आधुनिक गढवाली भाषा कहानियों की विशेषतायें और कथाकार
(Characteristics of Modern Garhwali Fiction and its Story Tellers)
कथा कहना और कथा सुनना मनुष्य का एक अभिन्न मानवीय गुण है. कथा वर्णन करने का सरल व समझाने की सुन्दर कला है अथवा कथा प्रस्तुतीकरण का एक अबूझ नमूना है यही कारण है कि प्रत्येक बोली-भाषा में लोककथा एक आवश्यक विधा है. गढ़वाल में भी प्राचीन काल से ही लोक कथाओं का एक सशक्त भण्डार पाया जाता है. गढ़वाल में हर चूल्हे का, हर जात का, हर परिवार का, हर गाँव का, हर पट्टी का अपना विशिष्ठ लोक कथा भण्डार है. जहाँ तक लिखित आधुनिक गढ़वाली कथा साहित्य का प्रश्न है यह प्रिंटिंग व्यवस्था सुधरने व शिक्षा के साथ ही विकसित हुआ. संपादकाचार्य विश्वम्बर दत्त चंदोला के अनुसार गढ़वाली गद्य की शुरुवात बाइबल की कथाओं के अनुवाद (१८२० ई. के करीब) से हुयी (सन्दर्भ: गाड मटयेकि गंगा १९७५). गढ़वालियों में सर्वप्रथम डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर पद प्राप्तकर्ता गोविन्द प्रसाद घिल्डियाल ने (उन्नीसवीं सदी के अंत में) हितोपदेश कि कथाओं का अनुवाद पुस्तक छापी थी (सन्दर्भ :गाड म्यटेकि गंगा).
आधुनिक गढ़वाली कहानियों के सदानंद कुकरेती
आधुनिक गढ़वाली कथाओं के जन्म दाता विशाल कीर्ति के संपादक, राष्ट्रीय महा विद्यालय सिलोगी, मल्ला ढागु के संस्थापक सदा नन्द कुकरेती को जाता है. गढवाली ठाट के नाम से यह कहानी विशाल कीर्ति (१९१३) में प्रकाशित हुयी थी. इस कथा का आधा भाग प्रसिद्ध कलाविद बी. मोहन नेगी, पौड़ी के पास सुरक्षित है. कथा में चरित्र निर्माण व चरित्र निर्वाह बड़ी कुशलता पुर्वक हुआ है. गढवाळी विम्बों का प्रयोग अनोखा है, यथा :
“गुन्दरू की नाक बिटे सीम्प कि धार छोड़िक विलो मुख, वैकी झुगली इत्यादि सब मैला छन, गणेशु की सिरफ़ सीम्प की धारी छ पण सबि चीज सब साफ़ छन. यांको कारण, गुन्दरू की मां अळगसी’ ख़ळचट अर लमडेर छ. भितर देखा धौं! बोलेंद यख बखरा रौंदा होला. मेंल़ो (म्याळउ) ख़णेक घुळपट होयुं च. भितर तकाकी क्वी चीज इनै क्वी चीज उनै. सरा भितर तब मार घिचर पिचर होई रये. अपणी अपणी जगा पर क्वी चीज नी. भांडा कूंडा ठोकरियों मा लमडणा रौंदन. पाणी का भांडों तलें द्याखो धौं. धूळ को क्या गद्दा जम्युं छ. युंका भितर पाणी पेण को भी ज्यू नि चांदो. नाज पाणी कि खाताफोळ, एक मणि पकौण कु निकाळण त द्वी माणी खते जान्दन, अर जु कै डूम डोकल़ा, डल्या, भिकलोई तैं देण कु बोला त हे राम! यांको नौं नी.
रमा प्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’ ने इस कथा को पुन: ’गुन्दरू कौंका घार स्वाळ पक्वड़’ शीर्षक के नाम से ‘हिलांस’ में प्रकाशित किया था.
सदानंद कुकरेती ( १८८६-१९३८) का जन्म ग्वील-जसपुर, मल्ला ढागु, पौड़ी गढ़वाल में हुआ था. वे विशाल कीर्ति के सम्पादक भी थे.
गढवाली ठाट के बारे में रामप्रसाद पहाड़ी का कथन सही है कि यह कथा दुनिया की १०० सर्वश्रेष्ठ कथाओं में आती है. कथा व्यंगात्मक अवश्य है और कथा में सुघड़ व आलसी, लापरवाह स्त्रियों के चरित्र की तुलना हास्य, व्यंग्य शाली बहुत रोचक ढंग से हुआ है. कथा असलियत वादी तो है, वास्तविकता से भरपूर है, किन्तु पाठक को प्रगतिशीलता की ओर ल़े जाने में भी कामयाब है. कथा का प्रारभ व अंत बड़ी सुगमता व रोचकता से किया गया है भाषा सरल व गम्य है. भाषा के लिहाज से जहाँ ढागु के शब्द सम्पदा कथा में साफ़ दीखती है रमती है वहीं सदानंद कुकरेती ने पौड़ी व श्रीनगर कई शब्द व भौण भी कथा में समाहित किये हैं जो एक आश्चर्य है.
‘गढवाली ठाट’ के बारे में अबोधबंधु बहुगुणा (सं-२) लिखते हैं ‘सचमुच में गद्य का ऐसा नमूना मिलना गढ़वाली का बढ़ा भाग्य है. बंगाली, मराठी आदि भाषाओं में भी साहित्यिक गद्य की अभिव्यक्ति उस समय नहीं पंहुची थी. यहाँ तक कि हिंदी में भी उस समय (सन १९१३ ई. में) गद्य अभिव्यक्ति इतनी रटगादार, रौंस (आनन्द, रोचक) भरी मार्मिक नहीं थी. इस तरह कि हू-ब-हू चित्रांकन शैली के लिए हिंदी भी तरसती थी.
