व्यंग्यलोक
‘जानलेवा’ कवि (व्यंग्य)
ललित मोहन रयाल //
‘जानलेवा’ उनका तखल्लुस था, ओरिजिनल नाम में जाने की, कभी किसी ने जरूरत ही नहीं समझी। संपादक को जब उन्होंने अपनी हस्बमामूल कविता सुनाई, तो संपादक ने पहले तो रस लेने की भरसक कोशिश की, लेकिन रस लेते लेते कब उन्हें मूर्च्छा छाई, इस बात का पता किसी को नहीं चला। न कवि को, न श्रोता को।
अगले दिन जब कवि महाशय ने संपादक के दफ्तर में हाजिर होने की कोशिश की, तो उनकी मनचाही इच्छा पूरी नहीं हो सकी। मेन गेट के चैनल पर बड़ा सा ताला लटका हुआ मिला। उस दिन उन्होंने खूब लंबा इंतजार किया, ’’आएगा तो इसी रास्ते। बच्चू बचकर जाएगा कहां।’’ इंतजार करते- करते जब शाम घिर आई, तो बड़ी असमंजस की स्थिति पैदा हो गई। न तो संपादक ने उस रास्ते से गुजरने का साहस दिखाया, न ही कवि महाशय का उत्साह ही रंच मात्र भी क्षीण हुआ। एक किस्म से कुश्ती बराबरी पर छूटी।
हालांकि कहने वाले तो यह भी कहते रहे कि, संपादक उसी घर के अंदर था, और जाली वाले रास्ते से आवाजाही कर रहा था। इधर जानलेवा कवि, अपने कौल से टस-से-मस नही हुए। उन्हें अपनी मान्यताओं पर दृढ़ विश्वास था। उनकी मान्यता थी कि, ’’चैनल गेट का ताला नहीं खुला, तो क्या हुआ। इतने से कविता मर थोड़ेई जाएगी।’’ यही वो घटना थी, जो उनके जीवन का प्रस्थान बिंदु बनी। लब्बोलुआब ये रहा कि, यहीं से वे मंचीय कविता की ओर उन्मुख हुए।
जैसे ही यह खबर, साहित्य अनुरागी जीवों ने सुनी, वे चौकन्ने से रहने लगे। ऐसा न था कि, उन्हें मंच नसीब ना हुआ हो। एकाधबार उन्हें मंचों पर अवसर मिला। पर्याप्त समय मिला। बाकायदा स्लॉट मिला, लेकिन जानलेवा कवि असल कवि थे, दोगले नहीं। उन्होंने यह साबित करने में जरा भी देरी नहीं की, कि दरअसल वे चीज क्या हैं। सबका स्लॉट अकेले ही पी गए। बकौल एक लोक-भाषा-कवि, ’’एक बगत मंच क्या लूछी, वैन अपणु सदानिकु भाड़ू कर दीनि’’ (एक अवसर पर जानलेवा कवि ने मंच क्या हथियाया कि, हमेशा के लिए अपना ही रास्ता बंद कर दिया।)
इस घटना के बाद उन्होंने अपनी काव्य-शैली में थोड़ा सा परिवर्तन किया, जिसे वे युगांतरकारी परिवर्तन कहते नहीं अघाते थे। दरअसल यहीं से वे प्रशस्ति-गीत लिखने की ओर उन्मुख हुए। उन्होंने ब्लाक क्षेत्र का एक भी इंटर कॉलेज नहीं छोड़ा होगा, जिसके प्रिंसिपल पर उन्होंने प्रशस्ति-गीत ना लिखा हो। इसके एवज में, उनकी बस एक ही गुजारिश रहती थी, ’’असेंबली में बच्चों से रू-ब-रू होने के लिए मात्र एक घंटे का समय चाहिए। उन्हें जीवनोपयोगी शिक्षा देने की आखिरी आस है। इसी आस को लिए जी रहा हूं।’’
