नजरिया
किसे है सभ्य बने रहने की जरुरत
जमाने के साथ बदलते पहाड़ी संगीत के बहाने कई बार बहसें शुरू हुई। उनके अब तक भले ही पूरी तरह से फलितार्थ न निकले हों। मगर बहस समाज को निश्चित तौर पर चिंतन के लिए प्रेरित करती है। यह आवश्यक भी है। दुनिया में दिखाने वाले तो ब्लू फिल्में भी परोस रहे हैं। लेकिन समझना तो समाज को है, कि सभ्य बने रहने की जरूरत किसको है। बाजारवाद में हर कोई ‘बेचने’ को उतावला है। मगर अच्छा–बुरा परखने की जिम्मेदारी तो हमारी है।
मैं खुद बीते २० सालों से गढ़वाली साहित्य के क्षेत्र में कार्यरत हूं। हालांकि सही मुकाम अब तक नहीं मिला। इसका एक कारण यह भी रहा कि मुझसे भी कई बार ‘सांस्कृतिक आतंक’ फैलाने वाले गीतों की डिमांड की गई। लेकिन मैंने अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को जानते हुए ‘समझौते’ की बजाय गुमनाम रहना मुनासिब समझा। यह इसलिए लिख रहा हूं, कि आम समाज पहले संस्कृतिकर्मियों की जिम्मेदारी है। वे कथित आधुनिकता के नाम पर समाज के सभ्य ढांचे को बिखेरने के लिए ‘बलास्टिंग’ न ही करें तो अच्छा। इसके लिए बारूद से पहाड़ों को तोड़ने वाले ही काफी हैं।
साहित्य, गीत–संगीत हर समाज के तानेबाने की बुनावट को दर्शाते हैं, यह उसकी पहचान भी होते हैं, और उत्तराखण्ड आंदोलन अपनी इसी सांस्कृतिक पहचान को जीवंत रखने के लिए लड़ा गया। लिहाजा, जिम्मेदारियों को बोझ तो हमें ही पीठ पर लादकर चलना होगा।
यहां ऐसा भी नहीं कि पहाड़ के परिदृश्य में अच्छे गीत लिखे और गाये नहीं जा रहे हैं। हां यह कहा जा सकता है, कि वे इस ‘घपरोळ’ में ‘बाजार’ का मुकाबला कमोबेश नहीं कर पाते। तब भी अच्छे लेखन को समय-समय पर जगह भी मिली। लोकसंस्कृति के संवाहक लोकगायक व गीतकार जीत सिंह नेगी, नरेन्द्र सिंह नेगी, चन्द्र सिंह राही, कमलनयन डबराल, हीरा सिंह राणा, स्व. गोपालबाबू गोस्वामी, स्व. महेश तिवारी इसकी मिसाल हैं। जिन्होंने अपने फन को ऐसे सांस्कृतिक आतंक का जरिया कभी नहीं बनाया।
लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी ने तो अपने एलबम ‘सलाण्या स्यळी’ के पहले ही गीत ‘तैं ज्वनि को राजपाट बांद’ से ऐसे ही करतबों को हत्तोत्साहित किया। लोकगायक प्रीतम भरतवाण के शुरूआती दौर के कुछ द्विअर्थी गीतों को भुल जाएं, तो अब वे भी एक जिम्मेदार संस्कृतिकर्मी की भूमिका को बखुबी निभा रहे हैं।
लिहाजा इस विमर्श में पहाड़ी समाज से यह अपील भी जरुरी रहेगी कि वे ऐसी एलबमों को खरीदने से बचें, और दूसरों को भी प्रेरित करें।
विमर्श- धनेश कोठारी