गढवाली भाषा में समालोचना/आलोचना/समीक्षा साहित्य
(गढवाली अकथात्मक गद्य-३)
(Criticism in Garhwali Literature)
यद्यपि आधिनिक गढवाली साहित्य उन्नीसवीं सदी के अंत व बीसवीं सदी के प्रथम वर्षों में प्रारम्भ हो चूका था और आलोचना भी शुरू हो गयी थी. किन्तु आलोचना का माध्यम कई दशाब्दी तक हिंदी ही रहा.
यही कारण है कि गढवाली कवितावली सरीखे कवि संग्रह (१९३२) में कविता पक्ष, कविओं की जीवनी व साहित्यकला पक्ष पर टिप्पणी हिंदी में ही थी. गढवाली सम्बन्धित भाषा विज्ञानं व अन्य भाषाई अन्वेषणात्मक, गवेषणात्मक साहित्य भी हिंदी में ही लिखा गया. वास्तव में गढवाली भाषा में समालोचना साहित्य की शुरुवात ‘गढवाली साहित्य की भूमिका (१९५४) पुस्तक से हुयी.
फिर बहुत अंतराल के पश्चात १९७५ से गाड म्यटेकि गंगा के प्रकाशन से ही गढवाली में गढवाली साहित्य हेतु लिखने का प्रचलन अधिक बढ़ा. यहाँ तक कि १९७५ से पहले प्रकाशित साहित्य पुस्तकों की भूमिका भी हिंदी में ही लिखीं गईं हैं.
देर से ही सही गढवाली आलोचना का प्रसार बढ़ा और यह कह सकते हैं कि १९७५ ई. से गढवाली साहित्य में आलोचना विधा का विकास मार्ग प्रशंसनीय है.
भीष्म कुकरेती के शैलवाणी वार्षिक ग्रन्थ (२०११-२०१२) का आलेख ‘गढवाली भाषा में आलोचना व भाषा के आलोचक’ के अनुसार गढवाली आलोचना में आलोचना के पांच प्रकार पाए गए हैं
१- रचना संग्रहों में भूमिका लेखन
२- रचनाओं की पत्र पत्रिकाओं में समीक्षा
३- निखालिस आलोचनात्मक लेख.निबंध
४- भाषा वैज्ञानिक लेख
५- अन्य प्रकार
रचना संग्रन्हों व अन्य माध्यमों में गढवाली साहित्य इतिहास व समालोचना /समीक्षा
रचना संग्रहों में गढवाली साहित्य इतिहास मिलता है जिसका लेखा जोखा इस प्रकार है
गाड म्यटेकि गंगा (सम्पादक अबोधबंधु बहुगुणा, १९७५) : गाड म्यटेकि गंगा की भूमिका लेखक अबोधबंधु बहुगुणा व उपसंपादक दुर्गाप्रसाद घिल्डियाल हैं. भूमिका में गढवाली गद्य का आद्योपांत इतिहास व गढवाली गद्य के सभी पक्षों व प्रकारों पर साहित्यिक ढंग से समालोचना हुयी है. गाड म्यटेकि गंगा गढवाली समालोचना साहित्य में ऐतिहासिक घटना है
शैलवाणी (सम्पादक, अबोधबंधु बहुगुणा १९८१) : ‘शैलवाणी’ विभिन्न गढवाली कवियों का वृहद कविता संग्रह है और ‘गाड म्यटेकि गंगा’ की तरह अबोधबन्धु बह्गुणा ने गढवाली कविता का संक्षिप्त समालोचनात्मक इतिहास लिखा व प्रत्येक कवि कि संक्षिप्त काव्य सम्बंधित जीवनी भी प्रकाशित की. शैलवाणी गढवाली कविता व आलोचना साहित्य का एक जगमगाता सितारा है.
गढवाली स्वांग को इतिहास (लेख) : मूल रूप से डा सुधा रानी द्वारा लिखित ‘गढवाली नाटक’ (अधुनिक गढवाली नाटकों का इतिहास) का अनुवाद भीष्म कुकरेती ने गढवाली में कर उसमें आज तक के नाटकों को जोड़कर ‘चिट्ठी पतरी’ के नाट्य विशेषांक व गढवाल सभा, देहरादून के लोक नाट्य सोविनेअर (२००६) में भी प्रकाशित करवाया.
अंग्वाळ (250 से अधिक कविओं का काव्य संग्रह, स. मदन डुकलाण, २०११) की भूमिका में भीष्म कुकरेती ने १९०० ई. से लेकर प्रत्येक युग में परिवर्तन के दौर के आने से गढवाली कविता को आँका व अब तक सभी कवियों की जीवन परिचय व उनके साहित्य के समीक्षा भी की गयी. यह पुस्तक एवम भीष्म कुकरेती की गढवाली कविता पुराण (इतिहास) इस सदी की गढवाली साहित्य की महान घटनाओं में एक घटना है. गढवाली कविता पुराण ‘मेरा पहाड़’ (२०११) में भी छपा है.
आजौ गढवाली कथा पुराण (आधुनिक गढवाली कथा इतिहास) अर संसारौ हौरी भाषौं कथाकार : भीष्म कुकरेती द्वारा आधुनिक गढवाली कहानी का साहित्यिक इतिहास, आधुनिक गढवाली कथाओं की विशेषताओं व गुणों का विश्लेष्ण ‘आजौ गढवाली कथा पुराण (आधुनिक गढवाली कथा इतिहास) अर हौरी भाषौं कथाकार’ नाम से शैलवाणी साप्ताहिक में सितम्बर २०११ से क्रमिक रूप से प्रकाशित हो रहा है. इस लम्बे आलेख में भीष्म कुकरेती ने गढवाली कथाकारों द्वारा लिखित कहानियों के अतिरिक्त १९० देशों के २००० से अधिक कथाकारों की कथाओं पर भी प्रकाश डाला है.
क्रमश:–
द्वारा- भीष्म कुकरेती