साहित्य

सामाजिक हलचलों की ‘आस’

बिसराये जाने के दौर में भी गढ़वाली साहित्य के ढंगारों में लगातार पौध रोपी ही नहीं जा रही, बल्कि अंकुरित भी हो रही है। वरिष्ठ साहित्यकार लोकेश नवानी के शब्दों में कहें तो “गढ़वाली कविता कुतगणी च”(कुलांचे भर रही है)। देखे-चरे की खाद-पानी से समय पोथियों में दस्तावेज बनकर दर्ज हो रहे हैं। विचार कविता बन रहे हैं या कहें कविता विचारों में प्रक्षेपित हो रही है। गढ़वाली कविता की नई पौध (किताब) आस से कुछ ऐसी ही अनुभूतियों की आस जगती है। आस कल-आज की सामाजिक हलचलों को जुबां देती है। आस का काव्य शिल्प मुक्तछंदों के साथ ही गुनगुनाकर भी शब्दों को बांचता है।

पहले ही पन्ने पर नव हस्ताक्षर शांतिप्रकाश ‘जिज्ञासु’ ने पहाड़ के पीढ़ियों के दर्द पलायन को लक्ष्य कर विकास के बैलून पर हकीकत को ‘स्यूं-सख्त’चुबोया है- पंछ्यूंन ऊं घरूं ऐकी क्या कन्न/ जौं घरूं बैठणू थै चौक नि छन। अपनी बात में भी जिज्ञासु पलायन से उपजी स्थितियों के रेखांकन में ‘टकटकी बांधे’ नजरों का जिक्र भर नहीं करते,नाखूनों से शताब्दियों को खोदकर पहाड़ में बगैर औजारों के ही जीवन के लिए ‘समतल’ पैदा करने और वीरानों में जिन्दा रहने के जतन जुगाड़ने वाली पीढ़ियों की आस के रूप में अपनी किताब को देखते हैं। एक डाळ बरखा की ऐगी कविता से अपने साहित्यिक सफर की शुरूआत करने वाले जिज्ञासु की आस में सर्वाधिक प्रखर और व्यंजनापूर्ण मुक्तछंद कविताएं ‘छिटगा’ (क्षणिका) के रूप में दर्ज हुए हैं।

कवि निहितार्थों को नेपथ्य में धकेलकर उम्मीद करता है-लोगुन् बाठा इलै छोड़नी/सड़क बण जाली अब सही/ मिन् बाठा इलै बटैनी/ बिरड़ नि जाऊ क्वी बटोई। यह मानवीय पहलुओं को भी स्पष्ट करता है। पहाड़ के गांवों में थौड़ू (पंचायती आंगन) के ईर्दगिर्द सामाजिक जीवन की हलचल कल तक तो जिंदा थी। लेकिन संवेदना के इस स्पंदन को कवि ने तब तक ही महसूस किया जब तक कि विकास के डोजरों ने वहां पहुंचकर उसे नष्ट नहीं कर दिया था। …..विकास का खातिर गौं मा/ अचणचक बुलडोजर ऐगी/ सड़क त बणगी/ पर वीं सड़क तौळ/ मेरा गौं कु थौड़ू/ कुजणी कख हरचगी

घास क्षणिका भूगोल के दो हिस्सों की स्थितियों का आंकलन करती है। अक्सर समतल सुविधाओं के लिए जाने जाते हैं। तब भी, घास कु फंचू मुंडमा देखी/ मैं थै पहाड़ै याद ऐगी/ इख भी घास मुंडमा ल्यांण छौ/त मेरा पहाड़म क्या कमी रैगी। वहीं बौळ्या कविता में मां से भावात्मक संबन्धों की प्रगाढ़ता में अहसासों को रूपायित करते हुए कल में झांका …….लोगुन पूछी क्या ह्वै/ तिन आंसू फूंजी बोली/ मेरू नौनु लम्ड गी/ जबकि मि मुल-मुल हैंसणु छौ/ तेरा पल्ला पैथर लुकी तैं/ लोग जाण बैठ-गे छा/ त्वैकु बौळ्या बोली। जब कभी अंधविश्वास रिश्तों की महीन रेखा को चटखाने में कामयाब हो जाते हैं। ऐसे में-बक्या बोन्नू नरसिंग ढुक्यूं गुस्सा हूणै बात नी/ एक दिन भयूं थै भी पूछ ल्या क्वी बात नी च

