साहित्य

‘गीतेश’ की कविताओं में बच्चे सा मचलता है ‘पहाड़’

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युवा
‘गीतेश सिंह नेगी’ का प्रारंभिक परिचय गढ़वाली कवि, गीतकार, गजलकार, जन्म-फिरोजपुर,
मूल निवास- महरगांव मल्ला, पौड़ी गढ़वाल, संप्रति- भू-भौतिकविद, रिलायंस जियो इन्फोकॉम
लि. सूरत है। इस सामान्य परिचय में निहित असाधारणता की सुखद अनुभूति से आपको भी साझा
करता हूं। जब गढ़वाल के ठेठ पहाड़ी कस्बों में पैदा होने से लेकर वहीं जीवनयापन कर रहे
युवा निःसंकोच सबसे कहते हैं कि उन्हें गढ़वाली बोलनी नहीं आती है, तो लगता है हमारे
समाज में लोकतत्व खत्म होने के कगार पर है, पर ‘घुर घुघुती घुर’ किताब के हाथ में आते
ही मेरी इस नकारात्मकता को ‘गीतेश’ के परिचय ने तड़ाक से तोड़ा है। लगा पहाड़ी समाज में
लोकतत्व अपने मूल स्थान में जरूर लड़खड़ाया होगा, पर दूर दिशाओं में वह मजबूती से उभर
भी रहा है। जन्म, अध्ययन और रोजगार में पहाड़ का सानिध्य न होने के बाद भी ठेठ पहाड़ी
संस्कारों को अपनाये ‘गीतेश’ प्रथम दृष्ट्या मेरी कई सामाजिक चिंताओं को कम करते नजर
आते हैं।
‘गीतेश
सिंह नेगी’ की कविता, गीत और गजल अक्सर पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ने को मिलती हैं। उनकी
‘वू लोग’ कविता मुझे विशेष पंसद है। परंतु इस कविता संग्रह की गढ़वाली कविताओं को तल्लीनता
से पढ़ने और समझने के बाद उनकी बहुआयामी दृष्टि से रूबरू हुआ हूं। आज के युवाओं में
अपनी मातृभूमि के प्रति भावनाओं का ऐसा अतिरेक बहुत कम देखने को मिलता है। ‘गीतेश’
का मन ‘जैसे उड़ी जहाज को पंछी, पुनि-पुनि जहाज पै आवे’ की तरह दुनिया-जहान की दूर-दूर
की उड़ान के बाद ठौर लेने पहाड़ की गोद में ही सकून पाता है।
उनकी
कविताओं की नियति भी ‘पहाड़’ में ही रचने-बसने की है। तभी तो ‘गीतेश’ की कविताएं ‘पहाड़ीपन’
से बाहर निकल ही नहीं पाती हैं। यह भी कह सकते हैं कि ‘पहाड़’ ‘गीतेश’ की कविताओं का
प्राणतत्व है। वो खुद भी घोषित करते हैं कि ‘एक दिन ही इन्नु नि आई कि मी पहाड़ से छिट्गि
भैर या पहाड़ मि से छिट्गि भैर गै ह्वोल’। ‘गीतेश’ की कविताओं में ‘पहाड़’ बच्चा बनकर
मचलता या रूठता है, दोस्त की तरह गलबहिंया डाले दिल्लगी करता है तो अभिभावक की भांति
दुलारता या डांटता हुआ दिखाई देता है। हर किरदार में ‘गीतेश’ का पहाड़ परफैक्ट है पर
साथ में फिक्रमंद भी है।

‘गीतेश’
व्यावसायिक तौर पर वैज्ञानिक हैं। यही कारण है कि उनकी कविताएं भावनाओं के भंवर से
बाहर आकर समाधानों की ओर रूख करने में सफल हुई हैं। ‘गीतेश’ की अधिकांश कविताएं अतीत
के मोहजाल में हैं जरूर, पर भविष्य के प्रति वे सजग भी हैं। ‘गीतेश’ कविताओं में बिम्बों
को रचने और मुखर करने के सल्ली हैं। उन्होने कविताओं में विविध बिंबों के माध्यम से
समसामयिक सरोकारों की प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति की है। ‘गीतेश’ की जीवन शैली पहाड़, प्रवास
और परदेश के व्यापक फलक में गतिशील रही है। यही कारण है कि उनकी कविताएं अनेक दिशाओं
में प्रवाहमान हैं। ‘गीतेश’ गीतकार और गजलकार भी हैं। लिहाजा उनकी कविताओं में गीतात्मकता
अपने आप ही जगह बना लेती है।

‘घुघुती’
पहाड़ी चिडिया है। बिल्कुल शांत, सरल और एकाकी। गहरी नीरवता में भावनाओं के उद्वेग को
बताने में तल्लीन। उसे परवाह नहीं, कि कोई उसे सुन रहा है कि नहीं। वह तो सन्नाटे को
तोड़ती निरंतर ‘घुघुती-घुघूती’ आवाज को जिन्दा रखती है। उसके भोलेपन के कारण ही पहाड़ी
भाषा में ‘घुघुती’ लाड-दुलार को अभिव्यक्त करने वाला शब्द प्रचलन में है। बच्चे से
खूब-सारा प्यार जताने के लिए उसे ‘म्यार घुघुती’ बार-बार सयाने कहते हैं।
‘गीतेश’
ने माना है कि ‘घुघुती’ जैसा भोलापन, तल्लीनता और एकाग्रता ही ‘पहाड़’ को जीवंत और
‘पहाड़ी’ को खुशहाल बना सकता है। ‘घुर घुघुती घुर’ पहाड़ की वीरानगी में सकारात्मकता
की निरंतर गूंजने वाली दस्तक है। अब सुनना, न सुनना या फिर सुनकर अनसुना करना ये तो
नियति पर है।
बहरहाल,
‘गीतेश सिंह नेगी’ के प्रथम गढ़वाली कविता संग्रह ‘घुर घुघुती घुर’ में 59 कविताएं हैं।
इसकी हर कविता अनुभवों की उपज है। उनमें कल्पना की उड़ान से कहीं अधिक यथार्थ की गहराई
है। पाठकों को उनके दायित्वबोध को बताती और समझाती कविताएं व्यंग के संग गंभीर भी हो
चली हैं। ‘गीतेश सिंह नेगी’ की कविताएं साहित्यकारों के साथ पहाड़ के नीति- निर्धारकों
यथा- नेता, अफसर, सामाजिक कार्यकत्ताओं को स्वः मूल्यांकन के लिए पसंद की जायेगी। बशर्ते
उन तक यह पुस्तक पहुंचे। ‘गीतेश’ जी और धाद प्रकाशन, देहरादून को गढ़वाली साहित्य को
‘घुर घुघुती घुर’ जैसी उत्कृष्ट कविता संग्रह से समृद्ध करने के योगदान के लिए बधाई
और शुभ-कामना।
कविता
संग्रह- घुर घुघुती घुर
कवि-
गीतेश सिंह नेगी’
मूल्य-
₹ 150/-
प्रकाशक-
धाद प्रकाशन, देहरादून

समीक्षक
– डॉ. अरुण कुकसाल

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