गढवाल कि दिवंगत विभुतियाँ के सम्पादक भक्तदर्शन का कथन है “सदानंद कुकरेती चुटीली शैली में प्रहसनपूर्ण कथा आलोचना के लिए प्रसिद्ध हैं”
डा. अनिल डबराल का कहना है कि सदानंद कुकरेती कि अभिव्यक्ति की प्रासगिता आज भी बराबर बनी है.
भीष्म कुकरेती के अनुसार (सन्दर्भ-1) सदानंद कुकरेती का स्थान ब्लादिमीर नबोकोव, फ्लेंनरी ओ’कोंनर, कैथरीन मैन्सफील्ड, अर्न्स्ट हेमिंगवे, फ्रांज काफ्का, शिरले जैक्सन, विलियम कारोल विलियम्स, डीएच लौरेन्स, सीपी गिलमैन, लिओ टाल्स्टोय, प्रेमचंद, इडगर पो, ओस्कार वाइल्ड जैसे संसार के सर्वश्रेष्ठ कथाकारों की श्रेणी में आते हैं.
परुशराम नौटियाल : अबोध बंधु बहुगुणा ने गाड म्यटयेकि गंगा (पृ ४०) में लिखा है. श्री परुशराम कि ‘गोपू’ आदि दो कहानियाँ इस दौरान ( १९१३-१९३६) प्रकाशित हुईं थीं.
श्री देव सुमन : बहुगुणा के अनुसार श्रीदेव सुमन ने ‘बाबा’ नाम कि कथा जेल में लिखी थी.
आधुनिक गढ़वाली का प्रथम कहानी संग्रह ‘पांच फूल’
भगवती प्रसाद पांथरी (टिहरी रियासत, १९१४- स्वर्गीय) ने ‘१९४७ में पाँच फूल’ कथा संग्रह प्रकाशित किया जो कि गढवाली का प्रथम कहानी संग्रह है. ‘पांच फूल’ में ‘गौं की ओर’, ‘ब्वारी’, ‘परिवर्तन’, ’आशा’, और न्याय पांच कहानियाँ है. पांथरी की कथाएं प्रेरणादायक व नाटकीयता लिए हैं. अबोध के अनुसार ब्वारी यथार्थवादी कहानी है और इसे बहुगुणा कथा साहित्य हेतु विशिष्ठ देन बताता है
रैबार कहानी विशेषांक (१९५६ ई.): सतेश्वर आज़ाद के सम्पादकत्व में डा. शिवानन्द नौटियाल, भगवतीचरण निर्मोही, कैलाश पांथरी, दयाधर बमराड़ा, कैलाश पांथरी, उर्बीदत्त उपाध्याय व मथुरादत्त नौटियाल की कहानियाँ प्रकाशित हुईं. गढवाली साहित्य इतिहास में ‘रैबार’ का यह प्रथम गढवाली कथा विशेषांक एक सुनहरा पन्ना है (सन्दर्भ -४)
दयाधर बमराड़ा(धारकोट, बगड़स्यूं १९४३-दिवंगत) दयाधर बमराड़ा अपने उपन्यास हेतु प्रसिद्ध है, इनकी कथा रैबार (१९५६) में छपी है
डा. शिवानन्द नौटियाल (कोठला, कण्डारस्यूं, पौड़ी गढ़वाल १९३६) चंद्रा देवी, पागल, हे जगदीश, चुप रा, दैणि ह्व़ेजा, सेळी या आग (१९५६), धार मांकी गैणि जैसी उत्कृष्ट कहानियां प्रकाश में आई हैं. सभी कहानियां १९६० से पहले की ही हैं. डा. अनिल के अनुसार डा. नौटियाल की अपणी विशिष्ठ क्षेत्रीय शैली कहानी में दिखती है.
भगवती चरण निर्मोही (देवप्रयाग, १९११-१९९०) भगवती प्रसाद निर्मोही की कहानियाँ रैबार व मैती (१९७७ का करीब) में प्रकाशित हुईं जिनकी प्रशंसा अबोधबंधु व डा. अनिल डबराल ने की.
काशीराम पथिक की कथा ‘भुला भेजी देई’ मैती (१९७७) में छपी और यह कहानी सवर्ण व शिल्पकारों के सांस्कृतिक संबंधों की खोजबीन करती है.
उर्बीदत्त उपाध्याय (नवन, सितौनस्युं १९१३ दिवंगत ) के दो कथाएँ ‘रैबार’ में प्रकाशित हुईं
भगवती प्रसाद जोशी ‘हिमवंतवासी’ (जोशियाणा, गंगा सलाण १९२०- दिवंगत ) डा. अनिल के अनुसार जोशी सामान्य प्रसंगों को मनोहारी बनाने में प्रवीन है. चरित्रों को व्यक्तित्व प्रदान करने के मामले में जोशी व रमाप्रसाद पहाड़ी में साम्यता है. शैली में नये मानदंड मिलते हैं. वातावरण बनाने हेतु हिमवंतवासी प्रतीकों से विम्बों को सरस बाना देते हैं. भाषा में सल़ाणी पन साफ़ झलकता है.
