याद आली टिहरी (फिल्म समीक्षा)

हिमालयन फिल्मस् की गढ़वाली फिल्म ‘याद आली टिहरी’ ऐतिहासिक टिहरी बांध की पृष्ठभूमि में विस्थापित ‘लोकजीवन’ के अनसुलझे सवालों की पड़ताल के साथ – साथ बांधों से जुड़े जोखिमों, जरूरतों और औचित्य पर बहस जुटाने की कोशिश निश्चित करती है।
फिल्म की कहानी दिल्ली में नवम्बर 2005को अखबारों के पहले पन्ने पर टिहरी डुबने की बैनर न्यूज से शुरू होती है। जहां से प्रवासी उद्योगपति राकेश सकलानी डुबते टिहरी की ‘मुखजातरा’ को लौटता है। अट्ठारह वर्ष पहले वह अपनी मां की मौत और प्रेमिका से बिछुड़ने के बाद टिहरी से दिल्ली चला गया था। लौटने पर उसे ‘चौं-छ्वड़ी’ भरती झील में अपने हिस्से (लोक) का इतिहास, भूगोल, संस्कृति, जन-आस्था, विश्वास और जैव संपदा डुबती नजर आती है। इसी के बीच खुलती है उसकी यादों की गठरी, झील में तैरते दिखते हैं उसे कई अनुत्तरित प्रश्न, छितरे हुए अपने ‘लोक’ के रिश्ते। मौन स्वरों में सुनाई देते हैं उसे माँ के जरिये विस्थापन से उपजने वाली पीड़ा के कराहते शब्द, प्रेमिका सरिता के साथ बिताये खुशी के पल और बिछड़ने की वजहें।
डुबती टिहरी भले ही दुनियावी तमाशबीनों के लिए रोमांचक घटना रही हो। लेकिन राकेश के चश्में के दोनों लैंसों से अलग-अलग देखें तो बढ़ती आबादी की विद्युतीय आवश्यकताओं के लिए बांध विकल्प के तौर पर उभरता है, तो दूसरा- बस्तियों के उजड़ने की त्रासद घटनाओं का साक्षी भी बनता है बांध। जिसमें सिर्फ जमीन ही जल समाधि नहीं लेती; बल्कि मानवीय रिश्ते भी ‘पहाड़’ से ‘मैदान’ होकर रह जाते हैं। इन मैदानों में न पिपली के ओजलदास का ढोल सुनाई देता है, न मैधर की बनायी ‘सिंगोरी’, न रैठू की पकोड़ी का स्वाद, न अमरशाह की नथ की खूबसूरत गढ़थ, न हफीजन फूफू की कलाईयां सजाती चुड़ियां और न सरैं के रामू का घोड़ा मिलता है। जो दुनिया के लिए एंटिक न भी रहे हों। लेकिन टिहरी डुबने तक इस ‘लोक’ की पहचान अवश्य रहे हैं।
यादों में अपने पैतृक जमीन से गुजरते हुए राकेश को माँ के साथ अपना खेल्वार (खेलता हुआ) बचपन, सरिता के साथ पहली मुलाकात, ब्योला (दुल्हा) बनके आने का वादा, मुआवजा हड़पने के लिए चैतू-बैसाखू की ‘तीन-पत्ती’ जैसी कोशिशें झील के हरे पानी में तैरती हुई लगती हैं। वहीं विस्थापितों के साथ ही पर्यावरणविदों की बहसों से होते हुए राकेश टिहरी के उजड़ने-बसने के बीच सरकारी कारिन्दों के असल चेहरों को देखने का प्रयास भी करता है।
बांध को लेकर सवाल-जवाब की इस गहमागहमी में बहसें जुटती हैं और अनुत्तरित होकर इसी पानी में मोटर बोट से उठती लहरों की तरह फिर शांत हो जाती हैं। समय के लम्बे सफर में यादों को तलाशते हुए उसे सरिता मिल जाती है। वहीं, तब तक दिल्ली को अपना मान बैठे राकेश को सरिता द्वारा माटी न छोड़ने की जिद्द पर ‘टिहरी से दिल्ली’ की दूरी का अहसास होता है।
अनुज जोशी ने उत्तराखण्ड आन्दोलन पर बनी फिल्म ‘तेरी सौं’ के बाद एक बार फिर संवेदनशील मुद्दे को अपनी फिल्म का विषय बनाया। याद आली टिहरी की कथा-पटकथा के साथ ही निर्देशन के फ्रंट पर अनुज ने कहानी को बांधे रखने में खासी समझदारी दिखाई है। आखिरी तक बांधे हुए आगे बढ़ती फिल्म में हालांकि कुछ सवाल उठते हैं और अनुत्तरित रहकर ही टिहरी की तरह झील में समा जाते हैं। ऐसे में संवेदनशील विषयों पर एक साथ सब कुछ परोसने के लोभ के चलते अधूरी छुटती बहसों को भी समझा जा सकता है।
उधर, गढ़वाली फिल्म निर्माताओं के बीच यह कथित भ्रम गहरा है कि, पौड़ी, टिहरी, चमोली, उत्तरकाशी, देहरादून के लोग एक दूसरे की भाषा को बिलकुल नहीं समझते हैं। ऐसे में उपजती है एक नई भाषा। जिसमें जुड़ते हैं ‘आण्यां-जाण्यां, पता नि कू नौना थौ और था को थै जैसे कई अपभ्रंशित शब्द। फिल्म में दोनों प्रेमियों के बीच आखिरी तक मौजुद ‘आप’ भी खासा अखरता है, या कहें कि इन किरदारों में दोनों ‘मदन डुकलान जी’ व ‘उमा राणा जी’ ही बने रहते हैं।
प्रेमकथा के इर्दगिर्द बुनी फिल्म में नायक मदन डुकलान, रोशन धस्माना, मंजू बहुगुणा, कुलानन्द घनसाला व सोबन पुण्डीर ने अपने किरदारों को बखूबी निभाया है। जबकि उमा के अभिनय में अभी गुंजाईश बाकी लगती है। यद्यपि युवा चरित्र में कई जगह डुकलान भी असहज हुए है। फिल्म के गीत नरेन्द्र सिंह नेगी, मदन डुकलान, जितेन्द्र पंवार और जसपाल राणा ने लिखे हैं। आलोक मलासी के संगीत में नेगी, जितेन्द्र, आलोक, जसपाल के साथ किशन महिपाल व मीना राणा ने इन्हें गाया है। फिल्म के संवाद कुलानन्द घनसाला ने लिखे और कैमरा जयदेव भट्टाचार्य ने संभाला है।
निष्कर्षतः कहें कि ‘याद आली टिहरी’ जहां विस्थापितों की आंखों को नम करेगी तो बांध वाले भी समझेंगे कि विकास की कीमत चुकाते ऐसे बांध मानवीय हितों के कितने करीब हैं।
समीक्षक- धनेश कोठारी