नजरिया
हो गई है पीर पर्वत सी..
हमने आवाजें उठाई, मुट्ठियां भींची लहराई, ललकारा, लड़े भीड़े तो एक अलग राज्य को हासिल किया। मगर, फिर जुदा होने की खुशी में इतना मस्त हो गए कि अपने आसपास कचोटते सवालों की चुभन को अनदेखा कर दिया, चुप हो गए। खुद भी लूटने खसोटने वालों के साथ मशरुफ हो गए।
दौड़ पड़े उंदार की तरफ… लेकिन जो जानते थे कि ऊपर चढ़ने का क्या फायदा है, उन्होंने बंजर जमीनें भी खरीद डाली, और अपने भविष्य की पैरा (बुनियाद) रखने रखने शुरू कर दिए। उन्हें पनाह भी हमने ही दी। उनसे हमें शिकायत भी न हुई, बल्कि वे हमारी शिकायत कर रहे हैं, सरकारों में हमारे लोगों की बदौलत तूती भी उन्हीं की बोल रही है। हमें हमारे सवालों की तरह अनसुना कर दिया जा रहा है।
हम कल जहां से चले थे, लगता है कि हम वहां से आगे बढ़ ही नहीं, ठहर से गए हैं।
लिहाजा ऐसे में दुर्दांत समय में चुप नहीं रहा जा सकता। बोलना तो पड़ेगा, अपने लिए न सही अपने भोळ (भविष्य) की खातिर। अब बोलना ही होगा, जुबां से सारे ताले खोलने ही होंगे। वरना तैयार रहिए नेपथ्य में धकेले जाने के लिए….।
क्या आप बोलेंगे….
हम आवाज देते हैं….
बोल पहाड़ी बोल…..।