गढ़वाली कहानी का वेग-सारथी मोहनलाल नेगी (बेलग्राम, अठूर, टिहरी गढ़वाल १९३०- स्वर्गीय) प्रथम आधुनिक गढ़वाली कहानी प्रकाशित होने के ठीक ५५ साल उपरान्त मोहनलाल नेगी ने गढवाली कहानी को नव अवतार दिया जब नेगी ने १९६७ में ‘जोनी पर छापु किलै?’ नामक कथा संग्रह प्रकाशित किया. नेगी ने दूसरा कथा संग्रह ‘बुरांस की पीड़’ १९८७ में प्रकाशित हुआ. डा. अनिल डबराल व अबोधबन्धु बहुगुणा के अनुसार मोहनलाल नेगी के २१-२५ गढ़वाली में कहानियां प्रकाशित हुईं. नेगी के कहानियों में विषय विविधता है. मोहनलाल नेगी संवेदनाओं को विषय में मिलाने के विशेषज्ञ है. लोकोक्तियों का प्रयोग लेखक कि विशेष विशेषता बन गयी है. डा. अनिल अनुसार मोहनलाल नेगी भाषा क्रीडा में माहिर हैं. कहानियों में कथाक्रम व विषय अनुसार वातावरण तैयार करने में कथाकार सुयोग्य है. मोहनलाल के कथाओं में भाषा लक्ष्य पाने में समर्थ है. यह एक आश्चर्य ही है कि मोहनलाल नेगी के दोनों संग्रह २० साल के अंतराल में प्रकाशित हुए और दोनों संग्रहों में शैली व तकनीक में अधिक अंतर नहीं दिखता. डा. अनिल डबराल के अनुसार ‘इन तकनीकों के अधिक विकास का अवकाश नेगी जी को नहीं मिला’.
आचार्य गोपेश्वर कोठियाल (उदखंडा, कुंजणि टि.ग. १९१०-२००२) आचार्य कोठियाल कि कुछ कथाएं १९७० से पहले युगवाणी आदि समाचार पत्रों में छपीं. कथाओं में टिहरी के विम्ब उभर कर आते हैं
शकुन्त जोशी (पौड़ी ग.) जोशी की कथाएँ मैती (१९७७) में छपीं हैं तो काशीराम पथिक की (मैती १९७८) की ‘भुला भेजी देई’ व चन्द्रमोहन चमोली की सच्चा बेटा (बडुली १९७९) कथाओं का सन्दर्भ भी मिलता है (सं. ४)
पुरूषोत्तम डोभाल (मुस्मोला, टि.ग. १९२० -दिवंगत) डोभाल की प्रथम कहानी ‘बाडुळी (१९७९) में प्रकाशित हुयी और डोभाल ने चार पाँच कथाएँ छपीं हैं. कथाएं सौम्य व सामाजिक परिस्थितियों को बताने में समर्थ हैं.
गढ़वाली कथाओं को शिष्टता हेतु का कथाकार अबोधबंधु बहुगुणा (झाला,चलणस्यूं, पौ.ग १९२७-२००७): अबोधबंधु बहुगुणा ने गढ़वाली साहित्य के हर विधा में विद्वतापूर्ण ‘मिळवाक’/भागीदारी ही नहीं दिया अपितु नेतृत्व भी प्रदान किया है. बहुगुणा ने गढवाली कथाओं को नया कलेवर दिया जिसे भीष्म कुकरेती अति शिष्टता की ओर ल़े जाने वाला मार्ग कहता है. बहुगुणा की कथाओं में वह सब कुछ है जो कथाओं में होना चाहिए. बहुगुणा ने भाषा में निपट/घोर ग्रामीण गढवालीपन को छोड़ संस्कृतनिष्ट भाषा को अपनाने की कोशिश भी की है. कथा कुमुद व रगड़वात दो कथा संग्रह गढवाली कथा साहित्य के नगीने हैं. अबोधबंधु की कथाएं बुद्धिजीवियों हेतु अधिक हैं.
डा अनिल का मानना है कि बहुगुणा की कई कथाओं में बहुगुणा मनोवैज्ञानिक शैली में लेखक किशी शब्द विशेष का प्रयोग कर पाठक को बोध या चिन्ताधारा की दिशा निर्धारित कर देता है. अनिल डबराल का मानना है बहुगुणा कि कथाओं में लोकजीवन के प्रति अनुसंधानात्मक प्रवृति भी पायी जाती है बहुगुणा शब्दों के खिलाड़ी भी है तथापि शब्द, मुहावरों में गरिमा भी है. बहुगुणा ने भुग्त्युं भविष्य उप्न्यास भी प्रकाशित किया है. भीष्म कुकरेती ने अबोध को गढवाली साहित्य का सूर्य की संज्ञा दी है.
गढ़वाली कहानियों का परिपुष्टकर्ता दुर्गाप्रसाद घिल्डियाल (पदाल्यूं, कुटूळस्यूं, पौड़ी ग., १९२३-२००२) भीष्म कुकरेती के अनुसार दुर्गाप्रसाद घिल्डियाल के बगैर गढवाली कथाओं के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता. घिल्डियाल के तीन गढवाली कथा संग्रह ‘गारी’ (१९८४), ‘म्वारी’ (१९९८६), और ‘ब्वारी (१९८७ )’ गढ़वाली साहित्य के धरोहर हैं. उच्याणा दुर्गाप्रसाद का उपन्यास भी गढवाली में छपा है. सभी ४० कहानियों की विषय वस्तु का केंद्र गढवाली जनमानस अथवा जीवन है. डा डबराल के अनुसार चरित्र चित्रण के मामले में दुर्गाप्रसाद घिल्डियाल सफल कथाकार है. घिल्डियाल का प्राकृत वातावरण से अधिक ध्यान देश-काल की ओर रहता है. डा अनिल के अनुसार घिल्डियाल को जितनी सफलता कथा वस्तु, विचार तत्व व पात्रों के निर्माण में मिली है उतनी सफलता भाषा सृजन में नहीं मिली है. यानी कि अलंकारिक नहीं अपितु सरल है.
