गेस्ट-कॉर्नर
उत्तराखंड में आज भी जारी है ‘उमेश डोभालों’ की जंग
सत्तर
के दशक में गढ़वाल विश्वविद्यालय का मेघावी छात्र उमेश डोभाल कलम के चश्के के कारण घुमन्तू
पत्रकार बन गया। पीठ पर पिठ्ठू लादे दुर्गम पहाड़ों की कोख में समाये गांवों-कस्बों
की धूल छानता, भूख-प्यास से बेखबर, धार-खाल की छोटी सी दुकान, खेत, घराट, धारे और दूर
डांडे से घास-लकड़ी लाते पुरुषों और महिलाओं से बतियाते हुए वह वहीं बैठे-बैठे अखबारों
और पत्रिकाओं के लिए गहन-गंभीर रिपोर्ट बनाता था।
के दशक में गढ़वाल विश्वविद्यालय का मेघावी छात्र उमेश डोभाल कलम के चश्के के कारण घुमन्तू
पत्रकार बन गया। पीठ पर पिठ्ठू लादे दुर्गम पहाड़ों की कोख में समाये गांवों-कस्बों
की धूल छानता, भूख-प्यास से बेखबर, धार-खाल की छोटी सी दुकान, खेत, घराट, धारे और दूर
डांडे से घास-लकड़ी लाते पुरुषों और महिलाओं से बतियाते हुए वह वहीं बैठे-बैठे अखबारों
और पत्रिकाओं के लिए गहन-गंभीर रिपोर्ट बनाता था।
एक
लंबे झोले में डाक टिकट, लिफाफे, डायरी, गोंद, पेन-पेन्सिल और सफेद कागज तब उसकी बेशकीमती
दौलत हुआ करती थी। वह इसी साजों-सामान को कंन्धों पर लटकाये महीनों यायावरी में रहता
था। इस नाते वह चौबीसों घन्टों का पत्रकार था। पर पत्रकारिता, उसके लिए मिशन थी, व्यवसाय
नहीं।
लंबे झोले में डाक टिकट, लिफाफे, डायरी, गोंद, पेन-पेन्सिल और सफेद कागज तब उसकी बेशकीमती
दौलत हुआ करती थी। वह इसी साजों-सामान को कंन्धों पर लटकाये महीनों यायावरी में रहता
था। इस नाते वह चौबीसों घन्टों का पत्रकार था। पर पत्रकारिता, उसके लिए मिशन थी, व्यवसाय
नहीं।
उमेश
डोभाल ने पहाड़ और पहाड़ी के हालातों पर बेबाक लिखा। विशेषकर पहाड़ी जनजीवन के लिए आदमखोर
बने शराब माफिया के नौकरशाह और राजनेताओं से सांठगांठ के झोल उसने कई बार उतारे। जनपक्षीय
पत्रकारिता के खतरों को बखूबी जानते हुए भी वह कभी डरा और डिगा नहीं। 25 मार्च,
1988 को पौड़ी में उसके अपहरण और बाद में हत्या का यही कारण था कि वह शराब माफिया और
प्रशासन की मिलीभगत पर नई रिपोर्ट लिखने वाला था।
डोभाल ने पहाड़ और पहाड़ी के हालातों पर बेबाक लिखा। विशेषकर पहाड़ी जनजीवन के लिए आदमखोर
बने शराब माफिया के नौकरशाह और राजनेताओं से सांठगांठ के झोल उसने कई बार उतारे। जनपक्षीय
पत्रकारिता के खतरों को बखूबी जानते हुए भी वह कभी डरा और डिगा नहीं। 25 मार्च,
1988 को पौड़ी में उसके अपहरण और बाद में हत्या का यही कारण था कि वह शराब माफिया और
प्रशासन की मिलीभगत पर नई रिपोर्ट लिखने वाला था।
उमेश
की हत्या के बाद पहाड़ की जनता ने शराब माफिया और सरकार के खिलाफ एक लंबी स्वस्फूर्त
लड़ाई लड़ी। इस लड़ाई में पत्रकार, बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता, वैज्ञानिक और छात्रों
ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। यह आंदोलन तब के दौर में उत्तराखंड की सीमाओं से बाहर प्रदेश