एकाध प्रिंसिपल तो इस झांसे में आ भी गए। फिर क्या था। इश्क और मुश्क छुपाए नहीं छुपते। बात फैलते देर नहीं लगी। प्रिंसिपल तो प्रिंसिपल, जिले भर के बच्चे तक आनाकानी करने लगे।
इस तरह के प्रोपोगेंडा से भी जानलेवा कवि का उत्साह भंग नहीं हुआ। हालांकि इस स्तर की उपेक्षा के बाद, उन्होंने अपने स्तर को जूनियर हाईस्कूल हेडमास्टर तक डाइल्यूट करने की कोशिश की, लेकिन दाल उनकी वहां भी नहीं गली। कविता के क्षेत्र में जैसे ही उन्होंने स्वयं को असुरक्षित महसूस किया, वे सुरक्षा विभाग यानी पुलिस के उच्चाधिकारियों पर प्रशस्ति-गीत लिखने लगे। मात्र एक विनती करते रहे, ’’मेरा प्रशस्ति-गीत आप पर ही लिखा गया है। इतनी सी विनती है, बस एकबार प्रशस्ति-गीत सुन लें। मुझ कवि का यह जीवन धन्य हो जाएगा।’’
जब उन्हें वहां भी कोई सहारा नहीं मिला, तो वे स्तर गिराने को मजबूर हो गए। स्तर भी डाउनग्रेड होते-होते थाना से चौकी स्तर तक उतर आया। चौकी प्रभारी, संतरी को सख्त हिदायत दिए रहते। एहतियातन यह उपाय बरतना जरूरी लगता होगा, ’’साहब राउंड पर गए हैं। लॉ एंड ऑर्डर का मसला देखकर ही वापस लौटेगें।’’ पुलिस अधिकारियों ने अब जाकर मामले की गंभीरता समझी।
क्रमशः जिले भर के थानों में उनका हुलिया नोट कराना पड़ा, ’’जैसे भी हो, इसे रोको।’’ बीट के सिपाही को मुरीद बनाने का फैसला, उन्हें इसलिए नामंजूर करना पड़ा क्योंकि वो तो बिना कविता सुने ही, वीर रस से सरोबार रहता था। सत्ता के सख्त पहरे में, उन पर सख्त नजर रखे जाने लगी। यही वह प्रस्थान बिंदु था, जहां से उन्हें जेल डिपार्टमेंट में आस दिखाई दी। वे तत्काल जेलर से मिले, इस प्रार्थना के साथ, ’’बस बंदियों का हृदय-परिवर्तन करना चाहता हूं। उन्हें बस एक बार अपनी कविता सुनाना चाहता हूं।’’
कविवर बखूबी जानते थे, ’बंदी तो पिंजरे में कैद है। वहां कोई बहाना चलने का नहीं। ना तो वे राउंड पर जा सकते हैं, ना ही उनकी कविता सुनने से भाग सकते हैं।’ कुल मिलाकर, किसी भी तरह बचत की कोई गुंजाइश नहीं थी।
भाग्य को यूं ही प्रबल नहीं कहा जाता। उनकी बदकिस्मती देखिए कि, जेलर पढ़ा-लिखा आदमी निकला। वह समसामयिक घटनाओं पर बराबर नजर रखता था। ’’बंदियों के भी तो मानवाधिकार होते हैं।’’ कहकर उसने ’जानलेवा’ से बंदियों की जान छुड़ाई।
कुछ दिनों तक जानलेवा कवि को हाजमे की शिकायत रही। उनके उद्गार व्यक्त न कर पाने की दशा में इसी तरह की आशंका जताई जा रही थी। हाजमे को दुरुस्त रखने की नीयत से अलस्सुबह उन्होंने एक दुकानदार को जा पकड़ा। उधर से कोई विरोध नहीं दिखा। फिर क्या था। ’जानलेवा’ ने अपने झोले में हाथ डाला, और अपने अकूत खजाने में से एक दफ़्ती निकाली। छोटे-छोटे फॉण्ट साइज, में रंग-बिरंगे अक्षरों में विरुदावली लिखी हुई थी। दुकानदार ने अनुमान लगाया, ’’इतनी देर में तो कोई ग्राहक आने से रहा। आत्मप्रशंसा किसे बुरी लगती है। लगे हाथ, प्रशस्ति-गीत ही सुन लिया जाएगा।’’