प्रयोगधर्मी भीष्म कुकरेती (जसपुर , मल्ला ढान्गु पौ.ग. १९५२) भीष्म कुकरेती की पहली गढवाली कहानी ‘कैरा कु कतल’ (अलकनंदा १९८३) है जो की एक प्रकार से गढवाली में एक प्रायोगिक कहानी है. कथा में प्रत्येक वाक्य में ‘क’ अक्षर अवश्य है याने की अनुप्राश अलंकार का प्रयोग है. कुकरेती की अब तक पचीस से अधिक कहानियाँ गढवाली में अलकनंदा, बुरांश, हिलांस, घाटी के गरजते स्वर, गढ़ ऐना आदि में प्रकाशित हुए हैं. अबोधबन्धु के अनुसार भीष्म कुकरेती की मुख्यतया चार प्रकार की कहानियाँ हैं- स्त्री दुःख व सम्वेदनात्मक (जैसे ‘दाता की ब्वारी कन दुखायारी’ कीड़ी बौ’ देखें सन्दर्भ -४ ), व्यंग्य व हास्य मिश्रित कथाएँ जैसे ‘वी. सी. आर को आण ‘ बाघ, मेरी वा प्रेमिका’ ‘प्रेमिका की खोज’ आदि (देखें कौन्ली किरण पृष्ठ १४७) या डा अनिल डबराल (पृष्ठ २४४) की समालोचना. तीसरा सामाजिक चेतना युक्त कहानियां जैसे ‘बिट्ठ भिड्याणो सुख या सवर्ण स्पर्श सुख’ व अन्य विवध कथाएँ जिनमे कई कथाएँ मनोविज्ञानिक (जैसे नारेण दा) कथाएँ हैं.
भीष्म कुकरेती विषयगत व शैलीगत प्रयोग से कतई नही घबराता व भीष्म की एक कथा’ घुघोति बसोती’ (घाटी के गरजते स्वर (१९८९) स्त्री समलैंगिक संबंधों पर आधारित कथा है जिस पर मुंबई की शैल सुमन संस्था की एक बैठक में बड़ी बहस भी हुयी थी कि गढवाली में ऐसी कहानी की आवश्यकता है कि नही?.
डा अनिल के अनुसार भीष्म की कहानियों में चुटीलापन होता है. व अपनी बात सटीक ढंग से कहता है. वहीं बहुगुणा ने भीष्म की कहानियों में गहरी सम्वेदना पायी है.
भीष्म कुकरेती ने विदेशी भाषाओं की कुछ कथाओं का गढवाली में अनुवाद भी प्रकाशित किया है (गढ़ ऐना १९८९-१९९०)
रमाप्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी ‘ (जन्म-बड़ेथ ढान्गु, पैत्रिक गाँव डांग, श्रीनगर पौड़ी ग. १९११-२००२) की ‘मेरी मूंगा कख होली’ (हिलांस १९८१) व ‘ घूंड्या द्यूर ‘ (हिलांस १९८०) नाम कि दो कहानियाँ प्रकाशित हुईं. जहां मेरी मूंगा संस्मंरणात्मक शैली में है जिसमे बड़ेथ से व्यासचट्टी बैसाखी मेले जाने का वृतांत दीखता है, वंही घूंड्या द्यूर एक सामाजिक संस्कार पर चोट करती हुयी चेतना सम्वाहक कहानी है. डा अनिल डबराल (३) के अनुसार इस कथा का विषय पुरुष विशेष और स्त्री विशेष के सौन्दर्यवोध पर आधारित है.
नित्यानंद मैठाणी (श्रीनगर, पौ.ग. १९३४) ने कुछेक मौलिक गढ़वाली कथाएँ दी हैं. किन्तु मैठाणी का योगदान आकाशवाणी में गढवाली कथाओं का बांचना, डोगरी, कश्मीरी कथाओं का अनुबाद आकाशवाणी से आदि में ही अधिक है. नित्यानंद की कथाओं में पैनापन, व नाटकीयता की विशषता है नित्यानंद का उपन्यास ‘निमाणी’ गढवाली कथा साहित्य का एक चमकता मणि है .
कुसुम नौटियाल : कुसुम नौटियाल के दो कथाएं हिलांस ( काफळ १९८१, नाच दो मैना , १९८२ ) मै प्रकाशित हुईं.
सम्वेदनाओं का चितेरा सुदामा प्रसाद डबराल प्रेमी (फल्दा, पटवालस्यूं, पौ.ग १९३१) सुदामा प्रसाद डबराल ‘प्रेमी’ का गढवाली कथा संसार को काफी बड़ा है, सुदामा प्रसाद ‘प्रेमी’ के तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं. गैत्री की ब्व़े (१९८५) संग्रह में छपी. कथाएँ सरल, व प्रेरणा सूत्र लिए होती हैं. कथाओं में सरल बहाव होता है. कई कथाएँ ऐसी लगती हैं जैसी कोई लोककथा हो. कथाकार सुदामा प्रसाद ने गढवाली कहावतों से कथाओं का अच्छा प्रयोग किया है. डा अनिल के अनुसार भाषा ढबाड़ी है (हिंदी-गढवाली मिश्रित)
सुधारवादी कथाकार डा. महावीर प्रसाद गैरोला ( दालढुंग, बडीयारगढ़, टि.ग १९२२-२००९) ने बीस से अधिक कथाएँ प्रकाशित की हैं वह उपन्यास गढवाली में प्रकाशित हैं. हिंदी के मूर्धन्य कथाकार और समालोचक डा. गंगा प्रसाद विमल, डा. महावीर गैरोला को सुधारवादी कथाकार मानते हैं किन्तु गैरोला की सुधारवादी कथाएं बोझिल नहीं रोचक हैं. डा. महावीर प्रसाद की कथाओं में टिहरी की बोलचाल की बोली, टिहरी की ठसक अवश्य मिलती है. कभी-कभी ऐसे शब्द भी मिलते हैं जो पौड़ी गढवाल से ब्रिटिश सत्ता व पढ़ाई लिखाई के कारण लुप्त हो गए हैं. संवाद, चरित्रों के चरित्र को उजागर करने में सक्षम हैं. कथा कहने का ढंग पारम्परिक है और अधिकतर कथाएं पीड़ा लिए अवश्य हैं किन्तु सुखांत में बदल जाती हैं.
