संस्कृति

फिर जीवंत हुई ‘सयेल’ की परंपरा

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हरियाली पर्व हरेलाकी तरह पहाड़ के लोकजीवन में धान की रोपाई के दौरान निभाई जाने वाली सयेलकी परंपरा भी हमारे पर्वतीय समाज में सामुहिकता
के दर्शन कराती है। हरेला को हमने हाल के दिनों में सरकारी आह्वान पर कुछ हद तक अपनाना
शुरू कर दिया है। मगर
, सयेल की परंपरा कहीं विस्मृति की खोह में
जा चुकी है। यह खेती से हमारी विमुखता को दर्शाती है। हालांकि पिछले दिनों यमकेश्वर
विकास खंड के गांव सिंदुड़ी के बैरागढ़ तोक में बुजुर्ग कुंदनलाल जुगलाण की पहल पर जरूर
इसे दोबारा से चलन में लाने की कोशिश हुई है।

            पहाड़ में धान की रोपाई के वक्त सयेल की शुरूआत लोक वाद्ययंत्रों ढोल दमाऊं
की थाप और जागरों के बीच होती थी। इसका आशय था काश्तकार का अपने ईष्टदेव से अच्छी खेती
की कामना करना। मांगलिक कार्य की तरह से धान की रोपाई की यह परंपरा आज बदलते दौर की
आपाधापी के बीच लगभग खत्म हो गई। पहाड़ों से पलायन ने हरेला की तरह इसे भी भुला ही दिया।
अच्छी बात यह कि 2014 की आपदा से तबाह
बैरागढ़ की खेती को दोबारा जिंदा करने के मकसद से यहां के ग्रामीण
65 वर्षीय बुजुर्ग कुंदनलाल जुगलाण की पहल पर इस सांस्कृतिक विरासत को सहेजने
और आगे बढ़ाने की कोशिश से जुड़े हैं। ग्रामीणों ने सामुहिक तौर पर ढोल दमाऊं की थाप
और जागरों के बीच उत्साह के साथ धान की रोपाई से पहले अपने खेतों को तैयार करने के
लिए खरपतवार को हटाया।

प्रधान अरूण जुगलाण ने बताया कि पहली
बार जब सयेल की परंपरा के बारे जाना
, उसे लोक वाद्यों के साथ निभाने का मौका मिला,
तो अपनी इस विरासत से जुड़ना बेहद अच्छा लगा। इस रिवाज को दोबारा जीवंत
करने के सूत्रधार बुजुर्ग कुंदनलाल जुगलाण ने बताया कि उनकी युवावस्था तक गांवों में
यह परंपरा बखुबी निभाई जाती रही। लेकिन आधुनिकता के कारण यह हमसे दशकों पीछे छुट गई।
लोकवादक दाताराम और प्रकाशचंद्र ने कहा कि बुजुर्गों की यह पहल निश्चित ही नई पीढ़ी
को अपने जड़ों से जुड़ने के लिए प्रेरित करेगी।

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