ‘ओ काला क्या हुआ? इस तरह से नौकरी भी नहीं चल सकी और दुकानदारी भी नहीं चल पाई, लेकिन खुदा का शुक्र है कि सांस्कृतिक गतिविधियों से पैसा मिलने लगा। उसी से थोड़ी-बहुत आजीविका चलने लगी।
शिक्षा पूरी करने के बाद आपका पहला महत्वपूर्ण कार्यक्रम कब हुआ?
1985 में लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी, मैं और 27 आदमी बंबई गए थे। वहां प्रवासी पहाड़ियों के बीच गढ़वाल से पहली टीम हम लोगों की गई। हमने कार्यक्रम किया। लोगों ने बहुत सराहा। उससे कुछ पहले हम लोग इलाहाबाद कुंभ में गए थे। लगभग 60-70 लाख श्रद्धालु के बीच हमारे कार्यक्रम होते। ये दो कार्यक्रम मुझे याद हैं। इनके बाद यह सिलसिला चलता रहा। विभागीय कार्यक्रम मिले, मेरा खुद का ग्रुप है, नेगी जी बुलाते हैं, अनिल बिष्टï बुलाते हैं, दिल्ली गया, मुझे याद नहीं कि मैं कहां-कहां गया।
फिल्मों और एलबम की तरफ कैसे आए?
मेरी पहली फिल्म ‘कौथीग’ है। इसमें मैंने चाचा का रोल किया। आज भी लोगों को बहुत पसंद आता है। उससे पहले या बाद में संस्कृत में सीरियल किया था- ‘शकुंतला’। दिल्ली की कोई टीम थी। फिल्मों का सिलसिला जारी रहा। उम्र बढ़ रही थी। उम्र से हिसाब से छोटे-मोटे रोल मिलते रहे। एलबम का जमाना आ गया है। नरेंद्र सिंह नेगी के बारह-तेरह एलबम मैंने कर लिए हैं। हास्य-व्यंग्य मेरे करेक्टरों में साफ झलकता है। हास्य और व्यंग्य के साथ मैं कहानी को आगे बढ़ाता हूं। मेरा आग्रह है कि बहू-बेटियों के लिए हमारे बुजुर्गों के लिए, हमारे विद्यार्थी के लिए कुछ सीखने को होना चाहिए।
पहाड़ी फिल्मों या एलबमों की स्थिति से क्या आप संतुष्ट हैं?
इसमें बहुत कुछ करने की गुंजाइश है। कुछ दलाल किस्म के लोग घुसे हुए हैं, वे सरकार की तरफ से जो कुछ मिलता है, उसको हड़प जाते हैं या सरकारी क्रिया-कलापों को ठीक से नहीं होने देते। दूसरी बात- प्राइवेट सेक्टर में फिल्में और एलबम बना रहे लोग, उसमें बड़े-बड़े शहरों से ही कलाकार ले रहे हैं। गढ़वाल में प्रतिभा का खजाना भरा हुआ है। क्या नरेंद्र सिंह नेगी, दिल्ली, बंबई, लखनऊ में हो सकता है? मैं पहाड़ से हूं। क्या इस तरह का करेक्टर मैदान से आ सकता है? लोगों ने कोशिशें की हैं, लेकिन वे अप्रयाप्त हैं।
पहाड़ के आदमियों को किसी तरह की सहायता मिले तो बहुत कुछ कर सकते हैं। अब तो देहरादून दूरदर्शन है, आकाशवाणी नजीमाबाद में है। पहाड़ में नदियां, झरने, जंगल, बर्फ, देवदार, बुरांश आदि बहुमूल्य संपदा होने के बाद भी लोग मैदानी क्षेत्रों में जा रहे हैं कि साहब, हमारे लिए एक एपीसोड बना दो। यह काम तो हमारे लड़के भी कर सकते हैं। सरकार और बुद्धिजीवियों से मेरा निवेदन है कि इस तरह के काम में सहयोग कर प्रतिभाशाली कलाकारों को मौका दें।
गढ़वाल कुमाऊँ में बहुत से महत्वपूर्ण कलाकार हैं लेकिन उन्हें प्रयाप्त महत्व नहीं मिला। इसका क्या कारण मानता हैं?