गायन चालू था। जैसे ही उन्होंने पृष्ठ भाग में रंग-बिरंगे अक्षरों में, फुलस्केप साइज में लिखी हुई विरुदावली का अगला हिस्सा देखा, वे मन मसोसकर रह गए। किसी तरह खुद को संभाला। जल्दी ही उसने मन में यह मान लिया कि, थोड़ी देर और सही, लेकिन यह जानकर तो उसके होश ही उड़ गए कि, इसी आकार की तीन दफ्तियां अभी और शेष हैं। तीन दिनों तक तो उसने खुद की विरुदावली सुनी। बेचारे को मुलाहिजा दिखाना पड़ा।
’जानलेवा’ कवि को उसने बाकायदा चाय पिलाई। यथाशक्ति आदर-सत्कार किया। चौथे दिन, जब वो अपनी दुकान पर पहुंचा, तो जैसे ही उसने शटर उठाने की कोशिश की, जानलेवा कवि उसे वहां पर धरना देते हुए मिले। उसने उन्हें इग्नोर किया। रूटीन के कारोबार की तरह शटर उठाया। कविवर ऐसे ही कहां मानने वाले थे। सीधे तख्त पर जा विराजे।
हालांकि कच्ची गोलियां तो दुकानदार ने भी नहीं खेली थी। दरअसल वह खुद एक ’एक्स कवि’ था। परिजनों ने उसे मार-बांधकर दुकान खुलवाई थी। किसी तरह उससे कविता की लत छुड़ाई थी। वो खुद कुछ समय पहले तक प्राणलेवा कवि हुआ करता था। सॉनेट लिखने का शौकीन था। मूलतः वह सॉनेट, इतालवी कविता का हिंदी संस्करण, लिखने का हद दर्जे का शौकीन था।
चौथे दिन दुकानदार ने कोई औपचारिकता नहीं दिखाई। वो तीन दिनों से लगातार भरा हुआ था। चौथे दिन उसका धैर्य चुक गया। संयम जवाब दे गया। बात, प्रियजनों को दिए गए वचन-भंग करने तक जा पहुंची।
’जानलेवा’ ने किया भी तो गजब ही था। सोए शेर को जगा दिया। बाकायदा उसकी पूंछ से ही छेडख़ानी कर डाली। फिर देर किस बात की थी। उसने वही हथियार निकालें। सॉनेटर को इस बात का एडवांटेज मिला कि, मुक्तक और छंद की तुलना में, उसकी एक-एक कविता, मात्र चौदह पंक्तियों की होती थी। बस फिर क्या था। साइज की वजह से, पूरे मुकाबले में वह उस पर भारी पड़ा।
’जानलेवा’ कवि ने नव- दुकानदार के सामने हथियार डालने में जरा भी देर नहीं की। फलस्वरूप, अगले दिन से, ’जानलेवा’ ने उस दुकान की दिशा में मुड़कर भी नहीं देखा।
कुछ दिनों बाद, ’जानलेवा’ को एक गृहस्थ में सुधी श्रोता होने की संभावना दिखाई दी। वे पेशे से शिक्षक थे। जाहिर सी बात है, पढ़े-लिखे भी रहे होंगे। ’जानलेवा’ को यह अवसर नदी-नाव संयोग जैसा दिखाई दिया। नेकी और पूछ-पूछ। वे भोर में ही, दफ्ती पर टंगे मान-पत्र लेकर, उनके घर जा धमके। पहले दिन उन्होंने ’जानलेवा’ को सुना। मुरब्बत में चाय भी पिलाई। अब ये रोज का कारोबार बन गया।