पहाड़ बोझ हैं या नियति ने बोझ को ही पहाड़ बना दिया है। यह समझना जरूरी होगा-दनकणां छन जु उन्दरि उन्द/ ऊंका कथगै सारा छन/ जु लग्यां छन उकळी उब्ब/ ऊंकी पीठ्यूं भारा छन। क्योंकि ‘सर्मथ’ने उसे हमेशा विवश किया है। अलग राज्य निर्माण के दिन लगा था कि उत्तराखण्ड के लिए नई सुबह हुई है। आस भी बंधी थी बेतहाशा….। खुशी में माना भी गया- सुर सुर सुसराट हूंण बैठिगे/ चुलंख्यूं मा उदंकार फैलगे/ पंछ्यूं कु चुंच्याट सुणेगी भैर/ हे दीदी ह्वैगी सुबेर। परन्तु अप्रत्याशित आकांक्षाओं ने इतनी तेजी से जन्म लिया कि चकड़ैतों के अलावा हर कोई पूरे आंदोलन को कोश रहा है। तब भी कवि की अपेक्षायें कि-रोट्टी दगड़ी घ्यू न सही लूण हून्दू/ रात दिना रगर्याट मा जरा सकून हून्दू। फलित पर अंग्वाळ मारने वालों के आगे भले ही- बीज मिन भी बूति छा बिजुण्डका/ पर मेरी दां बरखा नि ह्वै/ गिल्ली ह्वैली त् हो कैकी/ मेरी त् सुखीं रै जिन्दगी। हालांकि पहाड़ एक दशक पहले भले ही ‘चन्ट’न रहा हो। लेकिन अबके परिदृश्य में वह प्रधानी से लोकसभा तक होशियार हो चुका है। कब तक बच्यूं रैली कैकी दया सारा/ चन्ट कब हूंण तिन हे निर्बगी छ्वारा

जिज्ञासु का दर्शन ‘हवस’ को आइना देखाते कहता है – कुछ छुटणै डौर मनमा सुद्दी लगीं रांद/ लिजाण क्या च कफन पर कीसू नि हूंदू। और जैन कै कभी/ पिलै नि पांणी/ किलै छैं वै थैं/ तीस बिंगाणी। से वह समझाना चाहता है कि, धाद लगायी जाय तभी जब धाद सुनी जाय। अन्यथा हासिल से निराश भी होना पड़ सकता है।

लिहाजा शांतिप्रकाश ‘जिज्ञासु’की आस सिर्फ मनोवृत्तियों का ही स्कैच नहीं बनाती। वरन् बदलते जीवनस्तर, रिवाजों, पर्यावरण, प्रेम, लोक और बसन्त के निराश एवं विश्वास के रंगों को भी कविता में शामिल करती है। आस में ग़ज़ल के अंदाज में जोड़ी गई कृतियां जिज्ञासु की बहुविध छवि को प्रकाशित करती है। प्रुफ की काफी त्रुटियों के बावजूद श्रीनगरी बोली के आसपास गढ़ी गई आस के कथानक का शिल्प कहानियां बुनते हुए संवेदनाओं को स्पंदित करता है। वहीं संभावनाओं को भी निराश नहीं छोड़ता।

आस (गढ़वाली काव्य संकलन)

कवि– शांतिप्रकाश ‘जिज्ञासु’

प्रकाशक– धाद प्रकाशन, देहरादून।

मूल्य– 50.00 रू.

समीक्षक– धनेश कोठारी

Related Articles

One Comment

Leave a Reply to vijay_madhur Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button