बालेन्दु बडोला (मूल गाँव बडोली, चौन्दकोट, पौ.ग.). बालेन्दु बडोला ने चालीस से अधिक कथाएं हिलांस (१९८५ के बाद), चिट्ठी पतरी, युगवाणी जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित की हैं. बालेन्दु की कथाओं पर लोक कथाओं की शैल़ी का भी प्रभाव दीखता है. कथाएँ बहु विषयक हैं व कथा कहने का ढंग पारम्परिक है. चरित्र व विषयवस्तु आम गढवाली के व गढवाल सम्बन्धी हैं किन्तु कई कथाओं में चरित्र काल्पनिक भी लगते हैं. भाषा सरल व वहाव लिए होती है. ऐसा लगता है बालेन्दु परम्परा तोड़ने से बचता है. बालेन्दु की कहानियों में प्रेरणादायक पन अधिक है, किन्तु ऐसी कथाओं में रोचकता की कमी नहीं झलकती. गढवाली प्रतीकों के अतिरिक्त कई हिंदी कहावतों का गढवाली में अनुवाद भी मिलता है. वर्तमान में बालेन्दु की कथाएँ युगवाणी मासिक पत्रिका में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं. बालेन्दु बडोला ने बालकथाएँ भी प्रकाशित किये हैं (हिलांस, चिट्ठी पतरी, युगवाणी).
सदानंद जखमोला (चन्दा, शीला, पौ. ग. १९००-१९७७ ) के पाच कथाएँ प्रकाशित हूई जैसे- छौं को वैद (गढ़ गौरव १९८४)
लोक मानस का चितेरा कथाकार प्रताप शिखर (कोटि, कुणजी, टिहरी ग. १९५२) प्रताप शिखर का कथा संग्रह ‘कुरेड़ी फटगे ‘ (१९८९) में नौ कथाएँ संग्रहीत हैं. कथाओं में समाज का असलियतवादी चित्रण है, कई कथाएँ रेखाचित्र भी बन जाती है, प्रताप शिखर टिहरी भाषा का प्रयोग करता है जो कि कथाओं को एक वैशिष्ठ्य प्रदान करने म सक्षम है.
कुसुम नौटियाल की दो ही कथाओं का जिक्र गढवाली साहित्यिक इतिहास में मिलता है (बहुगुणा १९९०) और दोनों कथाएं हिलांस (१९८१, १९८२) में प्रकाशित हुयी हैं. कथाएं सम्वेदनशील हैं व गढवाली कथाओं को एक नया दौर देने की पहल में शामिल होने के कोशिश भी.
पूरण पंत पथिक (अस्कोट, चौन्दकोट, पौ ग १९५१) पंत की दो कथाएं (हिलांस १९८३ व चिट्ठी २१ वां अंक) प्रकाशित हुए हैं. कथाओं में कथात्व कम है विचार उत्प्रेरणा अधिक है (डा अनिल). हाँ व्यंग्यात्मक पुट अवश्य मिलता है (बहुगुणा, सं. ४ व ६)
मनोविज्ञानी कथाकार कालीप्रसाद घिल्डियाल (पदाल्युं, कटळस्यूं ,१९३०) गढ़वाली नाटकवेत्ता कालीप्रसाद घिल्डियाल की केवल तीन कहानियां प्रकाश में आई हैं (हिलांस १९८४). कालीप्रसाद की कहानियों में जटिल मनोविज्ञान मिलता है, जो कि गढवाली कथाओं के लिए एक गतिशीलता का परिचायक भी बना. जटिल मनोविज्ञान को सरलता से कालीप्रसाद घिल्डियाल कथा धरातल पर लाने में सक्षम है.
जबर सिंह कैंतुरा (रिंगोली, लोत्सू, टि.ग. १९५६) : जबर सिंह कैंतुरा की कथाएं हिलांस (१९८६), धाद (१९८८) आदि पत्रिकाओं में दस-बारह कथाएं प्रकाशित हुयी हैं. कथाओं में मानवीय सम्वेदना, संघर्ष, शोषण की नीति, पारवारिक सम्बन्ध प्रचुर मात्र में मिलता है (कैंतुरा की भीष्म कुकरेती से बातचीत, ललित केशवान का पत्र व डा. अनिल डबराल). भाषा टिहरी की है व कई स्थानीय शब्द गढवाली शब्द भण्डार के लिए अमूल्य हैं. कैंतुरा का कथा संग्रह प्रकाशाधीन है
मोहनलाल ढौंडियाल (दहेली, गुराड़स्यूं, १९५६) कवि ढौंडियाल के दो कथाएं हिलांस व धाद (१९८५-८६) में छपी हैं. कथाएँ सीख व परंपरा संबंधी हैं (लेखक की भीष्म कुकरेती से बातचीत व केशवान)
विजय सिंह लिंगवाल : विजय सिंह लिंगवाल के एक कहानी (हिलांस १९९८८) में प्रकाशित हुयी जो डा अनिल अनुसार सरल, सहज व मुहावरेदार है
जगदीश जीवट: जीवट के एक कहानी ‘दिन’ धाद १९८८) प्रकाश में आई है जो सरस है.