और देश के अन्य क्षेत्रों में लम्बे समय तक गर्म रहा। परंतु चौंका देने वाली बात यह
थी कि इस शराब विरोधी लड़ाई के खिलाफ शराब माफिया का जबाबी आंदोलन भी सड़कों पर उतरा।
जिसने अस्सी के अन्तिम वर्षों में शराब माफिया के खौफनाक इरादों और उसकी राजनैतिक पकड़
की मजबूती का सरेआम पर्दाफाश किया था।
की हत्या के बाद पहाड़ की जनता ने शराब माफिया और सरकार के खिलाफ एक लंबी स्वस्फूर्त
लड़ाई लड़ी। इस लड़ाई में पत्रकार, बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता, वैज्ञानिक और छात्रों
ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। यह आंदोलन तब के दौर में उत्तराखंड की सीमाओं से बाहर प्रदेश
और देश के अन्य क्षेत्रों में लम्बे समय तक गर्म रहा। परंतु चौंका देने वाली बात यह
थी कि इस शराब विरोधी लड़ाई के खिलाफ शराब माफिया का जबाबी आंदोलन भी सड़कों पर उतरा।
जिसने अस्सी के अन्तिम वर्षों में शराब माफिया के खौफनाक इरादों और उसकी राजनैतिक पकड़
की मजबूती का सरेआम पर्दाफाश किया था।
उमेश
के जाने के 30 सालों बाद आज की तारीख में उत्तराखंड में उस जैसे पत्रकार तो न जाने
कहां दफन हो गये हैं, पर हां शराब तंत्र जरूर तगड़ा हुआ है। उमेश के समय में राजनैतिक
संरक्षण में शराब माफिया पनपता था। वर्तमान में शराब माफिया के संरक्षण में राजनैतिक
तंत्र पनाह लिये हुए है। आज उत्तराखंडी जनजीवन में शराब का कारोबार कानून सम्मत और
सामाजिक स्वीकृत की ताकत लिए हुए है।
के जाने के 30 सालों बाद आज की तारीख में उत्तराखंड में उस जैसे पत्रकार तो न जाने
कहां दफन हो गये हैं, पर हां शराब तंत्र जरूर तगड़ा हुआ है। उमेश के समय में राजनैतिक
संरक्षण में शराब माफिया पनपता था। वर्तमान में शराब माफिया के संरक्षण में राजनैतिक
तंत्र पनाह लिये हुए है। आज उत्तराखंडी जनजीवन में शराब का कारोबार कानून सम्मत और
सामाजिक स्वीकृत की ताकत लिए हुए है।
तब
से अब तक बस इतना सा फर्क हुआ है कि तब शराब चुनिंदा लोगों की आय का जरिया थी, आज शराब
ही सरकार की आय का मुख्य जरिया है। आज उत्तराखंड में शराब न बिके तो सरकार की अकड़ और
पकड़ को धड़ाम होने में कोई देरी थोड़ी लगेगी।
से अब तक बस इतना सा फर्क हुआ है कि तब शराब चुनिंदा लोगों की आय का जरिया थी, आज शराब
ही सरकार की आय का मुख्य जरिया है। आज उत्तराखंड में शराब न बिके तो सरकार की अकड़ और
पकड़ को धड़ाम होने में कोई देरी थोड़ी लगेगी।
हम
सालाना उमेश डोभाल स्मृति समारोह मना रहे हैं, तो दूसरी ओर शराबतंत्र के लिए उत्तराखंड
में रोज ही उत्सव है। उत्तराखंड राज्य की विकास की गाड़ी उसी के बलबूते पर फर्राटा मार
रही है, बल। वैसे ये कोई कहने वाली बात, ठैरी। सभी जानते हैं।
सालाना उमेश डोभाल स्मृति समारोह मना रहे हैं, तो दूसरी ओर शराबतंत्र के लिए उत्तराखंड
में रोज ही उत्सव है। उत्तराखंड राज्य की विकास की गाड़ी उसी के बलबूते पर फर्राटा मार
रही है, बल। वैसे ये कोई कहने वाली बात, ठैरी। सभी जानते हैं।
आलेख- अरुण कुकसाल