एक दिन क्या हुआ कि, जानलेवा पौ फटने से पहले, उनके गेट पर खड़े थे। अनजान व्यक्ति को संदिग्ध हालत में देखकर, गृहस्थ की मां को आशंका हुई। उन्होंने बेटे से पूछ ही डाला, ’’क्वा ल यू।’’ (ये कौन है रे!) बकौल गृहस्थ, ’’अब मैं क्या बताता कि वह कौन है।’’ वे उनसे इतना आजिज आ चुके थे कि अपने उद्गार इन शब्दों में व्यक्त किए, ’’बाई गॉड! अगर ये दरबारी कवि होता, तो हर रोज बीस-पच्चीस बार सूली पर चढ़ाया जाता, क्योंकि हर कविता पर राजा इसे गारंटेड प्राणदंड देता।’’
नतीजतन, ’जानलेवा’ को देखकर, भले लोग उन्हें इग्नोर करने लगे। साहित्यकार उनसे कन्नी काटने लगे। श्रोता तो उन्हें दूर से देखते ही, रास्ता बदलने लगे। उनसे ऐसे पेश आते, मानो उन्हें जानते ही नहीं हों। मतलब निकल गया, तो जानते ही नहीं। अब अपनी कविता को कहां खर्च करें, जब यह सवाल उठ खड़ा हुआ, तो कवि को कोई चारा नहीं सूझा। उन्होंने आव देखा न ताव। अपनी पुत्रवधू-पुत्रादि की पच्चीसवीं वर्षगांठ, बच्चों की वैवाहिक वर्षगांठ, नाती-पोतों के जन्मदिन पर उसी आकार की कविताएं पेश करनी चालू कर दी।
फिर भी कवि का मन उन्हें हर समय सालता रहा। इन आयोजनों में सबसे बड़ी खामी ये रहती थी कि, ये बरस में एक ही बार पड़ते थे। इधर उत्पादन जोरों पर था। अब इस सरप्लस माल को खपाएं, तो कहां खपाएं। उस पर कविता का सौंदर्य यह रहता था कि, वह छायावादी छंदों के प्रभाव में प्रयाण-गीत अथवा युद्ध-गीत जैसी आभा देती थे। ओज-तेज का जबरदस्त बोलबाला।
कुछ दिनों से नौजवानों को फुसलाने के लिए कुछ टीमटाम भी करने लगे थे, जिसे वे खुद ’नवगीत’ कहते थे। कहने वाले दबी जुबान में यह भी कहते थे कि, न तो उसमें कुछ नया है। और गीत तो वह किसी भी एंगल से नहीं है। तुक तो उनकी हर कविता में मिलता था, भले ही कंटेंट बेतुका क्यों ना हो। श्रृंगार की तो जबरदस्त घालमेल दिखती थी, जिनमें वादा-दावा, कली-गली-टली, ऐबी-फरेबी, रैना-चैना, राहों- निगाहों, वारे-न्यारे-मतवारे जैसे शब्दों की भरमार रहती थी।
काम था तो पेचीदा, पर उन्होंने सीधा सा फार्मूला ढूंढा हुआ था। डेढ-दो कुंटल विशेषण, तो उनके स्टॉक में हरदम तैयार मिलते थे। अंजुली-दो- अंजुली, किसी के ऊपर उड़ेल भी दी, तो क्या फर्क पड़ता है। कुंए से एक-दो बाल्टी पानी खींचने से कुआं सूख तो नहीं जाता। इतने से कुंए की सेहत पर क्या फर्क पड़ता है। तो उन्हीं की रेसिपी तरह-तरह से परोसते रहते। हरदम कमाल की फॉर्म में रहते। क्या मजाल कि, कभी दबाव का सामना महसूस किया हो। किंतु- परंतु, अगर-मगर से काव्य को रोचक बनाने की चेष्टा करते। बड़े फख्र के साथ बताते थे, ’चलते-चलते कोई मिल गया था.. सरेराह चलते-चलते..गीत में ’चलते-चलते’, मात्र बहत्तर बार आता है। तो ’एक चतुर नार, करके सिंगार..’ में ’चतुर’ विशेषण अठ्ठाइस बार। खुद को किसी से कम, कभी इन्होंने आंका नहीं। सो इनकी कविताओं में कोई भी विशेषण रहा हो, क्या मजाल कि कभी एक सौ आठ बार से कम आया हो।