विद्यावती डोभाल (सैंज, नियली, टि.ग. १९०२ -१९९३) कवित्री विद्यावती डोभाल की कहानी ‘रुक्मी’ (धाद १९८९) उनकी प्रसिद्ध कहानियों में एक है
खुशहाल सिंह ‘चिन्मय सायर’ (अन्दर्सौं, डाबरी, पौ ग. १९४८) कवि ‘चिन्मय सायर’ की एक लघुकथा ‘धुवां’ (चिट्ठी २१ वां अंक) में प्रकाशित हुयी.
विजय गौड़ : हिंदी के कवि विजय गौड़ की ‘कथा ‘भाप इंजिन’ (चिट्ठी २१ वां अंक) गढवाली में अति आधुनिक कहानी मानी जाती है
विजय कुमार ‘मधुर’ (रडस्वा, रिन्ग्वाड़स्यूं १९६४ ) विजय कुमार ‘मधुर’ ने तीन कहानियाँ प्रकाशित हुयी हैं जैसे चिट्ठी-२१ वां अंक. एक बालकथा भी छपी है.
गिरधारीलाल थपलियाल ‘कंकाल (श्रीकोट, पौ.ग. १९२९-१९८७) : नाटककार , कवि गिरधारीलाल थपलियाल ‘कंकाल’ के एक ही कथा ‘सुब्यदरी’ (धाद १९८८) प्रकाशित हुयी दिखती है. कथ्य मुहावरदार और चपल किसम की शैली में है
जगदम्बा प्रसाद भारद्वाज : भारद्वाज की एक ही कहानी मिलती है – सच्चु सुख की कहानी, धाद १९८८. कहानी अभुवाक्ति कौशल का एक उम्दा नमूना है
सुरेन्द्र पाल : प्रसिद्ध गढवाली कवि की कथा ‘दानौ बछरू’ एवम ‘नातो’ (धाद १९८८) गढवाली कथा के मणि हैं
मोहन सैलानी : मोहन सैलानी के कथा ‘घोल’ (धाद १९९०) एक वेदनापूर्ण कहानी है.
महेंद्र सिंह रावत : रावत के एक ही कहानी गाणी (धाद १९९० ) प्रकाशित हुयी है.
सतेन्द्र सजवाण : सतेन्द्र सजवाण के एक कहानी ‘मा कु त्याग’ (बुग्याल १९९५) प्रकाश में आई है .
बृजेंद्र सिंह नेगी (तोळी, मल्ला बदलपुर, पौ. ग. १९५८ ) बृजेंद्र की अब तक पचीस से अधिक कथाएं प्रकाशित हो चुकी हैं व अधिकतर युगवाणी मासिक में प्रकाशित हुयी है. सं २००० के पश्चात् ही ‘उमाळ’ व ’छिट्गा’ नाम से दो कथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. कथा विषय गाँव, मानवीय सम्बन्ध, अंधविश्वास, समस्या संघर्ष, आदि हैं जो आम आदमी की रोजमर्रा जिन्दगी से सम्बन्ध रखते हैं. भाषा में सल़ाणी भाषा की प्रचुरता है, स्थानीय मुहावरों से कथा में वहाव आ जाता है. पारंपरिक शेली में लिखी कथाएं आम आदमी को लुभाती भी हैं (ललित केशवान का पत्र व भीष्म कुकरेती की लेखक से बातचीत )
ललित केशवान (सिरोंठी, इड्वाळस्यूं, अपु.ग. १९४०) प्रसिद्ध गढवाली कवि केशवान की तीन कथाएं (हिलांस, १९८४, १९८५) व धाद में प्रकाश में आये हैं. कथाएं रोमांचित कर्ता अथवा सरल हैं.
ब्रह्मानन्द बिंजोला (खंदेड़ा, चौन्दकोट १९३८) कवि बिंजोला के आठ नौ कथाएं यत्र तत्र प्रकाशित हुईं व ललित केशवान के अनुसार ‘फ़ौजी की ब्योली’ कथा संग्रह प्रकाशाधीन है. ललित केशवान के अनुसार कथाएं मार्मिक व गढवाल के जनजीवन सम्बंधीं हैं. कथायों में कवित्व का प्रभाव भी है.
राजाराम कुकरेती (पुन्डारी, म्न्यार्स्युं १९२८) राजाराम के कुछ कथाएं यत्र तत्र पत्र पत्रिकाओं में १९९० के पश्चात प्रकाशित हुईं (ललित केशवान का लेखक को लम्बा पत्र, २०१०) व २० कथाओं का संग्रह प्रकाशाधीन है).
कन्हैयालाल डंडरियाल (नैली मवालस्युं, पौ.ग. १९३३-२००४) डंडरियाल ने दो तीन कथाये लिखी हैं (२)
लोकेश नवानी (गंवाड़ी, किनगोड़ खाल, १९५६) लोकेश नवानी के चारेक कथाएं धाद, चिट्ठी, दस सालैक खबरसार (२००२), मे प्रकाशित हुए हैं
गिरीश सुन्दरियाल (चूरेड़ गाँव, चौन्दकोट, १९६७) सुंदरियाल ने छ के करीब कहानियाँ लिखीं हैं जो ‘चिट्ठी’ के इकसवीं अंक मे छपी व कुछ कथाएं चिट्ठी पतरी (२००२) मे जैसे ‘काची गाणि’ आदि प्रकाशित हुईं. डा अनिल डबराल ने लिखा की ऐसी मादक, हृदयस्पर्शी, प्रगल्भ, कथा बिरली ही हैं.