उसकी वजह यह है कि गढ़वाल मंडल और कुमाऊं मंडल को मिलाकर 13 जिले हैं। कुछ जिले मैदानी क्षेत्र में चले गए। उन्हें गढ़वाली से कोई मतलब नहीं। बचे नौ-दस जिले। वे भी दो पार्ट में बंटे हैं। इसके बावजूद गढ़वाल मंडल को लें तो कुछ साल से ही हम जौनसार के गीतों को गा रहे हैं। अन्यथा वह भी अलग था। तो गढ़वाल माने पौड़ी, चमोली, टिहरी और रुद्रप्रयाग।
नरेंद्र सिंह नेगी, मैं या घन्ना भाई केवल यहीं देखे और सुने जाएंगे। जौनसार में जौनसारी कलाकार हैं। वहां पर वे लोकप्रिय हैं। इसी तरह कुमाऊं मंडल में अल्मोड़ा केंद्र है कला का। वहां चंदन सिंह बोरा हैं, उनकी पत्नी हैं। और भी कलाकार हैं। सब अलग-अलग हो गए हैं।
अगर 13 जिलों का एक समूह होता, एक बोली, एक भाषा, एक खान-पान, एक रीति, एक रिवाज होता तो नरेंद्र सिंह नेगी और ऊंचे होते या अनिल बिष्टï या रामरतन काला या घन्ना या प्रीतम भारतवाण और प्रसिद्ध होते। एक कारण यह भी है कि बहुत छोटे स्तर पर हमारा पहाड़ फैला हुआ है। पहाड़ में दर्शक कम हैं। दर्शक तो बाहर चले गए हैं। गढ़वाली को हिंदी के साथ ही जोड़ लिया गया है।
मुझे लगता है कि इसका भी नुकसान हुआ है? थोड़ा-बहुत नुकसान इस बात का भी हुआ है। मैं दूसरे प्रदेशों में बहुत गया हूं- आसाम, बंगाल, गुजरात, महाराष्ट, पूना आदि के लोगों के बीच। उनकी अपनी एक भाषा है। उसे गाते हैं, उसमें डांस करते हैं। उसकी रौनक ही अलग है। गढ़वाली की लिपि नहीं है, बाकि संस्कृति, बोल-चाल, खान-पान, रहन-सहन सबकुछ अलग है। बस अभाव है तो लिपि का।
आपने ग्रुप कब बनाया और उसके पीछे क्या सोच थी?
काला : ‘कौथगेर कला मंच’ के नाम से 1991 में ग्रुप बनाया। इसमें 18-20 कलाकार हैं।
आप ग्रुप के माध्यम से नए कलाकारों से मिल रहे हैं? आपको उनसे क्या उम्मीद है?
काला : मुझे बहुत अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि जितनी मेहनत हमने की, नए लड़के नहीं कर रहे हैं। नए लड़के बाल बढ़ाकर चाहते हैं कि वे गढ़वाली सीरियल में डांस कर दूं और रातों-रात हीरो बन जाऊं। या फिल्म में लंबे बाल बढ़ाकर विलेन बनूं। हीरो नहीं बनना चाहता आज का आदमी। वह अच्छा नहीं करना चाहता, क्रिएटिव नहीं करना चाहता। कुछ सीखना नहीं चाहता। इसका बड़ा दर्द है। इसे मैं ही नहीं, हर पुराना कलाकार कहेगा?
काला जी, अब तक किए काम से क्या आप एक कलाकार के रूप में संतुष्ट हैं?
संतुष्ट तो कलाकार कभी नहीं होता है। आप हालात देख रहे हैं। मैं बहुत बीमार था। अब कुछ ठीक हूं। अभी मुझे बहुत करना है। लोग तो कहते हैं कि यह बेस्ट हो गया है। नेगीजी की एलबल में- नया जमाना का कन उठि बौल- तिबरी डाण्डैल्युं मां रॉक एंड रॉल….गीत में अभिनय किया। एक बच्ची ने मुझे बाजार में देखा तो कहा कि यह तो जवान आदमी है। गीत में बूढ़ा कैसे हो गया? वह अपने पापा के साथ थी।
उसने कहा कि मान लिया कि गीत में रोल इन्होंने ही किया है तो इन्हें कार में होना चाहिए था। साइकिल में क्यों है? मुझे बड़ा दर्द हुआ कि नए बच्चों की सोच जो है, वह यह कि कलाकार कार में ही घूम सकता है। साइकिल में क्यों जा रहा है? मेरी समझ में नहीं आया कि उस बेटी को कैसे समझाऊं?
वाह दुर्लभ साक्षात्कार लगा ये तो । उन्होंने सच ही कहा आज के बारे में ।
अजय जी से सहमत हूँ।
धन्यवाद उत्साहवर्धन के लिए
अच्छी रचना के लिए आभार. हिंदी लेखन के क्षेत्र में आप द्वारा किये जा रहे प्रयास स्वागत योग्य हैं.
आपको बताते हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है की भारतीय ब्लॉग लेखक मंच की स्थापना ११ फरवरी २०११ को हुयी, हमारा मकसद था की हर भारतीय लेखक चाहे वह विश्व के किसी कोने में रहता हो, वह इस सामुदायिक ब्लॉग से जुड़कर हिंदी लेखन को बढ़ावा दे. साथ ही ब्लोगर भाइयों में प्रेम और सद्भावना की बात भी पैदा करे. आप सभी लोंगो के प्रेम व विश्वाश के बदौलत इस मंच ने अल्प समय में ही अभूतपूर्व सफलता अर्जित की है. आपसे अनुरोध है की समय निकलकर एक बार अवश्य इस मंच पर आये, यदि आपको मेरा प्रयास सार्थक लगे तो समर्थक बनकर अवश्य हौसला बुलंद करे. हम आपकी प्रतीक्षा करेंगे. आप हमारे लेखक भी बन सकते है. पर नियमो का अनुसरण करना होगा.
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