एक बीमा-एजेंट, जिससे एरिया के लगभग सभी गृहस्थ भय खाते थे, वो तक इनसे मुंह चुराने लगा। बात इतनी सी थी कि, एक बार उसे भी इनका श्रोता बनने का सुअवसर मिल चुका था। जब श्रोता बन ही गए, तो नतीजे तो भुगतने ही पड़ते हैं। वे बीमा-एजेंट से दाद की उम्मीद भी रखने लगे। एक ही दिन कविता सुनाई और चेहरे की तरफ इतना घूरकर देखा कि, यह दाद दे भी रहा है, कि नहीं। लोग उन्हें दूर से ही देखते, तो कलेजा धक से रह जाता। जान-पहचान वाले चोरी-छुपे निकलते।
अरसे से उन्होंने एक नियम बना लिया था, ’’किसी की उपेक्षा नहीं करेंगे। कोई भी सुधी श्रोता निकल सकता है। श्रोताओं के सींग थोड़ेई होते हैं।’’ अनजान श्रोताओं को तो छलांग लगाकर ऐसे पकड़ते, मानो छलांग नहीं लगाई, तो भाग जाएगा। साहित्यकार, तो सौ परदों के भीतर छुपे, डरे-सहमे रहते। कवि महाशय करते भी तो ऐसा जुर्म थे कि, कोई साहित्यकार दिखा नहीं, एकदम हमलावर हो जाते। भीषण काव्य-पाठ चालू कर देते। धारावाहिक खंडकाव्य सुनाते।
अब सामने वाला निकला तो था सब्जी खरीदने। गृहणी क्या जाने कि, सब्जी लाने वाले को ’जानलेवा’ ने हाईजैक कर लिया है। उसके सुहाग के प्राण भारी संकट में हैं। देर होना स्वाभाविक हो जाता। देर हो जाने पर, गृहलक्ष्मी पीड़ित को जली-कटी सुनाती। महीनों दंपत्ति में बोलचाल बंद हो जाती।
सृष्टि के सारे विषयों पर उन्होंने कविता लिख मारी। गांव-कूचे-चौबारे पर भी। यहां तक कि जर्रे-जर्रे पर लिख मारी। मोबाइल बैटरी, लो बैटरी। फिर मॉडेम-प्रिंटर को तक उनके काव्य का विषय बने का दर्जा हासिल हुआ। लाख हूटिंग हुई हो, उनका जुझारूपन टूटा नहीं। एक भी लम्हा गंवाए बगैर काव्य-पाठ चालू।
सुनने में तो ये भी आया कि, कुछ दिनों से विषाणु-जीवाणु-कीटाणु पर कविता कर रहे हैं। कहते हैं, ’’हैं तो, इसी सृष्टि का हिस्सा। उन्हें भी तो उसी सृष्टा ने रचा है।’’ दबी जुबान से लोग कहते हैं, ’’माइक्रो ऑर्गेनिज्म पर इसलिए लिख रहे हैं क्योंकि वे विरोध नहीं जता सकते। और शायद इसलिए भी कि, आखिर होते तो वे भी ’जानलेवा’ ही हैं।’
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रचनाकार ललित मोहन रयाल उत्तराखंड लोकसेवा में अपर सचिव पद पर कार्यरत हैं। अब तक उनके दो गद्य संग्रह ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ और हाल ही में ‘अथश्री प्रयाग कथा’ प्रकाशित हो चुकी हैं। साहित्य जगत में उनके लेखन को व्यंग्य की एक नई ही शैली के रुप में पहचान मिल रही है।