डा कुटज भारती (भैड़ गाँव, बदलपुर १९६६) : डा कुटज भारती की ‘जी ! भुकण्या तैं घुरण्या ल़ीगे’ कहानी (खबरसार , १९९९ ) एक बहुत ही आनंददायक, प्रहसनयुक्त, लोक लकीर की कहानी है
वीणापाणी जोशी (देहरादून १९३७) नब्बे के दशक के बाद ही कवित्री की गढवाली कथा ‘कठ बुबा’ प्रकाश में आया.
डीएस रावत : डीएस रावत की एक कथा ‘छावनी’ चिट्ठी पतरी, १९९९) प्रकाश मे आई है, कथा एक बालक का सैनिक छावनी को अपने नजर से देखने का नजरिया है.
वीरेन्द्र पंवार (केंद्र इड्वाल स्यूं 1962) कवि, समीक्षक वीरेन्द्र पंवार की एक कथा ही प्रकाश में आई है
अनसुया प्रसाद डंगवाल (घीडी, बणेलस्यूं , पौ ग. १९४८) डंगवाल ने अब तक दस बारह कथाएं प्रकाशित की हैं और अधिकतर कथाएं शैलवाणी साप्ताहिक (२००० के पश्चात) में प्रकाशित हुयी हैं. कथाएं सामाजिक विषयक हैं. भाषा चरित्रों के अनुरूप है. कथों से पाठक को आनंद पारपत होता है. भीष्म कुकरेती का मानना है की कथाएं ‘रौन्सदार’ हैं. कई कहानियाँ पाठक को सोचने को मजबूर कर देती हैं
राम प्रसाद डोभाल : राम प्रसाद डोभाल की दो कथाएं ‘चिट्ठी पतरी’ (२०००) मे ‘चैतु फेल बोडि पास’ नाम से प्रकाशित हुईं. एक कथा ‘उर्ख्याल़ा की दीदी’ (चि.प. २००१) बालकथा है
सत्य आनंद बडोनी (टकोळी, ति.ग. १९६३ ) सत्य आनंद बडोनी की एक कथा मंगतू (चिट्ठी पतरी, २०००) प्रकाश मे आई है.
विमल थपलियाल ‘रसाल’ : विमल के एक कहानी ‘खाडू -बोगठया’ खबरसार (२०००) में प्रकाश में आई है, जो की दार्शनिक धरातल लिए हुई लोक कथा लीक पर चलती है. सम्वंदों में हिंदी का उपयोग वातावरण बनाने हेतु ही हुआ है.
चंद्रमणि उनियाल : चंद्रमणि उनियाल की एक कथा ‘रुकमा ददि’ चिट्ठी पतरी’ ( २००१) मे प्रकाशित हुयी. कथा चिट्ठी रूप मे है.
प्रीतम अपछ्याण (गड़कोट, च.ग १९७४) की पांच एक कथाएं २००० के बाद चिट्ठी पतरी मे छपीं. कथाएं व्यंग से भी भरपूर हैं व सामयिक भी हैं.
सर्वेश्वर दत्त कांडपाल : सर्वेश्वर दत्त कांडपाल के एक खाणी ‘दादी चाणी’ (चिट्ठी पतरी २०००) प्रकाश मे आये जो की एक बुढ़िया का नए जमाने मे होते परिवर्तन की दशा बयान करती है.
संजय सुंदरियाल (चुरेड गाँव, चौन्दकोट, १९७९) संजय की दो कथाएं चिट्ठी पतरी (२००० के बाद) प्रकाशित हुईं.
सीताराम ममगाईं : सीताराम ममगाईं की लघु कथा ‘अनुष्ठान’ चिट्ठी पतरी (२००२) प्रकाश मे आई
पाराशर गौड़ (मिर्चौड़, अस्वाल्स्युं , पौ.ग., १९४७) ‘जग्वाल’ फिल्म के निर्माता पाराशर गौड़ की कथाएँ २००६ के बाद इन्टरनेट माध्यम पर प्रकाशित हुयी हैं. कथाएं व्यंग्य भाव लिए हैं और अधिकतर गढवाल में हुयी घटनाओं के समाचार बनने से सम्बन्धित हैं. भाषा सरल है, हाँ ट्विस्ट के मात्रा मे पाराशर कंजूसी करते दीखते नही हैं
गजेन्द्र नौटियाल : गजेन्द्र नौटियाल के एक कथा मान की टक्क ‘चिट्ठी पतरी’ (२००६) मे प्रकाशित हुयी. कथा मार्मिक है
नई वयार का प्रतिनधि ओमप्रकाश सेमवाल (दरम्वाड़ी, जख्धर, रुद्रप्रयाग, १९६५) यह एक उत्साहवर्धक घटना है क़ि गढवाली साहित्य में ओमप्रकाश सेमवाल सरीखे नव जवान साहित्यकार पदार्पण कर रहे हैं. ओमप्रकाश का आना गढवाली साहित्य हेतु एक प्रात:कालीन पवन झोंका है जो उनींदे गढ़वाली कथा संसार को जगाने में सक्षम भूमिका अदा करेगा. कवि ओम प्रकाश सेमवाल का गढवाली कथा संग्रह ‘मेरी पुफु’ (२००९), लोकेश नवानी के अनुसार इस सदी का उल्लेखनीय घटना भी है. कथा संग्रह में ‘धर्मा’, हरसू, फजितु, आस, ब्व़े, भात, ब्व़े, वबरी, नई कूड़ी , बेटी ब्वारी, बड़ा भैजी, मेरी पुफू, गुरु जी कथाएं समाहित हैं. कथाएँ मानवीव समीकरण व सम्बन्धों क़ि पड़ताल करते हैं.
