सरोकार

कब खत्म होगा युवाओं का इंतजार ?

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उत्तराखंड आंदोलन और राज्य
गठन के वक्त ही युवाओं ने सपने देखे थे
, अपनी मुफलिसी के खत्म होने के। उम्मीद थीं
कि नए राज्य में नई सरकारें कम से कम यूपी की तरह बर्ताव नहीं करेंगी
, उन्हें रोजगार तो जरूर मिलेगा। जिसके लिए वह हमेशा अपने घरों को छोड़कर मैदानों
में निकल पड़ते हैं। सिलसिला आज भी खत्म नहीं हुआ है। वह पहले की तरह ही घरों से पलायन
कर रहे हैं। गांव की खाली होने की रफ्तार राज्य निर्माण के बाद ज्यादा बढ़ी। सरकारी
आंकड़े ही इसकी गवाही दे रहे हैं। ऐसा क्यों हुआ
? जवाब बहुत मुश्किल
भी नहीं।


उत्तराखंड को अलग राज्य के
तौर पर अस्तित्व में आए
17 साल पूरे होने को हैं। सन् 2000 में जहां प्रदेश में
बेरोजगारों की संख्या तीन लाख से कम थी
, वह अब 10 लाख पार कर चुकी है। जबकि आज के दिन राज्य के विभागों और सार्वजनिक उपक्रमों
में
75 हजार से अधिक पद खाली हैं। सेवायोजन के आंकड़ों के मुताबिक
हरसाल करीब
50 हजार बेरोजगार पंजीकृत हो रहे हैं। चुनावी दावों
के बावजूद अब तक की कोई सरकार युवाओं को एक साल में
2000 से ज्यादा
नौकरियां नहीं दे सकीं।
समूह के पद खत्म कर दिए गए हैं और श्रेणी के पदों पर भर्ती के लिए खास कोशिशें नहीं हुई। अब सरकार तीन साल से
अधिक वक्त तक खाली रहने वाले पदों को ही समाप्त करने पर विचार रही है। ताकि जवाबदेही
से बच सके। ऐसे में राज्य में बेरोजगारी का आंकड़ा कहां पहुंचेगा अनुमान लगाना मुश्किल
नहीं होगा। इसके उलट अब तक की सरकारों ने राज्य में रोजगार नीति बनाने की बजाए विभागीय
कामकाज चलाने के लिए
आउटसोर्सको प्रमोट
करने की नीति पर जरूर फोकस किया।

जबकि, चुनाव दर चुनाव
हर राजनीतिक दल युवाओं से रोजगार दिलाने के आश्वासन पर ही वोट पाती रही। फिर क्यों
उनके 
सपनों से छल हुआ? राजनीतिज्ञ सरकारी, गैर सरकारी तमाम आंकड़ों को गिनाकर भले ही साबित कर दें उनके शासनकाल में रोजगार
बढ़ा। लेकिन वह केवल सफेद झूठ ही होगा
, और कुछ नहीं। लिहाजा,
सवाल कि राज्य में अगर बेरोजगारों की संख्या इसी तरह बढ़ती रही,
तो हालात क्या होंगे। डिग्री-डिप्लोमा के बाद भी बेरोजगार युवा अपने
सपनों को कैसे पूरा करेंगे। कहना मुश्किल है। सरकार अब भी जागेगी या नहीं यह भी कहना
मुश्किल है।

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