गढवाली लोक नाट्य शाष्त्री डा दाताराम पुरोहित का कहना है क़ि कथाएँ डांडा-कांठाओं (पहाडी विन्यास) के आइना हैं व कथाओं में गढ़वाली मिटटी की ‘कुमराण’ (धुप से जले मिट्टी की आकर्षक सुगंध) है. वहीं लोकेश नवानी लिखते हैं की सेमवाल एक शशक्त कथाकार हैं.
नामी गिरामी, जग प्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंग नेगी का कहना है की जब गढवाली भाषाई कहानियों में एक रीतापन/खालीपन आ रहा था तब सेमवाल का कथा संग्रह इस खालीपन को दूर करने में समर्थ होगा. वहीं गजल सम्राट मधुसुदन थपलियाल ने भूमिका में लिखा कि ‘मेरी पुफू’ गढ़वाली साहित्य के लिए एक सकारात्मक सौगात है. थपलियाल का कहना इकदम सही है कि कथाओं में सम्वाद बड़े असरदार हैं और कथाएं परिपूर्ण दिखती हैं.
आशा रावत : (लखनऊ , १९५४) आशा रावत की पचीस से अधिक कहानियां शैलवाणी समाचार पत्र आदि मे प्रकाशित हुए हैं. एक कथासंग्रह ‘शैल्वणी’ प्रकाशन कोटद्वार मे प्रकाशाधीन है, कहानियां मार्मिक, समस्या मूलक, है. संवाद कथा में वहाव को गति प्रदान करने मे सक्षम हैं.
शेर सिंह गढ़देशी : शेर सिंह गढ़देशी की परम्परावादी कथा ‘नशलै सुधार’ एक सुधारवादी कथा है (खबर सार (२००९)
सुधारवादी कथाकार जगदीश देवरानी ( डुडयख़ , लंगूर, १९२५): जगदीश देवरानी की ‘चोळी के मर्यादा’, ‘नैला पर दैला, ‘गल्ती को सुधार’ आदि पाँच कथाएं शैलवाणी साप्ताहिक कोट्द्वारा, में अक्टूबर व नवम्बर २०११ के अंक में क्रमगत में छपी हैं. शैलवाणी के सम्पादक व देवरानी से बातचीत पर ज्ञात हुआ कि आने वाले अंको में लगभग ३० अन्य गढवाली कहानियाँ प्रकाशाधीन है. कहानियां सुधारवादी हैं, परम्परागत हैं . भाषा संस्कार सल़ाणी है. भाषा सरल व संवाद चरित्र निर्माण व कथा के वेग में भागीदार हैं.
गढवाली व्यंग्य चित्रों की कॉमिक कथाएं
गढवाली में व्यंग्य चित्रों के माध्यम से कोमिक कथाएं भी प्रकाशित हई हैं. व्यंग्य विधा के द्वारा कथा कहने का श्रेय भीष्म कुकरेती को जाता है. भीष्म कुकरेती ने दो व्यंग्य चित्र कॉमिक कथाये ‘एक चोर की कळकळी कथा (जिस्मे एक चोर गढवाली साहित्यकारों के घर चोरी करने जाता है) व पर्वतीय मंत्रालय मा कम्पुटर आई’ प्रकाशित की हैं. दोनों व्यंग चित्रीय कॉमिक कथाएँ गढ़ ऐना (१९९०) में प्रकाशित हुए हैं. अबोध बंधु बहुगुणा ने इन कॉमिक कथाओं की सराहना की (कौंळी किरण, पृष्ठ १४९)
अंत में कहा जा सकता है कि आधुनिक गढवाली कहानियाँ १९१३ से चलकर अब तक विकास मार्ग पर अग्रसर रही हैं. संख्या की दृष्टि से ना सही गुणात्मक दृष्टि से गढवाली भाषा की कहानियाँ विषय, कथ्य, कथानक, शैली , कथा वहाव, संवाद, जन चेतना, कथा मोड़, वार्ता, चरित्र चित्रण, पाठकों को कथा में उलझाए रखने की वृति व काला, पाठकों को सोचने को मजबूर करना, पाठकों को झटका देना, कथाकारों में प्रयोग करने की मस्सकत आदि के हिसाब से परिस्कृत हैं .
इसी तरह गढवाली कथा साहित्य में श्रृंगार, करूँ , वीर, बीभत्स, हास्य, अद्भुत रस व सभी ११० भावं से संपन रही हैं
नये कथाकारों के आने से भी प्रकट होता है कि गढवाली कथा साहित्य का भविष्य उज्ज्वल है.
सन्दर्भ :
१- भीष्म कुकरेती, २०११, गढवाळी कथाकार अर हौरी भाषाओं क कथाकार , शैलवाणी के (२०११-२०१२ ) पचास अंकों में क्रमगत लेख
२- अबोध बंधु बहुगुणा, १९७५ गाड म्यटयेकि गंगा, देहली (गढवाली गद्य साहित्य का क्रमिक विकास)
३- डा अनिल डबराल, २००७ गढ़वाली गद्य परम्परा,
४- अबोध बंधु बहुगुणा, १९९०, गढ़वाली कहानी, गढवाल की जीवित विभूतियाँ और गढवाल का वैशिष्ठ्य, पृष्ठ २८७-२९०
५- ललित केशवान (२०१०) का भीष्म कुकरेती को लिखा लम्बा पत्र जिसमे १०० से अधिक गढवाली भाषा के लेखक लेखिआकों के बारे में जानकारी दी गयी है.
६- अबोध बन्धु बहुगुणा, २००० कौन्ली किरण
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